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असमिया संत, कवि, भक्त और समाज-सुधारक। 'एकशरण नामधर्म' के प्रमुख प्रचारक।

असमिया संत, कवि, भक्त और समाज-सुधारक। 'एकशरण नामधर्म' के प्रमुख प्रचारक।

माधवदेव के उद्धरण

हे हरि! आपने अपने नाम को स्वयं से भी बढ़ा दिया, अपनी सब शक्ति उसमें भर दी। उसके स्मरण के लिए काल के नियम भी नहीं बनाए। ऐसी तुम्हारी कृपा हुई परंतु मेरा दुर्भाग्य तो देखो कि तुम्हारे नाम के प्रति मुझमें अनुराग ही नहीं उत्पन्न हुआ।

व्यवहार में गंभीरता, वचन में गंभीरता और भावों में गंभीरता—इन तीन गंभीरताओं के साथ कृष्ण का स्मरण करें तो महामंगल मिलेगा।

उग्र तप, ज्ञान, गुण विकास, यज्ञ, योग, दान, पुण्य आदि सबका प्रयोजन ही क्या है जब तक सब जगत् के निज आत्मा, मोक्ष-सुख देने वाले इष्ट देव कृष्ण के चरणों में भक्ति नहीं?

जिन्हें मुक्ति की इच्छा नहीं, ऐसे महान भक्तों को प्रणाम है।

हे नारायण! तुम नित्य और निरंजन (पवित्र) हो। मैं भी तुम्हारा अंश हूँ।

मेघों से ढके हुए सूर्य वाला दिन 'दुर्दिन' नहीं है, उसी दिन को दुर्दिन कहो जिस दिन भगवान् की कथा का अमृतमय सुंदर आलाप-रस सुनायी नहीं पड़ता।

कर्ण-मार्ग से भक्त के हृदय में हरि प्रवेश करते हैं।

सुवासना और दुर्वासना—ये दोनों मोक्ष और बंधन के मूल कारण हैं।

हे भगवान! तुम भक्त-कल्पतरु हो। तुम अंतर्बाह्य गुरु हो। मुझे अपने चरणों में रक्षण दो, मुझे सेवा-रस-सार दो।

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