सब कुछ ऊब के ख़िलाफ़ एक तिलिस्म है
निशांत कौशिक
22 जून 2025

एक
It doesn’t take much to console us, because it doesn’t take much to distress us.
The Misery of Man without God
(B. Pascal, Pensées)
मैं पहली बार बर्फ़ से ढँके पहाड़ देख रहा था—वह कुछ और याद नहीं आ सकने का मंज़र था। देखने और दृश्य के बीच स्मृति का दख़ल नहीं था। वह ऊब जाने के सिलसिले में बना हुआ एक दिन था।
मैंने जाना कि सब कुछ ऊब के ख़िलाफ़ एक तिलिस्म है। यात्राएँ ऊब के ख़िलाफ़ हैं। चुप्पी की ऊब पर धँसकर बैठी हुई है आवाज़।
मैं जिसे छूता हूँ, जिसे चूमता हूँ, जिसको भी देखूँ—अपने ऊब से युद्ध करते हुए मेरे सामने बैठा है और मेरे ठीक पीछे बैठी है मेरी ऊब।
दो
शहर में यह इस साल की यह पहली बारिश है, लेकिन इन गोथिक इमारतों के लिए नहीं। उनके पास सौ से अधिक वर्षों के पानियों का इतिहास है। उन्हें सूखने के लिए कई वर्षों की संचित धूप चाहिए। अहाते में एक क्लर्क टहलता है। इमारत की साख़्त के कत्थईपन में उसका शर्ट चमकता है।
ब्यूटी विल सेव द वर्ल्ड, कहता है एक किरदार।
वली दकनी की कब्र उजड़ी—बामियान ख़त्म हुआ। समंदर में कोका कोला की बोतल और जूते तैरते हैं। सिर्फ़ ख़बरें पहुँचती हैं, लोग नहीं। दरिया दहलीज़ की ओर बढ़ता है। खुदते चले जाते हैं कलीसे, कब्रें, दैर और दमिश्क़। लॉलीपॉप चूसते हुए, बाप के कंधे पर चढ़ा बच्चा बोलता है—“The pyramids must have been built by aliens”
तीन
रात होती है शुरू आधी रात को
(वसंत देव)
जिसको जो मलहम लग जाए, वह सबको वही सुझाता है।
मेरे पास रात के दिलफ़रेब क़िस्से हैं। तब के भी, जब न यार साथ थे, न शराब। गानों में रागों का चलन। ‘टशन’ में भैरव, आँखों-देखी में ‘ललित’ और चंदन-सा बदन में ‘यमन’।
हर रात, पिछली रात से अलग होती है। रात में सुबह की कल्पना और रोशनी की माँग, रात का अ-सम्मान है।
रात को मद्धिम गति से चलता है समय। धीमे चलते हैं तारे। उल्लुओं को झपकी आती है। बिल्लियों की पूँछ थम जाती है। शांत जलती है क़न्दील और मृत्यु झुटपुटे तक इंतिज़ार करती है।
जो गुम गया है, रात के संदूक़ में क़ैद है। सारी रातों का कुल अँधेरा है हर उस जगह, जिसके बारे में सोचता नहीं हूँ—उन दराज़ों में, उन जेबों में।
श्रापित है आइनों का अँधेरा।
किशोर क़दम मराठी में ‘आठवण’ पढ़ता है। चाय, अब एक विनम्र चुप्पी का वक़्फ़ा है। मेरी ऊब—चाय और किशोर कुमार के बीच टहलकर बैठ जाती है।
आसमान महा-चाँद है आज—गलता है फिर रिसता है, बादलों में फैलता है, तारे ज़द में हैं। ज़मीन पर चमकते हैं रौशनियों के गुच्छे।
खिड़की पर झुकता है पेड़, नारियल में पानी का मसौदा है। यह लोर्का की कविताओं की रात है।
चार
कंधे से उतारकर पत्थर, किनारे रखता है कामू का नायक। सिगरेट का जलता दहाना घिसता है ज़मीन पर।
माँ की कब्र को चूमता है और पढ़ता है उसकी मृत्यु-तिथि।
तस्में बाँधता है ग्रैगर समसा, ओवरसाइज़्ड स्वैटर पहनकर जाता है कचहरी, नोटराइज़ करता है इक़रारनामे, गद्देदार कुर्सी पर पीठ टिकाकर टीन की छत देखता है, मेलेना-मेलेना कहते हुए।
पेड़ों के बीच खिंची बेलों पर सूखते हैं सांतियागो और अहाब के कपड़े। उनके पलकों पर जमा हुआ है नमक। लहरों को लतियाता है अहाब, सीप में कान लगाता है सांतियागो।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
26 मई 2025
प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा
पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप
31 मई 2025
बीएड वाली लड़कियाँ
ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियो
30 मई 2025
मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था
जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर
30 मई 2025
एक कमरे का सपना
एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर
28 मई 2025
विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक
बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के