स्कूली निबंधों में महात्मा गांधी
गगन तलरेजा
02 अक्तूबर 2025

गांधी-जयंती आ रही है। बचपन में हमारे पाठ्यक्रम का बड़ा अहम हिस्सा रहे हैं बापू। स्कूल में गाय-भैंस, सहेला-सहेली, माता-पिता, नानी-दादी के घर पर बिताई छुट्टियाँ, रेलगाड़ी का सफ़र, बसंत-बरसात आदि की तरह ही बापू भी चौथी-पाँचवीं तक हमारे हिंदी के निबंधों का एक ज़रूरी और लगभग हर साल रिपीट होने वाला विषय रहे हैं। देश के पिता होने का फ़र्ज़ वे इस तरह मरणोपरांत भी लगातार देश की शिक्षा व्यवस्था में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हुए अदा करते आ रहे हैं।
स्कूली बच्चों के बीच बापू का विकट क़िस्म जलवा होता है। हीरो होते हैं बापू बच्चों के। और हो भी क्यों न? उनको पूरे दस नंबर दिलवा देते हैं बापू! आप अगर गांधी पर एक दो-ढाई सौ शब्द का निबंध घोट के पी जाओ, तो भैया दस नंबर तो आपके ईश्वर भी नहीं काट सकता! माटसाब का आपसे कुछ पर्सनल बैर हो और वे उसका बदला परीक्षा में लिखे हुए आपके निबंध को लालम-लाल करके निकालना चाहें, तो वे गांधी जी पर निबंध देखकर यह भी नहीं कर पाएँगे। बच्चे ऐसी तन्मयता से रट्टा मारकर निबंध लिखते हैं कि गांधी जी अपने चरख़े और लाठी समेत कॉपी से जीवंत हो उठते हैं, मानो कॉपी जाँचने वाले मास्टर से कह रहे हों, ‘‘क्यों रे मास्टर, मैं भी तो देखूँ ज़रा तू कहाँ काटता है लड़के के नंबर?’’ अब पिता के आगे आख़िर किसकी ही चली है। फिर गांधी बब्बा तो राष्ट्रपिता हैं। इसलिए बेचारे मास्टर जी भी उनके आगे क्या ही कह सकते हैं?
यह सब याद करते हुए मुझे अपने निबंध भी याद आ रहे हैं। मैंने भी बड़े निबंध लिखे थे गांधी जी पर। मेरे शिक्षक जिन्होंने वे स्कूली निबंध देखे हैं, उनकी तो आज यही सोच-सोचकर नींद उड़ी रहती है कि आख़िर ये शठ हिंदी का लेखक कैसे बन गया? अपनी सफ़ाई में मैं उनसे बस यही कहूँगा कि मास्टर जी, वे तो बचपन के बचपने भरे निबंध थे। नंबरों से आगे हम उस समय सोचते ही कहाँ थे!
मुझे याद है कि मैं तो भयंकर रट्टा मारकर परीक्षा लिखने आता था। मैं जब गांधी जी का नाम लेकर परीक्षा लिखना शुरू करता था, तो पूरा-का-पूरा गांधीचरित ही कॉपियों में उतारकर रख देता था। इतना तो मुझे शायद अपने सगे पिता के बारे में भी नहीं मालूम था जितना राष्ट्रपिता के बारे में मैं रट चुका था। गांधी जी भी हमें उन पर लिखते हुए देख लेते तो शायद ख़ुशी के मारे हमें अपना उत्तराधिकारी टाइप कुछ घोषित कर देते। अध्यापक भी वह निबंध देखकर रश्क करते रहे और एक बार तो मैंने एक टीचर को दूसरे से यह भी कहते हुए सुना था, ‘‘गांधी बापू पर ऐसा निबंध तो भैया हमने अपने बचपन में भी कभी नहीं रटा! क्या बढ़िया रट्टा मारते हैं ये पट्ठे!’’
मैं आज जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो आश्चर्य होता है—अपने इस ‘टैलेंट’ के बारे में सोचकर। यही दिमाग़ जो आज लंबी स्क्रीनावधि और AI की लत लगने से लगभग निष्क्रिय-सा हो चुका है, यह कैसे बचपन में ऐसा लंबा निबंध याद कर लेता था? अपनी रटंत-प्रतिभा को याद करके मैं ख़ुद भी अपने मास्टरों जैसा चमत्कृत महसूस करता हूँ और स्वयं की पीठ थपथपाए बिना नहीं रह पाता।
लेकिन कभी-कभी मेरे मन में यह विचार भी आता है कि भाई, हम हर बार बापू पर ही निबंध क्यों रटते थे? ऐसी क्या ख़ास बात थी उनमें? हम चाचा नेहरू या नेताजी बोस आदि पर भी तो निबंध घोट सकते थे और उसी अदा से कॉपियों में उलट भी सकते थे?
इसका कारण अव्वल तो मुझे यही लगता है कि बापू हिंदी के पेपर का अविभाज्य अंग टाइप थे। बाक़ी महानुभावों को परीक्षा-पत्र में शामिल होने का सौभाग्य कभी-कभी ही मिलता था। अगर किसी सुहाने दिन परीक्षा सेट करने वाले को नेहरू, शास्त्री, बोस आदि पर अधिक प्यार आ रहा हो; तो ही वे पेपर का हिस्सा बनते थे। इसलिए हम बच्चों को यह भय रहता था कि हम कहीं अन्य किसी के विषय में निबंध रट गए और वे परीक्षा में हमें गच्चा दे गए तो हमारे तो दस नंबर बारह के भाव से चले जाएँगे।
लेकिन गांधी जी के साथ ऐसा नहीं था। गांधी बापू को प्रश्नपत्र में स्थान देने के लिए टीचर जमात ख़ुद को लगभग बाध्य-सा महसूस करती थी। उन्हें यह डर रहता था कि अगर उन्होंने ऐसा न किया तो क्या पता बापू की पवित्र आत्मा स्वर्ग में अनशन-वनशन पर बैठ जाए? या मास्टरों के ख़िलाफ़ ‘स्कूल छोड़ो’ या ‘सविनय अवज्ञा’ टाइप आंदोलन छेड़ दे? नेहरू जी तो केवल राष्ट्रचचा हैं, पर गांधी जी तो राष्ट्रपिता हुए ना भैया! चचा लोगों से तो फिर भी थोड़ा मस्ती-मज़ाक़ चल सकता है; लेकिन पिताजी, उनसे पंगा लेना तो ख़तरे को आमंत्रित करने जैसा है। फिर दूसरी बात यह भी है कि नेहरू जी तो बेचारे फूल लेकर चलते हैं। लेकिन गांधी जी के हाथ में तो लट्ठ है! कहीं गांधी जी का भूत अहिंसा-वहिंसा भूलकर अध्यापक महोदय के सपने में लट्ठ लेकर उनके पीछे दौड़ गया, तो क्या करेंगे इस देश के निरीह हिंदी अध्यापक। इसी कारण से अध्यापक मंडली उन्हें हर बार हिंदी पत्र में शामिल करती ही थी और हम बच्चों को पता रहता था कि परमपूज्य बापू प्रश्नपत्र के पहले पृष्ठ पर चरखा कातते हुए हमारा इंतिज़ार करते मिल ही जाएँगे।
दूसरा कारण मैं इस बात का यह समझता हूँ कि गांधीजी के सिद्धांतों को अपनाना और उनका पालन करना जितना कठिन है, उन्हें रटना उतना ही सरल है। सत्य, अहिंसा, न्याय, त्याग, राष्ट्रपिता, महात्मा, अँग्रेज़, आज़ादी, आंदोलन, अनशन, अमन, स्वतंत्रता आदि जैसे अच्छे-अच्छे कई शब्द आप शब्दकोश से खोजकर रट लीजिए और निबंध लिखते समय हर वाक्य में स्वादानुसार छिड़कते जाइए। कुछ ही मिनटों में गांधी बापू पर पाँचवीं क्लास लायक़ एक बढ़िया-सा निबंध तैयार हो सकता है। कुछ ऐसे ही वाक्य मैं यहाँ आपको एक छोटे से उदाहरण के रूप में दे रहा हूँ :
‘‘महात्मा गांधी इस देश के राष्ट्रपिता हैं। गांधी जी सत्य बोलते थे। वह इतना सत्य बोलते थे कि अगर वह आज जीवित होते और इतना सारा सत्य बोलते तो हमें लगता कि वह झूठ बोल रहे हैं। गांधी जी विकट क़िस्म के अहिंसक थे। फिर भी वह अपनी सुरक्षा हेतु लाठी लेकर चलते थे, क्योंकि उन्हें अँग्रेज़ों से अधिक डर भारतीयों से लगता था। उनका यह डर जीवन के अंत में सही भी साबित हुआ। उन्होंने कई अनशन किए। इतने अनशन किए कि एक दिन उनकी पत्नी कस्तूरबा जी ने क्रोधित होकर रसोई को ही ताला मार दिया। गांधी जी न्याय की मूर्ति थे। वह त्याग की भी मूर्ति थे। वह इतनी चीज़ों की मूर्ति थे कि मैं यहाँ लिखने बैठूँगा तो लिखते-लिखते स्वयं मूर्ति हो जाऊँगा। गांधी जी के प्रयासों से हमारा देश स्वतंत्र हुआ।’’ और इस तरह के ही कई वाक्य हम रट लेते थे और परीक्षा की कॉपी में लिख आते थे।
स्कूली निबंधों में इस तरह गांधीजी का हमेशा ही से क़ब्ज़ा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य यहाँ यह कि बापू बेचारे केवल निबंधों तक ही सीमित होकर रह गए। परीक्षा की कॉपियों के भीतर शब्दों की जेल में ही क़ैद रह गए महात्मा और उनके विचार। हमें लगा कि यार बापू को तो आदत है जेल में रहने की, तो इनको शब्दों के बीच ही क़ैद कर दो। देखना भैया, कहीं बाहर न आ जाएँ! हम ज़रा भ्रष्टाचार और अलगाववाद टाइप की चीज़ों में व्यस्त हैं और बापू हैं कि सत्य-अहिंसा की लाठी लिए चौक पर खड़े हैं। हमको दुनियादारी करने में डिस्टर्ब कर रहे हैं राष्ट्रपिता! इन्हें शब्दों की क़ैद में डालो, ताकि हम जरा निश्चिंत होकर अपने गोरखधंधे जारी रख सकें। जब यह सब करके हमारा मन भर जाएगा तो हम लौटेंगे बापू के पास और सुनेंगे उनकी नैतिक बातें। तब तक के लिए इनको निबंधों में ही सँभालकर रखो तुम।
तभी से बापू इंतिज़ार में हैं कि कोई आएगा और उन्हें शब्दों के अलावा अपने जीवन में भी स्थान देगा। परंतु आप फ़िक्र न करें। बापू आपकी तरह हार मानने वाली पार्टी नहीं। इन स्कूली निबंधों में क़ैद होते हुए भी उनकी आशा जीवित है। उन्हें पता है कि आप तो दुनियादारी में व्यस्त है और आपके पास समय नहीं उन्हें इन शब्दों से बाहर निकालने का। उन्हें आपसे अब आशा भी नहीं है। उन्हें तो इन बच्चों से उम्मीद है जो आज भी उन्हें रट रहे हैं। रटते ही चले जा रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि उन्हें रटने वाले ये बच्चे ही हैं, जो एक दिन उन्हें मुक्त करेंगे और शब्दों के अलावा अपने जीवन में भी स्थान देंगे।
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गगन तलरेजा का और एक लेख यहाँ पढ़िए : हम चुटकुलों से ख़फ़ा हैं
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