फ़ादर वालेस : साधु तो चलता भला
राकेश कुमार मिश्र
04 नवम्बर 2025
वर्ष 2025 गुजराती साहित्य के इतिहास में एक विशेष वर्ष है—इस वर्ष गुजराती भाषा और संस्कृति के एक विलक्षण साधक, फ़ादर वालेस (Father Carlos González Vallés) की जन्मशती मनाई जा रही है। फ़ादर वालेस का जन्म 4 नवंबर 1925 को स्पेन के ला ग्रोन्यो (Logroño) शहर में हुआ था। बचपन से ही वह मेधावी, जिज्ञासु और आत्ममंथनशील स्वभाव के थे। उनमें अध्यात्म और तर्क दोनों का अद्भुत संतुलन था। वर्ष 1941 में उन्होंने ईसुसंघ (Society of Jesus)—जिसे जेसुइट संप्रदाय कहा जाता है—में प्रवेश लिया। कठोर साधना, अनुशासन और अध्ययन के कई वर्षों बाद वह 1958 में विधिवत दीक्षित होकर फ़ादर कार्लोस गोन्ज़ालेज़ वालेस बने। उन्होंने ग्रीक और लैटिन भाषा-साहित्य के साथ दर्शनशास्त्र का गहन अध्ययन किया, जिससे उनमें गहरी मानवीय दृष्टि और तार्किकता का विकास हुआ। वर्ष 1949 में वह एक मिशनरी के रूप में भारत आए। भारत आगमन के बाद उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से गणित में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। गणित की तार्किकता और जीवन के अनुभव की संवेदनशीलता—इन दोनों का संगम आगे चलकर उनके समूचे लेखन का आधार बना। फ़ादर वालेस कहा करते थे—“मुझे जो भी कार्य सौंपा जाता, उसे करने के लिए मैं सदैव तैयार रहता। मेरा मन खुला था। मुझे न भाषा की सीमा रोकती थी, न संस्कृति की।” वह मज़ाक़ में अपने भारत-आगमन का प्रसंग सुनाया करते—“मैं मैड्रिड–रोम–तेल अवीव–कराची–मुंबई–अहमदाबाद मार्ग से आया था। भारत की यात्रा करते हुए ट्रेन में इतनी भीड़ थी कि मैं खड़े-खड़े सो गया था!” भारत आने के बाद उन्होंने भारतीय दर्शन, धर्मों और भाषाओं का गहन अध्ययन किया और जीवनभर भारत की सांस्कृतिक आत्मा को अपनी साधना का केंद्र बनाए रखा।
भारत आने के बाद फ़ादर वालेस ने गुजरात के वल्लभ विद्यापीठ (वर्तमान वल्लभ विद्यानगर, आनंद) में गुजराती भाषा का अध्ययन किया। इसके बाद उन्हें अहमदाबाद के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज में गणित के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया। गुजराती उनके लिए एकदम नई भाषा थी, परंतु उन्होंने इसे सीखने के लिए असाधारण प्रयास किए। वह अहमदाबाद के पुराने मोहल्लों में साधारण गुजराती परिवारों के साथ कई सालों तक रहे, ताकि वह उनके जीवन, बोल-चाल और संस्कृति को निकट से समझ सकें। उनका मानना था—“लोगों को समझना केवल कक्षा में संभव नहीं। उनके बीच जाकर रहना, उनके जीवन को साझा करना आवश्यक है।” अपने इन प्रयासों को उन्होंने ‘विहार यात्रा’ कहा। पहली बार उन्हें अहमदाबाद के ‘वाडीगाम’ की ‘जादा भगत नी पोल’ में आमंत्रण मिला, जहाँ 32 सदस्य एक ही घर में रहते थे। उन्होंने वहाँ रहकर देखा कि सामूहिक जीवन में आत्मीयता और पारस्परिक स्नेह किस तरह मनुष्य को समृद्ध बनाते हैं। वह अक्सर कहते—“आज वह सामूहिकता दुर्लभ हो गई है; अब सब अपने-अपने घरों में सिमट गए हैं।” फ़ादर वालेस ने अँग्रेज़ी और गुजराती—दोनों भाषाओं में अध्यापन किया। वह अपने विद्यार्थियों के बीच न केवल शिक्षक, बल्कि एक सच्चे मित्र और मार्गदर्शक के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने छात्रों में गणित के प्रति भय को दूर करने के लिए गुजराती में गणित की कई पुस्तकें लिखीं, जिससे गुजरात में ‘नवीन गणित’ (Modern Mathematics) की नींव पड़ी। उन्होंने गणित के अँग्रेज़ी तकनीकी शब्दों का भारतीय दर्शन से संबद्ध अनुवाद किया—जैसे प्रसिद्ध ब्रिटिश गणितज्ञ G.H. Hardy की चर्चित पुस्तक ‘Pure Mathematics’ (1908) को उन्होंने ‘शुद्ध गणित’ कहने के बजाए ‘केवल गणित’ नाम दिया, जो शब्दार्थ से आगे जाकर भावार्थ का प्रतिनिधित्व करता है। उनका दृष्टिकोण यह था कि शिक्षा केवल विषय तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का विस्तार है। वह कहते थे—“अगर मैं छात्र से सवाल लेकर स्वयं हल कर दूँ, तो वह भूल जाएगा। लेकिन जब वह ख़ुद हल करता है, तब ज्ञान उसका हो जाता है।” गुजरात विश्वविद्यालय के गणित शब्दकोश के निर्माण में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा और उन्होंने भारतीय भाषाओं की पहली गणितीय पत्रिका ‘सुगणितम्’ की स्थापना में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
फ़ादर वालेस (Father Carlos González Vallés) का गुजराती साहित्य में आगमन केवल भाषिक प्रयोग का परिणाम नहीं था, बल्कि एक गहरी आत्मीयता का परिचायक था। भारत में बसने के कुछ ही वर्षों बाद उन्होंने जब पहली बार गुजराती में लेखन आरंभ किया, तब किसी को भी यह अनुमान नहीं था कि यह विदेशी पादरी आने वाले समय में गुजराती भाषा का इतना प्रिय और सम्मानित लेखक बन जाएगा। उनका पहला गुजराती ग्रंथ ‘सदाचार’ (1960) था—एक ऐसी पुस्तक जिसने फ़ादर वालेस को एक चिंतनशील दार्शनिक और आत्मविश्लेषी लेखक के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई। इस ग्रंथ में उन्होंने नैतिकता, जीवन के आदर्शों और मनुष्य के आचरण की गहराइयों को सरल उदाहरणों से समझाया। इसमें कोई धार्मिक आग्रह नहीं था, केवल एक सजग मानवीय दृष्टि थी। यही पुस्तक उनके गुजराती लेखन की दिशा और पहचान बनी। इसके बाद उन्होंने गुजराती की प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘कुमार’ में ‘व्यक्तिघड़तर’ नाम से एक लेखमाला लिखनी शुरू की—यह शृंखला इतनी लोकप्रिय हुई कि बाद में उसी को संकलित कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया। यह ग्रंथ आज भी आत्मविकास और व्यक्तित्व-निर्माण पर गुजराती साहित्य की एक कालजयी रचना मानी जाती है। साहित्य और समाज में उनके योगदान के लिए उन्हें 1978 में ‘रणजीतराम सुवर्ण चंद्रक’ से सम्मानित किया गया—जो गुजराती साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार है। विशेष बात यह थी कि फ़ादर वालेस इस प्रतिष्ठित सम्मान को प्राप्त करने वाले पहले विदेशी लेखक बने। यह सम्मान न केवल उनके साहित्यिक योगदान की मान्यता थी, बल्कि गुजराती समाज द्वारा उनके अपनापन और आत्मीयता की स्वीकृति भी। युवाओं के प्रति उनकी गहरी संवेदना उनके लेखन का केंद्रीय भाव थी। उन्होंने ‘नई पीढ़ी के नाम’ शीर्षक से अनेक प्रेरक स्तंभ लिखे, जो युवाओं के नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास को संबोधित करते थे। इन लेखों में वह सिर्फ़ उपदेश नहीं देते थे, बल्कि जीवन की जटिलताओं को मित्रवत ढंग से समझाते थे—जैसे कोई अनुभवी शिक्षक अपने विद्यार्थियों से बातचीत करता है। फ़ादर वालेस ने गुजराती में 70 से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनके लेखन में युवाओं, शिक्षकों, माता-पिता और समाज के हर वर्ग का जीवंत अनुभव मिलता है। वह अपने पाठकों को किसी ऊँचाई से नहीं, बल्कि बराबरी के स्तर से संबोधित करते थे। उनकी भाषा में न औपचारिकता थी, न कठिन दार्शनिकता—केवल आत्मीयता और सहज संवाद था। उनकी शैली की विशेषता यह थी कि वह जीवन के गूढ़ विषयों को अत्यंत सरल और सहज रूप में प्रस्तुत करते थे। उनके लेखों में विनोद, दृष्टांत, कहावतें और सूत्र-वाक्य इतने स्वाभाविक रूप से आते थे कि उनका गद्य ‘विचार’ से आगे बढ़कर ‘संवाद’ बन जाता था। वह अपने पाठकों के साथ संवाद करते थे, उन पर विचार थोपते नहीं थे। वह अक्सर कहा करते थे—“भाषा का उद्देश्य सिर्फ़ ज्ञान बाँटना नहीं, बल्कि मन जोड़ना है।” यह वाक्य उनके संपूर्ण लेखन का सार है। फ़ादर वालेस के लिए लेखन केवल विचारों की अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि आत्माओं का मिलन था। उनकी भाषा ने हज़ारों युवाओं को आत्मविकास, सादगी और सह-अस्तित्व की ओर प्रेरित किया। उनकी क़लम में वही गुण था जो उनके जीवन में था—स्पष्टता, करुणा और प्रसन्नता। इसीलिए, वह केवल एक लेखक नहीं, बल्कि एक ऐसे संवादक बन गए जिन्होंने भाषा, संस्कृति और अध्यात्म—तीनों को एक सूत्र में पिरो दिया।
फ़ादर वालेस (Father Vallés) की रचनाधर्मिता भारतीय और विशेष रूप से गुजराती साहित्य में एक अनूठा अध्याय है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से न केवल जीवन के गूढ़ दर्शन को सरल भाषा में व्यक्त किया, बल्कि आत्मचिंतन, मानवीय संबंधों और अध्यात्म के बीच एक सुंदर संतुलन भी स्थापित किया। उनकी प्रत्येक पुस्तक किसी न किसी रूप में जीवन को गहराई से समझने और जीने की दिशा दिखाती है। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में सबसे पहले उल्लेखनीय है—‘व्यक्तिघड़तर’ (1968)। यह ग्रंथ आत्मनिर्माण और व्यक्तित्व-विकास पर आधारित है। इसमें फ़ादर वालेस ने यह विचार रखा कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर एक मूर्तिकार है, जो अपने व्यक्तित्व की प्रतिमा को निरंतर तराशता रहता है। उन्होंने यह भी समझाया कि आत्मविकास किसी बाहरी प्रेरणा से नहीं, बल्कि भीतर की जागृति से संभव है। इस पुस्तक ने गुजराती पाठकों को यह सिखाया कि जीवन केवल जीने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि स्वयं को सँवारने की साधना है। इसके बाद उनकी पुस्तक ‘गांधीजी और नई पीढ़ी’ (1971) आई, जिसमें उन्होंने गांधीवादी जीवनदर्शन की आधुनिक दृष्टि से व्याख्या की। इस ग्रंथ में उन्होंने गांधी के विचारों को उपदेश के रूप में नहीं, बल्कि जीवन जीने की विधि के रूप में प्रस्तुत किया। वह लिखते हैं कि गांधी का दर्शन केवल अतीत की बात नहीं है—वह आज के समय में भी व्यक्ति के भीतर के नैतिक विवेक को जगाने की शक्ति रखता है। उनकी एक और अत्यंत लोकप्रिय कृति है—‘लग्नसागर’ (1969), जो विवाह और दांपत्य जीवन पर आधारित एक गहन किंतु सहज मार्गदर्शक किताब है। इसमें उन्होंने प्रेम, समझ, संवाद और सहनशीलता के सूत्रों को सरल शब्दों में पिरोया है। जब कोई पाठक उनसे पूछता कि आप तो आजीवन ब्रह्मचारी रहे फिर आपने विवाह पर इतनी सुंदर किताब कैसे लिखी? इस तरह के सवालों के जवाब में फ़ादर वालेस अक्सर हँसते हुए कहा करते थे—“मैंने विवाह नहीं किया, इसलिए विवाह को बेहतर समझ पाया हूँ!” यह वाक्य उनकी जीवन-दृष्टि का प्रतीक है—वह हर विषय को सिर्फ़ भीतर से नहीं, बल्कि करुणा और अंतर्दृष्टि से समझते थे। गुजरात में आज भी ‘लग्नसागर’ नवविवाहित जोड़ों को उपहारस्वरूप भेंट की जाती है, मानो जीवन के नए अध्याय के लिए एक आशीर्वाद हो। उनका एक और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है—‘शब्दलोक’ (1987)। यह पुस्तक भाषा, संस्कृति और विचार की गहन यात्रा है। इसमें उन्होंने पूर्व और पश्चिम की सोच के अंतर को भाषा के स्तर पर अत्यंत सरल उदाहरणों से स्पष्ट किया है। उन्होंने भाषा को केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि मनुष्य की चेतना का दर्पण बताया। यही कारण है कि बाद में इसके पाँच खंडों को एकत्र कर ‘वाणी तेवुं वर्तन’ (2003) शीर्षक से प्रकाशित किया गया—जो उनके समग्र भाषाचिंतन का निचोड़ है। उनकी आत्मकथात्मक रचना ‘आत्मकथाना टुकडा’ (1979) उनके पाठकों के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय रही है। इसमें उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों, भारत में बिताए वर्षों और साधना के क्षणों को सादगी और विनम्रता से साझा किया है। यह आत्मकथा किसी आत्मप्रशंसा का विस्तार नहीं, बल्कि आत्मचिंतन की एक खुली खिड़की है, जहाँ से पाठक लेखक की आत्मा की झलक देख सकता है। उनकी अंतिम कृति ‘प्रसन्नतानी पांखडियाँ’ (2003) उनके जीवन-दर्शन का सार प्रस्तुत करती है—यह पुस्तक प्रसन्नता, सहजता और आंतरिक संतुलन की ओर लौटने की यात्रा है। इसमें उन्होंने लिखा कि सच्ची आध्यात्मिकता जीवन से भागने में नहीं, बल्कि जीवन को प्रसन्नता से स्वीकार करने में है। फ़ादर वालेस की प्रत्येक रचना उनके जीवन की तरह है—सरल, गहरी और आत्मीय। उन्होंने जो लिखा, उसे पहले स्वयं जिया; और जो जिया, उसे स्नेह और सहजता की भाषा में साझा किया। उनके लेखन में न तो उपदेश है, न आडंबर—केवल एक सच्चे शिक्षक और साधक की निर्मल दृष्टि है।
भारत की भाषिक विविधता और बहुभाषिकता फ़ादर वालेस (Father Vallés) के जीवन का मूल आधार रही। वह केवल एक भाषाविद् या लेखक नहीं थे, बल्कि भाषाओं के बीच सेतु बनाने वाले एक ऐसे साधक थे, जिन्होंने भाषा को मनुष्य और समय से संवाद का माध्यम बनाया। भारत आने के बाद उन्होंने न केवल गुजराती भाषा सीखी, बल्कि उसमें इतनी आत्मीयता से रचे-बसे कि वह उनकी आत्मा की भाषा बन गई। उनके रचनात्मक जीवन की व्यापकता अचंभित कर देने वाली है—उन्होंने 75 गुजराती, 24 अँग्रेज़ी और 42 स्पेनिश पुस्तकों की रचना की। इनमें आत्मकथाएँ, निबंध, आध्यात्मिक चिंतन और जीवन-दर्शन पर लिखे गए अनेक ग्रंथ शामिल हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने गणित पर भी 12 विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ लिखे, जिनसे उनके तार्किक मस्तिष्क और अध्यापन-कौशल की गहराई स्पष्ट होती है। उनकी साधना और लेखन के प्रति समर्पण को देश-विदेश में सराहा गया। वर्ष 1995 में उन्हें ‘आचार्य काका कालेलकर एवार्ड फ़ॉर यूनिवर्सल हार्मनी’ से सम्मानित किया गया—यह पुरस्कार न केवल उनकी साहित्यिक क्षमता की, बल्कि उनकी मानवीय दृष्टि की भी पहचान था। मुंबई के जैन समाज ने उन्हें मानद् ‘जैन’ उपाधि दी, क्योंकि वह करुणा, अहिंसा और आत्मसंयम जैसे मूल्यों को जीवन में उतारने वाले व्यक्ति थे। इसके अतिरिक्त उन्हें ‘संतोकबा पुरस्कार’ सहित अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए। अंततः, भारत सरकार ने उनके अपूर्व योगदान के लिए वर्ष 2021 में उन्हें मरणोपरांत ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। फ़ादर वालेस का साहित्य, उनका अध्यापन और उनकी मानवीय दृष्टि अब भारत के सांस्कृतिक जीवन में स्थायी रूप से समाहित हो चुकी है। उन्होंने न केवल भारत को समझा, बल्कि भारत के आत्मिक स्वर को अपनी लेखनी में जीया। उनकी अँग्रेज़ी पुस्तक ‘Nine Nights in India’ (1993), उन्होंने अपने प्रिय मित्र और मार्गदर्शक काका कालेलकर (मराठी, गुजराती और हिंदी के प्रसिद्ध लेखक) को समर्पित की थी—“In memory of Kaka Kalelkar, who understood me.” काका कालेलकर स्वयं कहा करते थे—“लोग मुझे और तुम्हें ‘सवाई गुजराती’ कहते हैं। पर तुम मुझसे भी सच्चे गुजराती हो—मेरी मातृभाषा मराठी है, तुम्हारी स्पैनिश, फिर भी तुमने गुजराती को जिस आत्मीयता से अपनाया, वह अद्भुत है।” ‘Nine Nights in India’—एक तरह से फ़ादर वालेस का भारत के साथ संवाद है, जो आत्मीय रिश्ते का प्रतीक है— एक ऐसा रिश्ता, जिसमें भाषा, संस्कृति और अध्यात्म एक हो जाते हैं। यह देखना दिलचस्प है कि सूदर स्पेन में पैदा होने के बावजूद उनके लेखों में बार-बार भारतीय पुनर्जन्म की अवधारणा प्रकट होती है। वह कहा करते थे—“पश्चिम में जीवन एक जन्म में पूरा करना होता है, जबकि पूर्व में जीवन निरंतर जन्मों की यात्रा है।” उन्होंने भारतीय त्योहारों और प्रतीकों को नए अर्थों में देखा। उदाहरणस्वरूप, वह गणेशोत्सव के संदर्भ में लिखते हैं— “हर वर्ष भगवान की नई मूर्ति बनाना और पुरानी का विसर्जन करना—यह हमें सिखाता है कि विचारों को नवीकृत करते रहना ही जीवन का धर्म है।” उनके लिए धार्मिक प्रतीक स्थिर विश्वास नहीं थे, बल्कि जीवन की तरह निरंतर विकसित होने वाले जीवंत अर्थ थे।
भारत से विदाई के बाद भी फ़ादर वालेस का मन यहीं बसा रहा। सितंबर 2009 में वह एक बार फिर अहमदाबाद लौटे। उस अवसर पर उनकी अँग्रेज़ी किताब ‘Two Countries, One Life: Encounter of Cultures’ का लोकार्पण हुआ—एक ऐसी पुस्तक जिसमें उन्होंने प्रवासी भारतीयों की पहचान (Identity) और संस्कृति-संलयन पर अपने गहरे विचार प्रस्तुत किए। इसके बाद वह 18 नवंबर 2011 को पुनः अहमदाबाद आए, जब उनकी दूसरी अँग्रेज़ी पुस्तक ‘Nine Nights in India’ के नए संस्करण का लोकार्पण गुजराती साहित्य परिषद् में हुआ। उस अवसर पर उनके शब्द थे—“लोगों का उत्साह देखकर ऐसा लगता है कि मैं स्पेन गया ही नहीं—मैं यहीं था।” उनका यह कथन केवल भावनात्मक नहीं था; यह उस व्यक्ति की आत्मस्वीकृति थी, जिसने दो संस्कृतियों, दो भाषाओं और दो देशों के बीच एक सेतु बनकर दिखाया था—“Two countries, one life.”
स्पेनिश मूल के, परंतु जीवन के पचास वर्ष भारत में बिताकर “सवाइ गुजराती” (सम्मान के अर्थ में) बन चुके फ़ादर वालेस केवल एक शिक्षक, लेखक और मार्गदर्शक ही नहीं थे, बल्कि एक अद्भुत पुत्र भी थे। सन् 1998 में शिक्षण से सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका मन स्पेन लौटने का नहीं था। फिर भी उन्होंने वापसी का निर्णय क्यों लिया—इस पर वह स्वयं लिखते हैं : “मैं अपने जीवन के पचास वर्ष भारत में रहा। मुझे भारत इतना प्रिय हो गया था कि मैं कभी वापस स्पेन नहीं जाना चाहता था। परंतु जब मेरी माता 99 वर्ष की आयु में यहाँ (स्पेन में) अकेली रह गईं, तो उन्होंने मुझे लौट आने का अनुरोध किया। मैंने उनकी इच्छा का सम्मान किया और उनकी सेवा में समर्पित हो गया। जब मैं माँ से पूछता—माँ, आपकी तबियत कैसी है?—तो वह हमेशा कहतीं—बेटा, जब तू मेरे साथ है तो मुझे कोई दुख नहीं, मैं बहुत खुश हूँ।” अपनी माँ के साथ बिताए समय को याद करते हुए वह आगे लिखते हैं : “बुढ़ापे में माता-पिता के साथ रहना, उनकी संगति में समय बिताना—यही उनकी सबसे बड़ी सेवा है। माँ की उम्र चाहे कितनी भी अधिक हो जाए, पर उनके आशीर्वाद का प्रभाव कभी समाप्त नहीं होता। जीवन की सबसे अमूल्य औषधि है माँ का प्रेम। मेरे जीवन का सबसे बड़ा संतोष यह है कि मुझे अपनी माँ की बीमारी के दौरान उनकी सेवा करने का अवसर मिला। वह 101 वर्ष तक जीवित रहीं और उनके अंतिम क्षणों में मैं उनके साथ था। उनके चेहरे पर जो संतोष और आशीर्वाद झलक रहा था, वह आज भी मुझे नई ऊर्जा देता है।”
सदा प्रसन्नचित्त, कर्मनिष्ठ और संतुलित व्यक्तित्व के धनी फ़ादर वालेस अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर मैड्रिड, स्पेन में युवाओं जैसी ऊर्जा और उत्साह के साथ समाजोपयोगी कार्यों में संलग्न रहे। उनके जीवन की यह प्रवृत्ति दर्शाती है कि वास्तविक सक्रियता और सकारात्मक दृष्टिकोण उम्र की सीमाओं को चुनौती दे सकते हैं। फ़ादर वालेस स्वयं कहते हैं—“जो व्यक्ति जीवन में निरंतर सक्रिय रहता है, उसके लिए ‘सेवानिवृत्ति’ जैसा कोई शब्द अस्तित्व में ही नहीं। नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद का समय तो ज्ञान-पिपासु व्यक्ति के लिए एक स्वर्णकाल होता है। यह वह समय है जब व्यक्ति अपनी रुचियों, अध्ययन और सेवा के माध्यम से जीवन को नई ऊँचाइयों पर ले जा सकता है।” वर्ष 1998 में, जब वह अपनी माँ के अंतिम समय में उनके साथ रहने के लिए स्पेन लौटे, तब उनकी उम्र 75 वर्ष थी। इस उम्र में भी उन्होंने सीखने की यात्रा का मार्ग नहीं छोड़ा। पुराने ज़माने के टाइपराइटर को विदाई देते हुए, फ़ादर वालेस ने कंप्यूटर सीखने की ठानी। जैसे एक विद्यार्थी नया पाठ ग्रहण करता है, वैसे ही उन्होंने डिजिटल दुनिया के नए आयामों को समझना शुरू किया। इसके बाद उन्होंने इंटरनेट और वेबसाइट निर्माण का कोर्स भी पूरा किया। तकनीक में दक्ष होने के बाद उन्होंने ज्ञान की एक नई दिशा प्राप्त की। 1999 से लेकर अपने जीवन के अंतिम साँस तक, वह अपनी वेबसाइट www.carlosvalles.com के माध्यम से हर महीने की 1 और 15 तारीख़ को स्पेनिश और अँग्रेज़ी भाषाओं में अपने सामाजिक और चिंतनशील लेख प्रकाशित करते रहे। उनके ये लेख न केवल तार्किक और साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध हैं, बल्कि आज के समाज में मानसिक ऊर्जा और नया उत्साह प्रदान करते हैं। लाखों पाठक इन लेखों के माध्यम से प्रेरणा पाते हैं और अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने की दिशा में अग्रसर होते हैं। फ़ादर वालेस की यह सक्रियता स्पष्ट करता है कि सेवानिवृत्ति केवल नौकरी या व्यवसाय की समाप्ति का नाम नहीं, बल्कि जीवन में नए अवसर और सीखने का स्वर्णकाल है। वह स्वयं कहते हैं—“सेवानिवृत्ति के बाद के वर्षों में जो मैंने सीखा है, उसने मेरे पूरे जीवन को समृद्ध और उत्साहपूर्ण बना दिया है।” इस पृथ्वी पर 95 साल गुज़ारने वाले फ़ादर वालेस पाँच भाषाओं—स्पेनिश, फ़्रेंच, जर्मन, अँग्रेज़ी और गुजराती— में निपुण थे। कंप्युटर सीखने के संदर्भ में साझा किया गया उनके जीवन का यह दृष्टांत यह प्रमाणित करता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और जीवन में निरंतर सक्रिय रहकर हम अपने और समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकते हैं। मनुष्य के तौर पर हम तब तक जीवित रहते हैं, जब तक कुछ नया सीखते रहते हैं।
8 नवंबर 2020 को मैड्रिड, स्पेन में 95 साल की उम्र में फ़ादर वालेस का निधन हो गया। उनके देहांत की ख़बर को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में प्रमुखता से जगह मिला। अक्सर किसी व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व में एक गहरा अंतर दिखाई देता है—व्यक्ति कुछ और होता है और उसका बाह्य व्यक्तित्व कुछ और। परंतु फ़ादर वालेस (Father Vallés) के जीवन में यह भेद जैसे पूरी तरह मिट गया था। वह जो थे, वही उनके भीतर और बाहर दोनों जगह दिखाई देते थे। उनके विचार, उनकी वाणी, उनका व्यवहार—सबकुछ उनके आंतरिक संतुलन, सादगी और आध्यात्मिकता का विस्तार था। फ़ादर वालेस में एक अद्भुत क्षमता थी—वह सीधे लोगों के हृदय और आत्मा से संवाद कर सकते थे। उनके पास केवल शब्दों की शक्ति नहीं थी, बल्कि उन शब्दों में करुणा और संवेदना का स्पर्श था। वह किसी भी व्यक्ति से मिलते, तो सामने वाला सहज महसूस करता कि वह किसी शिक्षक, पादरी या लेखक से नहीं, बल्कि एक आत्मीय मित्र से बात कर रहा है। फिर भी, जब उन्हें एकांत या प्रार्थना में डूबने की इच्छा होती तो क्षणभर में स्वयं को संसार के शोर से अलग कर लेते थे। उस एकांत में वह स्वयं से, ईश्वर से और उस निःशब्द शांति से संवाद करते थे, जो उनके जीवन की आत्मा थी। यही कारण है कि उनके व्यक्तित्व को कुछ पंक्तियों या कुछ विशेषणों में बाँधना असंभव है। वह एक साथ विद्वान भी थे, संत भी और एक अत्यंत संवेदनशील लेखक भी। उनके साथ काम करने वाले अनेक सहयोगी, विद्यार्थी और मित्र आज भी उनसे जुड़ी अनगिनत घटनाएँ सुनाते हैं—छोटी-छोटी बातें, जो उनके जीवन के असली सौंदर्य को प्रकट करती हैं। उन प्रसंगों में उनकी सरलता, गहराई और करुणा का अद्भुत संगम झलकता है। फ़ादर वालेस के बारे में सोचते हुए मन में एक ऐसे व्यक्ति का चित्र उभरता है जो जीवनभर प्रार्थना में डूबा रहा—पर ये प्रार्थनाएँ केवल अपने लिए नहीं थीं। वह समस्त मानवता के लिए थीं, उस विश्व के लिए थीं जिसमें प्रेम, दया और सत्य का वास हो। उनके भीतर यह क्षमता थी कि वह अपनी प्रार्थनाओं और कामनाओं को स्पैनिश, अँग्रेज़ी या जर्मन जैसी शक्तिशाली और प्रभावशाली भाषाओं में व्यक्त कर सकते थे—क्योंकि वह उन सभी में निपुण थे। फिर भी, उन्होंने अपनी आत्मा की आवाज़ को व्यक्त करने के लिए गुजराती भाषा को चुना। या शायद यह कहना अधिक सटीक होगा कि गुजराती भाषा ने उन्हें चुना। वही भाषा उनके माध्यम से बोलने लगी, प्रार्थना करने लगी और प्रेम बाँटने लगी। उस भाषा में उन्होंने अपने ईश्वर से संवाद किया, अपने पाठकों से जुड़ाव बनाया और अपने जीवन का सार व्यक्त किया। गुजराती उनके लिए केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि साधना का पथ बन गई। फ़ादर वालेस के जीवन को यदि एक वाक्य में कहा जाए, तो वह यह होगा— “वह स्वयं में एक प्रार्थना थे।”
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