मासूम : जहाँ बदले में सिर्फ़ आँसू हैं
शशांक मिश्र
03 नवम्बर 2025
अप्रत्याशित हमेशा भय के भार तले दबा रहता है। नहीं घटने की इच्छा के साथ अदृश्य, जिसे हमेशा दूर से ही न कह दिया जाए। रोकथाम के लिए शरीर हरदम चौकन्ना रहता है। क़रीने से हर छोटी-बड़ी तैयारी की जाती है। ख़ाली जगहें ज़बरन भरी जाती हैं ताकि आशंका के सवाल पनपने से पहले ही मर जाएँ। साँचा इतना व्यवस्थित होता है कि कहीं से भी डर स्पर्श न कर पाए। अप्रत्याशित आपकी मर्ज़ी से नहीं फूटता। वह फूटता है तो कहीं और ले जाता है। मन होता है कि मेज़ पर रखा वह दस्तावेज़ फाड़ दें, जिसमें लिखा है कि आपके नसीब में यही मुक़र्रर था।
ऐसा ही एक अप्रत्याशित शेखर कपूर की—1983 में आई—डेब्यू फ़िल्म ‘मासूम’ में हँसी-ख़ुशी के बहुत से फ़्रेम-रील पर चल जाने के बाद फूटता है।
लेकिन इससे पहले का जीवन यहाँ है :
बहुत दिलनशीं हैं हँसी की ये लड़ियाँ
ये मोती मगर यूँ ना बिखराया कीजे
— गुलज़ार
डीके मल्होत्रा (नसीरुद्दीन शाह), पत्नी इंदू (शबाना आज़मी) और दो प्यारी-सी बच्चियाँ की एक जमा ज़िंदगी है। मंगलाशा के साथ दिन की शुरुआत होती है। डाइनिंग टेबल पर उपस्थिति लगती है। बच्चे स्कूल को निकलते हैं। इंदू अपना घर सँभालती हैं और आर्किटेक्ट डीके दूसरों का घर बनाने के लिए दफ़्तर जाते हैं।
जब, सब घर में साथ होते हैं तो मीठा शोर खेल-खेलकर हर कोने तक पहुँचता है। इतना ख़ुश, सुंदर और प्रेममय परिवार कि लगता है कि छत पर किसी कोने में ‘बुरी नज़र वाले तेरा मुँह काला’ लिखा नज़रबट्टू ज़रूर लगा होगा।
जीने के लिए सोचा ही नहीं, दर्द सँभालने होंगे…
— गुलज़ार
और फिर किसी रोज़ अतीत डीके के दफ़्तर में अप्रत्याशित फ़ोन कॉल के ज़रिए वर्तमान में बहुत गहरी दस्तक देता है। फ़िल्म में राहुल (जुगल हंसराज) का प्रवेश ऐसी सेंध है, जिससे बीता हुआ जीवन नम आँखों से धुँधला दिखता है। दरअस्ल, राहुल—डीके के विवाहेतर संबंध से पैदा हुआ बच्चा है, माँ मर चुकी है और अब वह माँ के स्कूल हेडमास्टर के साथ दूर पहाड़ी गाँव में गुमसुम-सा रहता है। राहुल का चेहरा अनपूछे सवाल, ख़ामोशी और रुके हुए आँसूओं के दरिया से मिलकर बना है। चेहरे पर ऐसा शून्य जो ‘झेल लेने’ की दीवारें फाँदने के बाद उभरता है।
यह फ़िल्म अमेरिकी लेखक एरिक सेगल के प्रसिद्ध उपन्यास ‘Man, Woman and Child’ से प्रेरित मानी जाती है। हालाँकि, यह एक अलग विवाद का विषय बना था। कुछ लोगों का कहना था कि यह सीन-बाय-सीन कॉपी है, लेकिन निर्माता ‘स्वतंत्र रूपांतरण’ का सिक्का उछाल रहे थे। नतीजा कुछ नहीं निकला और कालांतर में प्रेरणा को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण की बहस छिटककर इधर-उधर बिखर गई।
ख़ैर, यह फ़िल्म एक पारदर्शी पर्दा है। छिपे रहने का खोखला संतोष तो है लेकिन आपको पता नहीं है कि उस पार से सब दिख रहा है। साथ में उम्र, संबंध, एहसास के आधार पर किसी जटिल क्षण की स्वीकारोक्ति भी है।
फ़िल्म की एक स्थिति पर ग़ौर करें : “डीके को पता चल गया है कि राहुल उसका ही बेटा है। इंदू को बताना है। राहुल को दिल्ली लाना है।”
रील से रियल लाइफ़ में शायद यहाँ एक अपराध को ढकने के लिए दूसरा अपराध हावी हो जाता। लेकिन रील में क़लम फ़िल्म के पटकथा लेखक गुलज़ार के हाथों में थी। जो कुछ संभव था, वह उसी की धार से हुआ।
दिनचर्या को सिलसिलेवार तरीक़े से समेटती इंदू सोने से पहले की सारी तैयारियाँ करने में लगी है। मानो स्वप्न में कहीं दूर देश की यात्रा पर निकलना है। बेड पर नई चादर बिछानी है। बेड के कोरों पर हाथ मारकर चादर की सलवटें सही करनी। तकिया पर ग़िलाफ़ चढ़ाया जाना है। अलमारी से तकिया निकालने को किंवाड़ खोला है। इसी क्षण, इसी पल इंदू के भरे पूरे वर्तमान में डीके ने अपना अतीत औचक लाकर रख दिया।
आप ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे इस सीन में लाइटिंग ऐसी है कि जब डीके बात कर रहा है तो उसकी परछाई दिख रही है। पता नहीं यह जानबूझकर किया गया या हो गया, जो भी हो यह कितना सटीक मालूम देता है।
मंगलेश डबराल की एक कविता भी है :
परछाई उतनी ही जीवित है
जितने तुम
तुम्हारे आगे-पीछे
या तुम्हारे भीतर छिपी हुई
या वहाँ—जहाँ से तुम चले गए हो
जो परछाई हमारे लिए सामान्य भौतिक घटना है, वह इंदू की दृष्टि से जीवन में सबकुछ बदल देने वाली दरार है। जिसे देखकर वर्तमान सिकुड़ता नज़र आता है। जब वर्तमान सिकुड़ जाता है तो अपना अतीत साफ़-साफ़ दिखने लगता है। वह अतीत जब डीके से शादी का निर्णय लिया। जब डीके पर ख़ुद से अधिक भरोसा किया। जब डीके पर दिल लुटाया।
यह फ़िल्म विवाहेतर संबंध को कहीं से भी महिमामंडित नहीं करती। यह आपको कहीं एक जगह लाकर रख देती है और जीवन में बचपन की निश्छलता को नए सिरे से स्थापित करती है। वह उम्र जब सवाल मासूमियत से भरे हैं। वह उम्र जब मन में द्वेष या घृणा नहीं है। वह उम्र जिसे बूढ़े जीवन में कभी न मरने देने की सलाह देते हैं। यही ‘मासूम’ का केंद्र बिंदु भी है।
जब पहली बार स्कूल के हेडमास्टर डीके को चिट्ठी भिजवाते हैं तो राहुल के बारे में लिखते हैं : “वह बच्चा न हँसता है, न रोता है। सारा दिन खिड़की के बाहर देखता रहता है… ऐसा लगता है कि इतनी-सी ही उम्र में उसका बचपन ख़त्म होता जा रहा है।”
लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा,
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
— गुलज़ार
स्कूल में ‘सैनिक’ जॉमेट्री बॉक्स पर परकार से अपना नाम खुरचना अगर शीर्ष नॉस्टेलजिया है तो यह बालगीत भी कुछ कम नहीं। ‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ तो बाद में कंठस्थ हुआ; ‘बेटा अंकल को 2 लाइन सुनाओ’ पर सबसे पहले यही निकलता था। यह गुलज़ार की देन है। गुलज़ार ने ‘मासूम’ में जब यह बालगीत दिया, तब तक बच्चों को आपस मिला दिया था। बच्चे यानी राहुल और डीके व इंदू की दो बेटियाँ। राहुल दिल्ली आ चुका है। तीनों तमाम घर्षण के बाद आपस में घुल गए हैं। इंदू का जन्मदिन है। तीनों मिलकर कुछ गिफ़्ट बना रहे हैं। तभी यह गीत बज उठता है। तीनों मस्ती में झूम जाते हैं। जीवन जीने के बीच बिना किसी परवाह के, अपने में, आपस में, खिल-खिलकर घर के कोने-कोने में ऊर्जा पहुँचाते हैं और घर के प्राण लौटा लाते हैं।
‘Man, Woman & Child’ और ‘मासूम’ में सबसे बड़ा फ़र्क़ क्लाइमेक्स है। ‘मासूम’ शायद भारतीय संवेदनशीलता के भार तले तथाकथित हैप्पी नोट पर ख़त्म होती है। इंदू ने राहुल को स्वीकार लिया है—यह डीके को माफ़ी है या सचमुच दिल पिघला, या सबकुछ बचा ले जाने का दबाव? डीके का ताउम्र का पछतावा और बच्चों का आपसी संबंध।
‘मासूम’ ख़ामोशियों और महीन संवेदनाओं का संसार है जहाँ बदले में सिर्फ़ आँसू हैं।
आप ‘मासूम’ यहाँ देख सकते हैं : https://youtu.be/blfnZdwHFUU?si=IQITFjtMkPEzkZyj
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शशांक मिश्र को और पढ़िए : भारत भवन और ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की पांडुलिपियाँ | रजनीगंधा का साड़ी दर्शन | स्पर्श : दुपहर में घर लौटने जितना सुख
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