भाषा सीखने से जुड़ी स्मृति : एक बच्चे की नज़र से
मनीष पटेल
19 सितम्बर 2025

यह 21वीं सदी का कोई पहला या दूसरा ही साल था। यह मेरे स्कूल के दिनों की बात है। यही वह समय था, जब स्कूल जाने में ख़ूब मज़ा आता था और मैं अपना अधिकांश समय स्कूल की कक्षाओं में बैठते हुए बिताता था। विज्ञान की क्लास बहुत ही रोचक होती थी। हम लोगों को विज्ञान अजय श्रीवास्तव सर पढ़ते थे। परागकण के बारे में बताते हुए, एक बार वह सचमुच गुड़हल का फूल लेकर आए थे। वह हम सब को बहुत ही अच्छा लगा था। इस विषय पर हमारी जो समझ बनी थी, वह कमाल की थी। हम कई लोगों को बताते थे कि फूल से फल बनने की प्रक्रिया क्या होती है और इसमें कीड़े-मकोड़े, तितली, मधुमक्खी, चिड़ियाँ और हवा आदि की भूमिका कितनी बड़ी होती है और इसके बाद जब भी हम छोटे-छोटे बच्चे खेतों से गुज़रते थे तो इन कीट-पतंगों को बहुत ही आदर के भाव से देखते थे। हमें लगता था कि वे बेहद ही ज़रूरी काम कर रहे हैं।
वहीं, सामाजिक विज्ञान हम लोगों को भास्कर पांडेय सर पढ़ाते थे। उनकी भी एक यादगार क्लास है, जिसमें वह एक बार ग्लोब लाए थे—जिसे हम लोगों ने ख़ूब घुमाया था; और हमने पूरी दुनिया को एक साथ देखा, तमाम देशों को अपने हाथों से नचाने का सुख महसूस किया था। ऐसा नहीं है कि हमारे स्कूल में सबकुछ अच्छा-ही-अच्छा था। हम भाषाएँ भी पढ़ते थे—अँग्रेज़ी, संस्कृत और हिन्दी। हिन्दी समझ जाते थे और संस्कृत की क्लास होती नहीं थी और बची अँग्रेज़ी, जिसकी क्लास सबसे बोरिंग और ख़राब होती थी। वैसे हम अँग्रेज़ी की भी सारी कक्षाएँ करते थे, लेकिन समझ में कुछ भी नहीं आता था। अँग्रेज़ी की कक्षा के अलावा किसी और क्लास में भाषा की कोई ऐसी दीवार नहीं होती थी, जिसमें आवागमन ही न हो सके। इसीलिए अँग्रेज़ी की कक्षा में हम गुरुजी को उनकी अँग्रेज़ी का रियाज़ करने का पूरा मौक़ा देते थे। बच्चे एक भी वाक्य कभी बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे क्योंकि गुरुजी की अँग्रेज़ी के सामने हमारी अँग्रेज़ी कहीं नहीं टिकती थी। हमने हर पाठ पढ़ा, समय पर कक्षाएँ अटेंड कीं, कॉपी में लिखते रहे लेकिन किसी की आवाज़ कभी नहीं फूटती थी।
जब मैं भारत में अपने बचपन की अँग्रेज़ी भाषा सीखने के बारे में सोचता हूँ, तो मेरी इस कक्षा की यह स्मृति बार-बार लौट आती है। घटना फ़ारसी कवि फ़िरदौसी को अँग्रेज़ी की क्लास में पढ़ाए जाने के बाद की है। यह सवाल जवाब का दिन था। हमारे अँग्रेज़ी शिक्षक श्री जटाशंकर शुक्ल के क्लास में आते ही उनकी हमारे सहपाठी दोस्त धनलाल मौर्य पर नज़र पड़ी और पूछा—“Who was Rostam?”
मेरे दोस्त ने जवाब देने की कोशिश में कहा—“Who was Sohrab”.
उसने पूरा वाक्य अँग्रेज़ी में बोला। इससे हम लोगों को थोड़ा रश्क भी हुआ कि इसकी अँग्रेज़ी कितनी अच्छी है, लेकिन अगले ही क्षण जो हुआ उससे हम दंग रह गए। गुरुजी ने उसके हाथ की उँगलियाँ पकड़ी और कसकर 8-10 डस्टर मारा। हम समझ भी नहीं पाए कि आख़िर हुआ क्या। पूरी कक्षा सन्न रह गई। हमें तो लगा कि उसने सही उत्तर दिया है लेकिन हम ये कभी समझ ही नहीं पाए कि उसकी पिटाई क्यों हुई। उस दिन के बाद वो धुनाई देखकर हमने एक रणनीति बनाई—‘सिर्फ़ चुप रहने की।’ हमने प्रश्नों का उत्तर देने से बचना शुरू कर दिया। हम बच्चों के लिए, “मुझे नहीं पता” कहना आसान हो गया। इससे पिटाई थोड़ी कम होती थी। हमारी नन्हीं समझ में यही बैठ गया कि अगर सही जवाब देने पर भी सज़ा मिल सकती है, फिर अँग्रेज़ी बोलना तो भयानक ख़तरनाक चीज़ है।
कई सालों के बाद, जब मैं विश्वविद्यालय पहुँचा और अँग्रेज़ी ख़ुद से सीखना शुरू किया, तब मुझे असलियत समझ आई। मेरे दोस्त ने उत्तर देने के बजाय एक और प्रश्न पूछ दिया था। इसी वजह से उसकी कुटाई हुई थी। लेकिन हमें यह बात किसी ने समझाई ही नहीं। हमारी समझ में यही बैठ गया था कि बोलना ही जोखिम भरा है।
प्रोत्साहन मिलने की जगह हमने डर पाया। सराहना मिलने की जगह हमें सज़ा मिली और पूरी स्कूली शिक्षा में अँग्रेज़ी हमारे लिए बस लिखना, पढ़ना और व्याकरण तक सीमित रही। बोलना तो पाठ्यक्रम से वैसे ही ग़ायब था जैसे गधे के सिर से सींग। यही कारण है कि आज भी भारत में, ख़ासकर सरकारी स्कूलों के छात्र, अँग्रेज़ी बोलने के लिए कहे जाने पर पत्थर के बुत हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि उन्हें शब्द या व्याकरण नहीं आता, बल्कि इसलिए कि उन्हें कभी बोलने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं किया जाता है। उन्हें यह कभी नहीं सिखाया जाता कि ग़लती करना सीखने का हिस्सा है।
मेरे लिए भी स्कूल छोड़ने के कई सालों बाद जाकर अँग्रेज़ी में पूरे वाक्य बनाना और बिना डर के उत्तर देना संभव हुआ। मुझे सिर्फ़ भाषा ही नहीं, बल्कि आत्मविश्वास भी फिर से सीखना पड़ा। जो ऐसे शिक्षकों द्वारा न जाने कितने बच्चों से छीन लिया जाता था/है। सवाल यह है कि गुरु की महिमा का जो बखान हमारी सांस्कृतिक यात्रा में है, वह कितना जायज़ है इसका फ़ैसला आपको करना है। क्या आप चाहेंगे कि आपके बच्चे को कोई ऐसा शिक्षक पढ़ाए जो उसमें आत्मविश्वास का भाव भर पाने में नाक़ाम हो? शायद इसीलिए कबीर जब गुरु की बात करते हैं, तब वे ‘सतगुरु’ की बात करते हैं। लिखते हैं कि—
सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग॥
इसी सतगुरु की कमी तब से लेकर अब तक कई मोड़ों पर पड़ती और न मिलने पर खटकती रहती है। जो अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का रास्ता दिखा दे और मुझ जैसे तमाम बच्चों के लिए भाषा सीखना जो दुरूह से दुरूहत्तर होता चला गया था, मनोरंजन में बदल जाय। अब मुझे समझ आता है कि भाषा सीखना वैसा नहीं होता जैसा मैंने समझा था। भाषा सीखना तो उतना ही मज़ेदार होता है, जितना किसी मकैनिक के लिए किसी मशीन के पुर्जे को खोलना, किसी लुहार का लोहे को गर्म कर उस पर हथौड़े मारकर खुरपी बना देना। किसी किसान का अपनी फ़सल को काटने के बाद अनाज को मुट्ठी में लेना। किसी बच्चे का अपने खिलौने को तोड़कर कर देखना, किसी डिटेक्टिव द्वारा किसी गुत्थी का सुलझा लेना, किसी पक्षी द्वारा फलों के रस तक पहुँच जाना, रहस्य से भरा हुआ। यह एक जीवंत प्रक्रिया है—बातचीत, खेल और मनोरंजन से भरा हुआ। इसमें अभ्यास हो, असली संवाद हो, प्रोत्साहन और सराहना हो, तो बात ही क्या हो। अभ्यास व्यावहारिक और आनंददायक होना चाहिए—ठीक उस अनुभव के विपरीत जो मुझे बचपन में मिला। लेकिन, ये सब एक बेहतरीन शिक्षक के द्वारा ही संभव है। भाषा विवाद का सारा झंझट ही ख़त्म हो जाए अगर बच्चों को अच्छा शिक्षक और स्कूल मिल जाए। भाषा सीखना तो एक रोमांचक यात्रा पर जाना है और इस यात्रा पर कौन नहीं जाना चाहेगा। जब सफ़दर हाशमी बच्चों के लिए कविता लिखते हैं ‘किताबें’ और कहते हैं—
किताबों में चिड़ियाँ चहचहाती हैं
किताबों में खेतियाँ लहलहाती हैं
किताबों में झरने गुनगुनाते हैं
परियों के क़िस्से सुनाते हैं
किताबों में रॉकिट का राज़ है
किताबों में साइंस की आवाज़ है
किताबों का कितना बड़ा संसार है
किताबों में ज्ञान की भरमार है
क्या तुम इस संसार में
नहीं जाना चाहोगे?
किताबें, कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
अब अगर किताबों में इतनी सारी चीज़ें हैं और वो हम बच्चों से इश्क़ करती हैं तो कौन-सा ऐसा अभागा बच्चा होगा जो इस दुनिया में नहीं जाना चाहेगा। अगर उसे ये सब दिखाने और महसूस कराने वाला टीचर मिल जाए।
यह मेरी कहानी है, लेकिन सिर्फ़ मेरी नहीं है। उत्तर भारत के लाखों छात्र यही अनुभव करते हैं और यही कारण है कि सालों तक अँग्रेज़ी पढ़ने के बाद भी वे चुप्पी साधे रहते हैं। इस कहानी के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं की गुत्थी सुलझाने का काम आप विज्ञ पाठकों पर छोड़ रहा हूँ।
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मनीष पटेल को और पढ़िए : टूटते आदर्श की दरारों के बीच विचरण करते इंस्टाग्राम युग के छात्र | सैयारा : अच्छी कहानियाँ स्मृतियों की जिल्द हैं
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