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हनुमान प्रसाद पोद्दार

1892 - 1971 | चूरू, राजस्थान

हनुमान प्रसाद पोद्दार के उद्धरण

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भगवान् की पूजा के लिए सबसे अच्छे पुष्प हैं—श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुण। स्वच्छ और पवित्र मन मंदिर में मनमोहन की स्थापना करके इन पुष्पों से उनकी पूजा करो। जो इन पुष्पों को फेंक देता है और केवल बाहरी फूलों से भगवान् को पूजना चाहता है, उसके हृदय में भगवान आते ही नहीं, फिर वह पूजा किसकी करेगा?

समाज में गीत-वाद्य, नाट्य- नृत्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है, ये बड़ी मनोहर और उपयोगी कलाएँ हैं। पर हैं तभी, जब इन के साथ संस्कृति का निवास-स्थान पवित्र संस्कृत अंतःकरण हो। केवल 'कला' तो 'काल' बन जाती है।

प्रेम नित्य, आनंद, नित्य—दोनों ही भगवत्स्वरूप हैं। आनंद की भित्ति प्रेम और प्रेम का विलक्षण रूप आनंद। इस प्रेम का कोई निर्माण नहीं करता। जहाँ सर्वत्याग होता है, वहीं इसका प्राकट्य उदय हो जाता है। जहाँ त्याग, वहाँ प्रेम और जहाँ प्रेम, वहीं आनंद। भगवान् प्रेमनंदस्वरूप हैं। अतएव भगवान की यह प्रेम-लीला अनादिकाल से अनन्तकाल तक चलती ही रहती है। इसमें विराम होता है, कभी कमी आती है। इसका स्वभाव वर्धनशील है।

उपदेश करो अपने लिए, तभी तुम्हारा उपदेश सार्थक होगा। जो कुछ दूसरों से करवाना चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो; नहीं तो तुम्हारे नाटक के अभिनय के सिवा और कुछ भी नहीं है।

सुनने वाले लाखों हैं, सुनाने वाले हज़ारों हैं, समझने वाले सैंकड़ों हैं, परंतु करने वाले कोई विरले ही हैं। सच्चे पुरुष वे ही हैं और सच्चा लाभ भी उन्हीं को प्राप्त होता है, जो करते हैं।

यह मत समझो कि 'अभी छोटी उम्र है—खेलते-खाने और विषय भोगने का समय है, बड़े-बूढ़े होने पर भजन करेंगे।' कौन कह सकता है कि तुम बड़े-बूढ़े होने से पहले ही नहीं मर जाओगे? मौत की नंगी तलवार तो सदा ही सिर पर झूल रही है।

हमारा अर्थ और काम (उपभोग) धर्म के द्वारा संयमित-नियंत्रित होता है। धर्म-रहित अर्थ और धर्म-रहित उपभोग (काम) महान अनर्थ करके मनुष्य का विनाश कर देते है। केवल 'अर्थ' और 'काम' से युक्त जीवन तो पशु-जीवन है। हिन्दू संस्कृति में अर्थ काम का त्याग नहीं है। उनकी भी उपादेयता है, पर वे होने चाहिए धर्म के आश्रित और उनका लक्ष्य हो मोक्ष।

जिस कार्य से परिणाम में अपना और दूसरों का हित हो, वही धर्म है और जिससे परिणाम में अपना और दूसरों का अहित हो, वही पाप है।

नीच के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका फल सज्जनों को भोगना पड़ता है। सीता का हरण तो रावण ने किया किंतु बाँधा गया महासागर।

प्रेम की प्राप्ति हुए बिना तो प्रेम को कोई जानता नहीं और प्राप्ति होने पर वह अपने मन से हाथ धो बैठता है।

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