चार नाम, एक इंक़लाब
अर्जुन पांडेय
19 दिसम्बर 2025
रेल की पटरियाँ दूर तक फैली थीं। प्लेटफ़ॉर्म की उखड़ी हुई खपरैल समय की मार झेलती हुई-सी लगती थीं। आज से ठीक सौ साल पहले लखनऊ के ऐसे ही स्टेशन पर आठ-डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन पर क्रांतिकारियों के एक दल की नज़र थी। इनके हाथों में थी कुछ माउज़र पिस्तौल और रिवॉल्वर।
अशफ़ाक़ के मन में कुछ संशय था, बोले—“राम एक बार फिर से सोच लो। यह सही समय नहीं है। चलो वापिस लौट चलें।”
राम ने डाँटते हुए कहा, “अब कोई बात नहीं करेगा।”
यह थे शाहजहाँपुर के अशफ़ाक़ उल्ला खान और रामप्रसाद बिस्मिल। दोनों भिन्न परिवेश से आते थे, पर दोस्ती अटूट थी। दोनों अपने अन्य साथियों के साथ क्रांतिकारी दल के लिए कुछ धन एकत्रित करने आए थे। ट्रेन में रखा खज़ाना उनका निशाना था।
अँधेरा उतर रहा था। धड़कनें तेज़ थीं। काकोरी स्टेशन पर आठ-डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर पहुँची। साधारण कपड़ों में, भीतर हथियार छुपाए, दूसरी श्रेणी का टिकट लिए अशफ़ाक़, राजेंद्र लाहिड़ी और सचिंद्रनाथ बख़्शी दूसरे दर्जे में चढ़े; बाक़ी साथी तीसरे में।
कुछ ही दूर चलकर बख़्शी ने पूछा—“मेरा गहनों का डिब्बा कहाँ है?”
अशफ़ाक़ बोले—“अरे, काकोरी में भूल आए।”
यही बहाना था। तय जगह पर ज़ंजीर खिंची। ट्रेन रुकी और काम शुरू हो गया।
घोषणा गूँजी—“केवल सरकारी ख़ज़ाना लिया जाएगा। किसी मुसाफ़िर को नुक़सान नहीं पहुँचेगा।”
गार्ड को गिराया गया, लोहे का संदूक़ उतारा गया। दोनों ओर माउज़र लिए पहरा था। हर कुछ मिनटों में गोलियाँ दागी जातीं—दहशत बनाए रखने को।
संदूक़ नहीं खुल रहा था। अशफ़ाक़ ने हथौड़ा उठाया। ठाँक-ठाँक... तभी सामने दूर एक रोशनी उभरी। ज़मीन काँपी।
धड़-धड़... धड़-धड़...
सामने से दूसरी ट्रेन आती हुई दिखी—पंजाब मेल!
क्षण भर का सन्नाटा। हथियार कस गए। बिस्मिल शांत रहे—“हथियार नीचे। यहीं खड़े रहो।”
इंजन गरजता हुआ निकला। डिब्बे सरकते चले गए—छन-छन... ट्रैक-टक... और फिर पटरी ख़ाली।
कुछ नहीं हुआ।
अशफ़ाक़ ने फिर हथौड़ा चलाया—धम्म! संदूक़ टूट गया। रुपया झलका।
तीन गठरियाँ बनीं। अँधेरे में दिशा बदली गई। सब कुछ योजनानुसार। चौदह हथियारबंद लोगों और सशस्त्र फ़ौज के बीच से दस युवक सरकारी धन ले उड़े। सुबह हुई। अख़बार गूँज रहे थे—“काकोरी में डकैती! काकोरी में डकैती!”
लूट की रक़म भले ही साढ़े चार हज़ार रुपये थी, पर चोट सीधी ब्रिटिश हुकूमत के अहंकार पर पड़ी थी। सवाल गूँज उठा—क्या सरकार इतनी कमज़ोर है कि कुछ युवक चलती ट्रेन को मिनटों में लूट लें और वह देखती रह जाए? आहत सरकार ने जाँच तुरंत रेलवे पुलिस से हटाकर सी.आई.डी. को सौंप दी। खुफ़िया तंत्र हरकत में आ गया।
जाँच की कमान आर. ए. हॉर्टन के हाथ थी। घटनास्थल देखते ही वह समझ गए कि यह साधारण डकैती नहीं थी। पटरी के पास 36 फूँके और पाँच ख़ाली कारतूस मिले। जब वे बंगाल की क्रांतिकारी कार्रवाइयों में मिले कारतूसों से मेल खा गए, शक की दिशा साफ़ हो गई।
एक छोटी-सी भूल भी रह गई थी। ब्रेक वैन में छूटी एक चादर। पाँच बिंदुओं वाले धोबी-निशानों के साथ। सी.आई.डी. उन निशानों से लालता धोबी तक पहुँची, जिसने बताया कि चादर रामेश्वर होटल में धुली थी। शक और गाढ़ा हो गया।
निगरानी तेज़ हुई। विक्टोरिया पार्क से लूट के काग़ज़ और ख़ाली थैले मिले। शाहजहाँपुर में बिस्मिल द्वारा नोट बदलवाने और चार सौ-रुपये के नोट जमा कराने से हॉर्टन की निगाह वहीं टिक गई। जाँच बढ़ी तो पता चला—अशफ़ाक़ और बिस्मिल ग़ायब हैं, बनारस में सच्चिंद्रनाथ बख़्शी भी कई दिनों से नहीं दिखे, मन्मथनाथ भी ओझल थे।
पुलिस सच के क़रीब थी। तभी इनाम घोषित हुआ—पाँच हज़ार रुपये। इश्तेहार हर स्टेशन, हर थाने, हर दीवार पर चिपक गए। और हवा में एक ही सवाल तैरने लगा—आख़िर थे कौन ये लोग?
काकोरी को एक महीना बीत चुका था। त्योहारों की आहट के बीच, 26 सितंबर 1925 की भोर में ब्रिटिश सरकार ने एक साथ हमला बोला। बनारस, कानपुर, लखनऊ, शाहजहाँपुर और इलाहाबाद—हर जगह एक ही समय छापे पड़े। चालीस क्रांतिकारी गिरफ़्तार कर लिए गए। जहाँ ज़रा भी संदेह था, वहाँ वारंट पहुँचा।
लेकिन कोई हाथ नहीं आया। सच्चिंद्रनाथ बख़्शी, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान समय रहते ओझल हो गए। सबसे उल्लेखनीय नाम था—चंद्रशेखर आज़ाद। काशी में वारंट की भनक लगते ही वह रास्ता बदलकर निकल गए। कुछ ही देर बाद पहुँची पुलिस ख़ाली हाथ रह गई।
उधर बिस्मिल गिरफ़्तारी की संभावना को जानते हुए भी रुके रहे। थकान थी, आत्मविश्वास था और यह विश्वास भी कि पुलिस उनके विरुद्ध ठोस प्रमाण नहीं जुटा पाएगी।
सरकार ने इन गिरफ़्तारियों को बड़ी सफलता बताया। प्रताप में छपा—“देश के नवरत्न गिरफ़्तार।” पर जल्द ही साफ़ हो गया कि सब पर सबूत नहीं हैं। पंद्रह रिहा कर दिए गए। शेष को लखनऊ जेल भेजा गया, अलग-थलग रखकर पूछताछ शुरू हुई—यातनाओं और प्रलोभनों के साथ।
काकोरी का असली मुक़दमा अब शुरू हो रहा था।
गिरफ़्तारियों के बाद पुलिस ने ठोस मुक़दमा गढ़ना शुरू किया। भीतर से लगे आघात ने उनका काम आसान कर दिया। बिस्मिल के शब्दों में—“आस्तीन का साँप था, जिसने गहरा डँस लिया।”
निर्णायक मोड़ तब आया जब काकोरी एक्शन में सीधे शामिल बनवारीलाल ने जुर्म क़ुबूल कर लिया। उसी के बयान से पूरा मामला पुलिस की ओर झुक गया। बिस्मिल पर भी डर और लालच—दोनों आज़माए गए। फाँसी का भय दिखाया गया, कम सज़ा, विदेश भेजने और धन का प्रलोभन दिया गया—पर बिस्मिल नहीं झुके। एक क्षण को समझौते का विचार आया भी, तो दल की निष्ठा के आगे छोड़ दिया गया।
1926 के आरंभ में गिरफ़्तारियों की कड़ी आगे बढ़ी। 10 जनवरी को राजेंद्रनाथ लाहिड़ी कलकत्ता में पकड़े गए। 17 जनवरी को मुकुंदीलाल बनारस में गिरफ़्तार हुए। 28 अभियुक्तों का मामला मजिस्ट्रेट की अदालत पहुँचा। साक्ष्य के अभाव में कुछ रिहा हुए, इक़बाली गवाहों को माफ़ी मिली। अंततः 21 अभियुक्तों पर मुक़दमा चला। तीन अब भी फ़रार थे—अशफ़ाक़, आज़ाद और बख़्शी।
मुक़दमा लखनऊ के रिंग थिएटर में विशेष सत्र न्यायालय में चला। काकोरी के साथ अन्य डकैतियों और षड्यंत्र के आरोप जोड़ दिए गए। आईपीसी की धाराएँ 121A, 120B और 396 लगाई गईं।
अदालत जाते हुए क्रांतिकारी गीत गाते थे। मुक़दमा उनके लिए बचाव नहीं, संघर्ष का मंच बन गया था। जेल के भीतर जीवन चलता रहा—गीत, अध्ययन, बहसें। पर साथ ही मतभेद भी उभरे। बिस्मिल इन अंतर्विरोधों से आहत थे। एक असफल पलायन-योजना ने कड़वाहट बढ़ा दी। फिर भी, तमाम टकरावों के बीच राष्ट्रप्रेम की डोर टूटी नहीं।
सितंबर में सच्चिंद्रनाथ बख़्शी पकड़े गए। दिसंबर 1926 में अशफ़ाक़ दिल्ली में गिरफ़्तार हुए। दोनों पर अलग पूरक मुक़दमा चला। लगभग एक वर्ष की सुनवाई के बाद, 6 अप्रैल 1927—फैसले की तारीख़ तय हुई।
अब इतिहास साँस रोककर प्रतीक्षा कर रहा था।
अगले दिन सबने स्नान-व्यायाम किया, विशेष भोजन बना। साथियों ने एक ही थाली में प्रेम से खाया—जेलर तक की आँखें भर आईं। दस बजे बेड़ियों में सब अदालत पहुँचे—‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ गूँजती रही।
जज हैमिलटन आए। सौ से अधिक पृष्ठों के फ़ैसले का सार पढ़ा गया और फिर सज़ाएँ शुरू हुईं। चार नाम मौत के लिए तय हुए—बिस्मिल, अशफ़ाक़, लाहिड़ी… और रोशन सिंह। रोशन सिंह ने जब फाँसी का फ़ैसला समझा, तो उनका चेहरा खिल उठा। बिस्मिल की ओर मुड़े और बोले—“राम, तुम अकेले जाना चाहते थे?”
बाक़ी सज़ाएँ सुनाई गईं—किसी को आजीवन, किसी को चौदह, दस, सात और पाँच वर्ष। कुछ रिहा भी हुए। अपनी-अपनी सज़ाओं पर अधिक न ध्यान देते हुए सब फाँसी पर चढ़ने वालों के पास एकत्रित हो गए। राजेंद्रनाथ लाहिड़ी ने पास खड़े मन्मथनाथ गुप्त से बंगाली में कहा, “दुनिया जैसे बदल गई।”
19 दिसंबर का दिन इतिहास में अशफ़ाक़, बिस्मिल और रोशन सिंह की फाँसी के लिए दर्ज होने वाला था। 26 वर्षीय राजेंद्रनाथ लाहिड़ी को निर्धारित तिथि से दो दिन पूर्व ही गोंडा जेल में फाँसी दे दी गई। 14 दिसंबर को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा—“देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यकता है। मृत्यु क्या है, जीवन की दूसरी दिशा के सिवा कुछ भी नहीं। इसके लिए मनुष्य दुख और भय क्यों माने। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाएगा तो मैं समझता हूँ कि हमारी मृत्यु व्यर्थ नहीं जाएगी।
सूख न जाए कहीं पौधा यह आज़ादी का,
ख़ून से अपने इसे इसीलिए तर करते हैं।”
17 दिसंबर को ही, यानि अपनी फाँसी से दो दिन पूर्व बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा पूरी की। एक अध्याय उसमें अशफ़ाक़ के नाम लिखा जिसमें वह कहते हैं—“तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर बहुतों को संदेह होता था कि कहीं इस्लाम धर्म त्याग कर शुद्धि न करा ले। पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मंडली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना। तुम्हारी जीत हुई, मुझमें तुममें कोई भेद न था। बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किए। मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिंदू-मुसलमान में कोई भेद है। तुम मुझ पर अटल विश्वास तथा अगाध प्रीति रखते थे। हाँ! तुम मेरा नाम लेकर पुकार नहीं सकते थे। तुम सदैव ‘राम’ कहा करते थे।”
19 दिसंबर को गोरखपुर जेल में फाँसी के दिन बिस्मिल उसी वक़्त उठे जिस वक़्त वे उठा करते थे। कसरत की। जब फाँसी के लिए लेने आए तो ‘भारत माता की जय’ एवं ‘वंदे मातरम्’ के जयघोष के साथ उठ गए। फाँसी की कोठरी में प्रवेश करते हुए बोले, “मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।” फाँसी के तख़्ते पर प्रार्थना की और त्रिसुपर्ण मंत्र का पाठ करते हुए विदा हो गए।
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ को उसी दिन फ़ैज़ाबाद में फाँसी दी जानी थी। उन पर भी अंतिम क्षणों तक गवाही देने का दबाव बनाया गया। एक बार एक पुलिस अधिकारी जेल में उनसे मिलने आया और सांप्रदायिक विष घोलते हुए बोला—“देखो अशफ़ाक़, तुम मुसलमान हो, हम भी मुसलमान हैं। हमें तुम्हारी गिरफ़्तारी से बहुत रंज है। रामप्रसाद वग़ैरा हिंदू हैं। इनका उद्देश्य हिंदू सल्तनत क़ायम करना है। तुम कैसे इन काफ़िरों के चक्कर में आ गए?”
यह सुनते ही अशफ़ाक़ का संयम टूट गया। उन्होंने तीखे स्वर में उत्तर दिया—“बहुत हुआ! ख़बरदार, ऐसी बात फिर कभी न कहिएगा। अव्वल तो पंडित जी वग़ैरह सच्चे हिंदुस्तानी हैं, उन्हें हिंदू सल्तनत, सिख राज या किसी भी फ़िर्क़ावाराना सल्तनत से सख़्त नफ़रत है और आप जैसा कहते हैं, अगर वह सत्य भी हो तो मैं अँग्रेज़ के राज्य से हिंदू राज्य ज़्यादा पसंद करूँगा। आपने जो उनको काफ़िर बताया, उसके लिए मैं आपको इस शर्त पर मुआफ़ी देता हूँ कि आप इसी वक़्त मेरे सामने से चले जाएँ।”
अशफ़ाक़ समानता और हिन्दू-मुस्लिम एकता के उतने ही दृढ़ पक्षधर थे जितने बिस्मिल। ‘बिरादराने वतन के नाम क़ब्र के किनारे से पैग़ाम’ में उन्होंने उस सुबह की कामना की थी—जब आज़ाद हिंदुस्तान पर सूरज उगे और छत्तर मंज़िल, लखनऊ में अब्दुल्ला मिस्त्री, लोको वर्कशॉप का मज़दूर, धनिया चमार किसान, और मिस्टर ख़लीक़ुज़्ज़मा, जगतनारायण मुल्ला व राजा महमूदाबाद—सब एक ही पंक्ति में, एक ही कुर्सी पर बैठे दिखाई दें।
फाँसी से एक दिन पहले जब कुछ मित्र मिलने आए तो वह हँसते हुए बोले—“आज मेरी शादी है।”
19 दिसंबर को, वह हँसी-ख़ुशी के साथ, कंधे पर क़ुरान-शरीफ़ का बस्ता टाँगे, हाजियों की भाँति लब्बैक कहते और कलमा पढ़ते हुए फाँसी के तख़्त तक पहुँचे। कुछ ही क्षण पहले उन्होंने लिखा—
“कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू तो ये है,
रख दे कोई ज़रा-सी ख़ाक-ए-वतन कफ़न में।”
फिर उन्होंने फाँसी के फंदे को चूमा, ख़ुदा का नाम लिया और निडर होकर उस राह चल पड़े जहाँ से लौटना नहीं होता।
बिस्मिल और अशफ़ाक। भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के दो अनिवार्य नक्षत्र। एक ही चेतना के दो आलोक।
19 दिसंबर को ही रोशन सिंह ने इलाहाबाद की मलाका जेल में हाथों में श्रीमद्भगवद्गीता थामे हुए प्राण विसर्जित किए। फाँसी से छह दिन पूर्व लिखे अपने पत्र में उन्होंने जीवन को निर्भीकता और अर्थ से जोड़ते हुए ये पंक्तियाँ दर्ज की थीं—
“ज़िंदगी ज़िंदादिली को जान, ऐ रोशन,
वरना कितने मरे और पैदा होते जाते हैं।
आख़िरी नमस्ते!
—रोशन।”
शाहजहाँपुर जनपद के नबादा गाँव में एक राजपूत परिवार में जन्मे रोशन सिंह को 1921–22 के असहयोग आंदोलन के दौरान बरेली गोलीकांड में दोषी ठहराया गया था। बरेली केंद्रीय कारागार से रिहा होने के बाद हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य बन गए। दल के सबसे अनुभवी सदस्यों में से एक थे। फाँसी पर चढ़ने को इतने इच्छुक थे कि जब साथियों में बात चली की ठाकुर रोशन सिंह को बहुत सज़ा नहीं होगी क्योंकि इनके विरुद्ध साक्ष्य बहुत कम हैं तो वह ख़ासा नाराज़ हुए।
ऐसे बलिदानी क्रांतिकारियों और उनके विचारों को आज आज़ादी के इतने वर्षों बाद 2025 के अंत के मुहाने पर नजरअंदाज़ नहीं कर सकते। उस ओर हमें लौटकर सीखना ही होगा।
इसी आशा के साथ बिस्मिल, अशफ़ाक़, लाहिड़ी और रोशन को नमन।
इंक़लाब ज़िंदाबाद!
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