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रस पर उद्धरण

जब कोई रस से उत्पन्न सौंदर्य के अनुभव का आनंद लेता है, उसी क्षण 'संसार' विलीन हो जाता है।

दुर्गा भागवत

रस-सामग्री से तो अशिक्षित रुचि भी, किसी-न-किसी तरह स्वाद प्राप्त कर लेती है।

रवींद्रनाथ टैगोर

काव्यशास्त्र में जिसे श्रृंगार रस कहा जाता है, वही भक्तिशास्त्र में मधुर रस या उज्ज्वल रस माना जाता है।

मैनेजर पांडेय

भारतीय साहित्य और कलाओं के मूल में जो स्थायी भाव माने गए हैं, वे केवल विक्षिप्तों की विवेक भावनाएँ नहीं हैं—उनके साथ ज्ञान-शक्ति का भी समन्वय है।

श्यामसुंदर दास

छंद ही ऐकांतिक रूप से काव्य हो, ऐसी बात नहीं है। काव्य की मूल वस्तु है रस; छंद आनुषंगिक रूप से इसी रस का परिचय देता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

भारतीय काव्य-विवेचन में कविता और कला का अधिकांश विवेचन—रस का आधार लेकर किया गया है।

श्यामसुंदर दास

साहित्य अपनी चेष्टा को सफल करने के लिए अलंकार, रूपक, छंद, आभास, इंगित का सहारा लेता है। दर्शन विज्ञान के समान निरलंकार होने से उसका काम नहीं चलता।

रवींद्रनाथ टैगोर

साहित्य और आर्ट में कोई वस्तु सत्य है या नहीं, इसका प्रमाण मिलता है रस की भूमिका में।

रवींद्रनाथ टैगोर

ऐतिहासिक दृष्टि से रस सर्वप्रथम अभिनय के संबंध में ही माना गया था और भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में पहले-पहल इसका निरूपण हुआ था।

श्यामसुंदर दास

शांत रस है परिपूर्णता का रस।

रवींद्रनाथ टैगोर

जो भाषा हृदय के बीच अव्यवहित आवेग से प्रवेश नहीं कर पाती, उस भाषा में साहित्य रस, साहित्य रूप की सृष्टि संभव नहीं।

रवींद्रनाथ टैगोर

काव्य के गुण और अन्य सुंदर विशेषताएँ, उस रस का उत्कर्ष करती हैं और उसके दोष (स्खलन) उसका अपकर्ष करते हैं।

श्यामसुंदर दास

अनुभूति के बाहर रस का कोई अर्थ ही नहीं।

रवींद्रनाथ टैगोर

जिस तरह सात रंगों की किरणें मिलकर श्वेत वर्ण बनता है, उसी तरह चित्त का प्रवाह जब विभिन्न भागों में खंडित होकर, विश्व के साथ अपने अविच्छिन्न सामंजस्य से परिपूर्ण हो जाता है—तब शांतरस का जन्म होता है।

रवींद्रनाथ टैगोर

रस का सामान्य रस-भेद के परे नहीं है, बल्कि ऐसा है कि हर रस विशेष में ‘रूपं रूप प्रतिरूपो बभूव’ की तरह परम रस की पहचान हो सकती है—ऐसी कि हर रस अपनी अलग पहचान रखते हुए भी, रस के परमार्थ को अपने में पूरी तरह सहेज लेता है। वैसे ही जैसे हर देवता भिन्न होते हुए भी देवत्व में पूर्णमिदम् होता है।

मुकुंद लाठ