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मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विद्रोही संत-कवि।

मध्यकालीन भक्ति-साहित्य की निर्गुण धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) के अत्यंत महत्त्वपूर्ण और विद्रोही संत-कवि।

कबीर के दोहे

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तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही हूँ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ

जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है।

कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम।

मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण देई राम॥

यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा

उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती।

जेहि मारग गये पण्डिता, तेई गई बहीर।

ऊँची घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर॥

जिस रास्ते से पुरोहित एवं पंडित लोग जाते हैं, उसी रास्ते से भीड़ भी जाती है, किंतु कबीर तो सबसे अलग एवं स्वतंत्र होकर स्वरूपस्थिति रूपी राम की ऊँची घाटी पर चढ़ जाता है।

जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद।

कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥

जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा।

सब जग सूता नींद भरि, संत आवै नींद।

काल खड़ा सिर ऊपरै, ज्यौं तौरणि आया बींद॥

सारा संसार नींद में सो रहा है किंतु संत लोग जागृत हैं। उन्हें काल का भय नहीं है, काल यद्यपि सिर के ऊपर खड़ा है किंतु संत को हर्ष है कि तोरण में दूल्हा खड़ा है। वह शीघ्र जीवात्मा रूपी दुल्हन को उसके असली घर लेकर जाएगा।

बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल।

आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥

बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?

जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं।

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।

ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।

सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।

बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया कोइ।

एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।

अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥

बिरह जिलानी मैं जलौं, जलती जलहर जाऊँ।

मो देख्याँ जलहर जलै, संतौ कहा बुझाऊँ॥

विरहिणी कहती है कि विरह में जलती हुई मैं सरोवर (या जल-स्थान)

के पास गई। वहाँ मैंने देखा कि मेरे विरह की आग से जलाशय भी जल रहा है। हे संतो! बताइए मैं अपनी विरह की आग को कहाँ बुझाऊँ?

जौं रोऊँ तौ बल घटै, हँसौं तौ राम रिसाइ।

मनहीं माँहि बिसूरणां, ज्यूँ धुँण काठहिं खाइ॥

यदि आत्मारूपी विरहिणी प्रिय के वियोग में रोती है, तो उसकी शक्ति क्षीण होती है और यदि हँसती है, तो परमात्मा नाराज़ हो जाते हैं। वह मन ही मन दुःख से अभिभूत होकर चिंता करती है और इस तरह की स्थिति में उसका शरीर अंदर−अंदर वैसे ही खोखला होता जाता है, जैसे घुन लकड़ी को अंदर−अंदर खा जाता है।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।

बूँद समानी समुंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥

साधना की चरमावस्था में जीवात्मा का अहंभाव नष्ट हो जाता है। अद्वैत की अनुभूति जाग जाने के कारण आत्मा का पृथक्ता बोध समाप्त हो जाता है। अंश आत्मा अंशी परमात्मा में लीन होकर अपना अस्तित्व मिटा देती है।

यदि कोई आत्मा के पृथक् अस्तित्व को खोजना चाहे तो उसके लिए यह असाध्य कार्य होगा।

काबा फिर कासी भया, राम भया रहीम।

मोट चून मैदा भया, बैठ कबीर जीम॥

सांप्रदायिक सद्भावना के कारण कबीर के लिए काबा काशी में परिणत हो गया। भेद का मोटा चून या मोठ का चून अभेद का मैदा बन गया, कबीर उसी को जीम रहा है।

जाति पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।1।

आवत गारी एक है, उलटत होइ अनेक।

कह कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक।2।

माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि।

मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं।3।

कबीर घास नींदिए, जो पाऊँ तलि होइ।

उड़ि पड़ै जब आँखि मैं, खरी दुहेली होइ।4।

जग में बैरी कोइ नहीं, जो मन सीतल होय।

या आपा को डारि दे, दया करै सब कोय।5।

हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।

सतगुरु की कृपा भई, डार्या सिर पैं बोझ॥

कबीर कहते हैं कि यदि सद्गुरु की कृपा हुई होती तो मैं भी पत्थर की पूजा करता और जैसे जंगल में नील गाय भटकती है, वैसे ही मैं व्यर्थ तीर्थों में भटकता फिरता। सद्गुरु की कृपा से ही मेरे सिर से आडंबरों का बोझ उतर गया।

जो जानहु जिव आपना, करहु जीव को सार।

जियरा ऐसा पाहुना, मिले दूजी बार॥

यदि जीव को अपना स्वरूप समझते हो, तो उसे पूर्णत: प्रमाणित सर्वोच्च सत्ता समझो और उसका स्वागत करो। जीव मानव शरीर में ऐसा पाहुना है, जो लौटकर पुन: इसमें नहीं आएगा।

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।

तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?

पाणी ही तैं पातला, धूवां हीं तैं झींण।

पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह॥

जो जल से भी अधिक पतला (सूक्ष्म) है और धुएँ से भी झीना है और जो पवन के वेग से भी अधिक गतिमान है। ऐसे रूप वाले सूक्ष्म उन्मन को कबीर ने अपना मित्र बनाया है।

साँई मेरा बाँणियाँ, सहजि करै व्यौपार।

बिन डाँडी बिन पालड़ै, तोलै सब संसार॥

परमात्मा व्यापारी है, वह सहज ही व्यापार करता है। वह बिना तराज़ू एवं बिना डाँड़ी पलड़े के ही सारे सांसार को तौलता है। अर्थात् वह समस्त जीवों के कर्मों का माप करके उन्हें तदनुसार गति देता है।

चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।

जे जन बिछूटे राम सूँ, ते दिन मिले राति॥

रात के समय में अपने प्रिय से बिछुड़ी हुई चकवी (एक प्रकार का पक्षी) प्रातः होने पर अपने प्रिय से मिल गई। किंतु जो लोग राम से विलग हुए हैं, वे तो दिन में मिल पाते हैं और रात में।

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै कोइ।

प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥

परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है। यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत में परिणत हो जाता है।

हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।

हद बेहद दोऊ तजे, ताकर मता अगाध॥

जो सर्व दुराचरणों को त्यागकर सदाचरणपूर्वक गृहस्थी मर्यादानुसार चलता है वह मनुष्य है। जो गृहस्थी से हटकर त्याग-वैराग्यपूर्वक चलता है, वह साधु है। और जो उक्त दोनों से परे होकर रमता है, उसका अनुभव दूसरे के लिए दुर्बोध है, वह सर्वोच्च है।

तीन लोक भौ पींजरा, पाप-पुण्य भौ जाल।

सकल जीव सावज भये, एक अहेरी काल॥

सत, रज और तम ये तीनों गुण पिंजड़े बन गए, पाप तथा पुण्य जाल बन गए और सब जीव इनमें फंसने वाले शिकार बन गए। एक अज्ञान-काल-शिकारी ने सबको फंसाकर मारा।

कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।

पाँव टिके पिपीलका, तहाँ खलकन लादै बैल॥

जीव की शाश्वत स्थिति उसके अपने सर्वोच्च स्वरूप चेतन में है। उस तक पहुंचने का रास्ता फिसलन से भरा है। जहां चींटी के पैर नहीं टिकते, वहां संसार के लोग बैल पर सामान लादकर व्यापार करना चाहते हैं।

हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास।

सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥

हे जीव, यह शरीर नश्वर है। मरणोपरांत हड्डियाँ लकड़ियों की तरह और केश घास (तृणादि) के समान जलते हैं। इस तरह समस्त शरीर को जलता देखकर कबीर उदास हो गया। उसे संसार के प्रति विरक्ति हो गई।

मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।

कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥

मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

अंषड़ियाँ झाँई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥

प्रियतम का रास्ता देखते-देखते आत्मा रूपी विरहिणी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा है। उसकी दृष्टि मंद पड़ गई है। प्रिय राम की पुकार लगाते-लगाते उसकी जीभ में छाले पड़ गए हैं।

कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।

सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥

परमात्मा का घर तो प्रेम का है, यह मौसी का घर नहीं है जहाँ मनचाहा प्रवेश मिल जाए। जो साधक अपने सीस को उतार कर अपने हाथ में ले लेता है वही इस घर में प्रवेश पा सकता है।

पायन पुहुमी नापते, दरिया करते फाल।

हाथन पर्वत तौलते, तेहि धरि खायो काल॥

जो ओंधे पैरों से पूरी पृथ्वी नाप लेते थे, समुद्र को एक ही छलांग में कूद जाते थे और अपने हाथों से पर्वत उठा लेते थे, उन्हें भी मौत ने धर दबोचा।

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या जाइ॥

यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।

कलि का बामण मसखरा, ताहि दीजै दान।

सौ कुटुंब नरकै चला, साथि लिए जजमान॥

कलियुग का ब्राह्मण दिल्लगी-बाज़ है (हँसी मज़ाक करने वाला) उसे दान मत दो। वह अपने यजमान और सैकड़ों कुटुंबियों के साथ नरक जाता है।

जाके चलते रौंदे परा, धरती होय बेहाल।

सो सावत घामें जरे, पण्डित करहू विचार॥

हे पंडितों! विचार करो, जिनके चलने के कारण पद-मर्दन से जमीन रगड़ जाती थी और धरती के जीव परेशान हो जाते थे, वे राजे-महाराजे एवं योद्धागण युद्धस्थल में अधमरे पड़े धूप में जलते हैं।

हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहूँ जाइ खुमार।

मैमंता घूँमत रहै, नाँहीं तन की सार॥

राम के प्रेम का रस पान करने का नशा नहीं उतरता। यही राम-रस पीने वाले की पहचान भी है। प्रेम-रस से मस्त होकर भक्त मतवाले की तरह इधर-उधर घूमने लगता है। उसे अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती। भक्ति-भाव में डूबा हुआ व्यक्ति, सांसारिक व्यवहार की परवाह नहीं करता और उसकी दृष्टि में देह-धर्म नगण्य हो जाता है।

जो जन भीजै रामरस, बिगसित कबहुँ रुख।

अनुभव भाव दरसे, ते नर सुख दुख॥

जो साधक आत्मचिंतन में सदैव डूबे रहते हैं, वे सांसारिक उपलब्धियों में हर्षित होते हैं और उनके चले जाने से शोकित होते हैं। सदैव स्वरूपस्थिति के अनुभव में लीन होने से उन्हें सांसारिक भाव-तरंगें नही प्रभावित कर पातीं। अतएव वे सांसारिक वस्तुओं के मिलने-बिछुड़न में सुखी होते हैं और दुखी होते हैं।

चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ।

दोइ पट भीतर आइकै, सालिम बचा कोई॥

काल की चक्की चलते देख कर कबीर को रुलाई जाती है। आकाश और धरती के दो पाटों के बीच कोई भी सुरक्षित नहीं बचा है।

पारस रूपी जीव है, लोह रूप संसार।

पारस ते पारस भया, परख भया टकसार॥

जीव पारसरूप है तथा संसार लोहरूप है। अर्थात जीव चेतन है और संसार जड़ है। जैसे पारस से छू जाने पर लोहा सोना हो जाता है, वैसे चेतन के संबंध से जड़ शरीर चेतनवत हो जाता है। पारस के स्पर्श से लोहा केवल सोना होता है, पारस नहीं, परंतु पारखी सद्गुरु के संसर्ग से मनुष्य पारखी हो जाता है। यही पारस से पारस होना है। और सत्यासत्य की परख सत्संग में होती है।

हाड़ जरै जस लाकड़ी, बार जरै जस घास।

कबिरा जरे रामरस, जस कोठी जरै कपास॥

मृत शरीर का दाह करने पर उसकी हड्डी लकड़ी के समान जलती है और बाल घास के समान जलते हैं, परंतु परोक्ष में राम मानकर उसकी उपासना एवं विरह-वेदना में जीव उसी प्रकार भीतर-भीतर जलता रहा जैसे कोठी में कपास जल जाए और बाहर पता चले।

कबीर ऐसा यहु संसार है, जैसा सैंबल फूल।

दिन दस के व्यौहार में, झूठै रंगि भूलि॥

यह जगत सेमल के पुष्प की तरह क्षण-भंगुर तथा अज्ञानता में डालने वाला है। दस दिन के इस व्यवहार में, हे प्राणी! झूठ-मूठ के आकर्षण में अपने को डालकर स्वयं को मत भूलो।

असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नूर।

जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर॥

हे जीव! जिसने शरीर के इन्द्रिय-झरोखों से अपना ज्ञान-प्रकाश फैला रखा है, वह सत्य चेतनस्वरूप ही तुम्हारी अविचल स्थिति-दशा है। ज्ञान-प्रकाश की सेना लेकर 'मैं' के रूप में सभी दिलों में वही उपस्थिति है।

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि।

दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछांणि॥

मन को मथुरा (कृष्ण का जन्म स्थान) दिल को द्वारिका (कृष्ण का राज्य स्थान) और देह को ही काशी समझो। दशवाँ द्वार ब्रह्म रंध्र ही देवालय है, उसी में परम ज्योति की पहचान करो।

मूवा है मरि जाहुगे, बिन शिर थोथी भाल।

परेहु करायल बृक्ष तर, आज मरहु की काल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी अविवेकरूपी बिना धार के भोथरे भाले के प्रहारों से एक दिन मर जाओगे। क्षणभंगुर संसार रूपी बिना पत्ते एवं बिना छाया के कंटीले झाड़ीदार करील पेड़ के नीचे पड़े हो, आज मरो या कल।

मूवा है मरि जाहुगे, मुये कि बाजी ढोल।

सपन सनेही जग भया, सहिदानी रहिगौ बोल॥

पहले के लोग मर चुके हैं। तुम भी मर जाओगे। मुये चाम का ही तो ढोल बजता है। संसार के लोग सपने में मिले हुए प्राणी-पदार्थों के मोही बने हैं। एक दिन यह सपना टूट जाता है। मर जाने के बाद लोगों में उसकी चर्चा ही कुछ दिनों तक पहचान रह जाती है।

कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।

गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ॥

कबीर कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ, और नाम मेरा मुतिया है। मेरे गले में राम की ज़ंजीर पड़ी हुई है, मैं उधर ही चला जाता हूँ जिधर वह ले जाता है। प्रेम के ऐसे बंधन में मौज-ही-मौज है।

आधी साखी सिर खड़ी, जो निरूवारी जाय।

क्या पंडित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय॥

विचार एवं निर्णय करके आचरण में लायी गई बोधप्रद आधी साखी भी पूर्ण कल्याणकारी हो सकती है। निर्णय-रहित पंडित की बड़ी-बड़ी पोथियों को रात-दिन गाने से क्या लाभ जिनमें स्वरूप का सच्चा बोध नहीं है।

राम नाम जिन चीन्हिया, झीना पिंजर तासु।

नैन आवै नींदरी, अंग जामें माँसु॥

जिसका नाम राम है उस आत्मतत्व की जिन्होंने परख की, उसका शरीर दुर्बल होता है, उसके नेत्रों में नींद नहीं आती तथा उसके अंगों में मांस नहीं बढ़ता।

नर-नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम।

कहै कबीर ते राम के, जैं सुमिरैं निहकाम॥

जब तक यह शरीर काम भावना से युक्त है तब तक समस्त नर-नारी नरक स्वरूप हैं। किंतु जो काम रहित होकर परमात्मा का स्मरण करते हैं वे परमात्मा के वास्तविक भक्त हैं।

सतगुर की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।

लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार॥

ज्ञान के आलोक से संपन्न सद्गुरु की महिमा असीमित है। उन्होंने मेरा जो उपकार किया है वह भी असीम है। उसने मेरे अपार शक्ति संपन्न ज्ञान-चक्षु का उद्घाटन कर दिया जिससे मैं परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सका। ईश्वरीय आलोक को दृश्य बनाने का श्रेय महान गुरु को ही है।

नैनाँ अंतरि आव तूँ, ज्यूँ हौं नैन झँपेऊँ।

नाँ हौं देखौं और कूँ, नाँ तुझ देखन देऊँ॥

आत्मारूपी प्रियतमा कह रही है कि हे प्रियतम! तुम मेरे नेत्रों के भीतर जाओ। तुम्हारा नेत्रों में आगमन हाते ही, मैं अपने नेत्रों को बंद कर लूँगी या तुम्हें नेत्रों में बंद कर लूँगी। जिससे मैं तो किसी को देख सकूँ और तुम्हें किसी को देखने दूँ।

एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि।

है जैसा रहै तैसा, कहहिं कबीर बिचारि॥

यदि मैं कहूं कि तत्व एक है तो वैसा है ही नहीं, परंतु यदि कहूं कि जीव का आश्रय-स्थल कोई दूसरा है तो यह भी अनुचित बात है। इसलिए कबीर साहेब विचारपूर्वक कहते हैं कि जैसी वास्तविकता है वैसी दशा में ही स्थित होना चाहिए।

माली आवत देखि के, कलियाँ करैं पुकार।

फूली-फूली चुनि गई, कालि हमारी बार॥

मृत्यु रूपी माली को आता देखकर अल्पवय जीव कहता है कि जो पुष्पित थे अर्थात् पूर्ण विकसित हो चुके थे, उन्हें काल चुन ले गया। कल हमारी भी बारी जाएगी। अन्य पुष्पों की तरह मुझे भी काल कवलित होना पड़ेगा।

साँच बराबरि तप नहीं, झूठ बराबर पाप।

जाके हिरदै साँच है ताकै हृदय आप॥

सच्चाई के बराबर कोई तपस्या नहीं है, झूठ (मिथ्या आचरण) के बराबर कोई पाप कर्म नहीं है। जिसके हृदय में सच्चाई है उसी के हृदय में भगवान निवास करते हैं।

मसि कागद छूवों नहीं, कलम गहो नहिं हाथ।

चारिउ युग का महातम, कबीर मुखहि जनाई बात॥

मैं स्याही और कागज नहीं छूता और कलम हाथ में पकड़ता हूँ, चारों युगों में जिसकी महत्ता है, मैं उसकी बातें मुख से ही बता देता हूँ।

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