कहानी : मसअला फूल का है
पल्लवी विनोद
25 अगस्त 2025

भूख देखी है आपने? भूख वह भी किसी की आँखों में! भूख भरी आँखों को देख या तो सिहरन होती है या विस्मय... इस भूख को तृप्ति कैसे मिलेगी? यह जानने के प्रयास में, मैं उसके पीछे चली गई। पहले मुझे उस भूख की आख़िरी तह को समझना था, जहाँ मजबूरी का जन्म होता है। मजबूरी भी इतनी मजबूर अचानक नहीं हो जाती कि जन्म लेते ही सोचने-समझने की शक्ति छीन ले। उसके बहुत सारे चरण होते हैं। हर एक चरण से गुज़रकर इंसान बदलता जाता है। हर बदलाव से पहले पैताने पर बैठा विचार उसके दिमाग़ पर चढ़ जाता है। वह विचार भी एकाएक जन्म नहीं लेता। प्रसव की एक दीर्घ अवधि के बाद उसका रुदन सुनाई देता है, जैसे एक लंबी प्रक्रिया के बाद ईंटों का जुड़ना, सीमेंट का उस पर फिसलना, मकान को घर बना देता है।
उसकी कहानी मुझे एक घर ने सुनाई थी। उसने कहा था कि एक मकान बनाने में सिर्फ़ उस मकान के मालिक का ही योगदान नहीं होता। जाने कितने हाथों की ख़ुशबू उस घर की दीवारों में बसी होती है, जो दूर गाँवों, क़स्बों से निकल उस घर को बनाने आते हैं। वह घर भी उन मज़दूरों की गुनगुनाहट से तृप्त हो रहा था। उनके क़दमों की आवाजाही ने एक ज़मीन के टुकड़े पर मकान का नक़्शा सजा दिया था। एक तरफ़ मोबाइल पर गाना बजता रहता और दूसरी तरफ़ उन मज़दूरों का हँसी-मज़ाक़… कभी चूड़ियों की आवाज़ तो कभी पायल की रुनझुन। मकान को घर की शक्ल मिलने ही वाली थी।
बस कुछ ही दिनों में उसे पूरी तरह सजा-संवार दिया जाएगा और उसका मालिक पानी का मटका और तुलसी जी का चौरा लिए घर के अंदर प्रवेश कर जाएगा। तब तक सब सुंदर घटते-घटते कुछ और ही घट गया। वह कहीं दिखाई नहीं दे रही। ना कमरों में, ना छत पर, ना बालू छानती, ना सीमेंट का घोल बनाती...ना मिट्टी लगे पैरों को धोती, ना अपनी साड़ी को तह लगाती!
वह यहाँ तब आई थी, जब इस घर की नींव रखी जा रही थी। ईंटों के ढेर ने जब उसे देखा तो उनकी लालिमा और बढ़ गई थी। बालू के कण थोड़े और भुरभुरे हो गए थे। हवाओं ने अचानक से दिशा बदल दी थी। पड़ोस के घर की औरत उसे देख ठिठक गई थी। ठिठका तो उसका आदमी भी था, लेकिन जाने क्या सोच कर हट गया। उसकी आबनूसी आँखों में इस शहर की दुनिया के लिए मासूम झिझक थी। ऐसी झिझक कि देखने वाले को समझ आ जाए ‘पंखुड़ियाँ खुली नहीं हैं’। फूल आज सुबह ही कली के बाहर निकला है। पर उस कली के लिए ,रस्मन एक भ्रमर चुना जा चुका था। पंखुड़ियाँ खुलते ही उसने अपने भ्रमर को देखा था। कली भ्रमर के प्रेम में थी। वह प्रेम जिसका स्वप्न उसने जवानी की दहलीज़ पर पहला क़दम रखते ही देखा था।
उस कली जैसी लड़की ने इस दुनिया में अपनी एक अलग दुनिया बना ली थी, जिसमें सब कुछ उसका पति था। कभी भीड़ से घबराकर उसके चूड़ियों भरे हाथ अपने पति की कलाइयों को पकड़ लेते। तो कभी अकेलेपन में उसकी पीठ की तरफ़ खिसक जाती। पति जानता था कि उसकी आँखों में झाँकती वह लड़की जितनी ख़ूबसूरत है, उतनी ही नाज़ुक है। वह उसे अपनी आँखों से सारे तौर-तरीक़े समझाता रहता। इंजीनियर साहब के सामने कैसे जाना है। ठेकेदार साहब से कितनी दूरी बनानी है। लकड़ी वाले साहब को कितना देखना था और तो और वहाँ काम करने वाले दूसरे मज़दूरों के सामने कितना मुस्कुराना है।
एक कमली थी, जिसके लिए उसने लड़की को कोई नियम नहीं सिखाया था। कमली भी औरों की तरह लड़की की ख़ूबसूरती पर निहाल थी। उस मकान में बनती चारदीवारी के पत्थरों को आश्चर्य होता कि अपने पति के आँखों की उठान देख कर भी कमली के मन में लड़की के लिए कोई डाह क्यों नहीं उठता? उसके कलेजे में ऐसी आग क्यों नहीं उमड़ती जिससे लड़की की ख़ूबसूरती झुलस जाए।
“कमली दी तुम्हाए हाथ का खाना खाके अपनी दीदिया याद आती है। उनके हाथ में भी एकदम यही सुआद था।”
“हम भी तो तुम्हाई दीदी हैं”
“हाँ! लेकिन हमाई दीदिया एकदम अम्मा जस हैं। गोदी खिलाई हैं हमको। जैसे छोटका हैं ना, कहने को तो हमाए देवर हैं। पर हमको उनपे बहुत ममता आती है। इतने सूझबक हैं कि एको घंटा अपने भैया बिना नहीं रह पाते हैं।”
“और भैया तुम्हाए बिना नहीं रह पाते हैं।”
“भक”
कामगारों की भीड़ में मौजूद इन दो औरतों की चुहलबाज़ियाँ देखता मकान ख़ुद को स्त्रैण गुणों से भर रहा था। कभी वह हथौड़े की चोट से चिहुंक जाता तो कभी अपनी सख्ती को पानी से तिराते देख मचल जाता। उन दो औरतों की खनक से पूरा मकान गूँजता रहता। अब मर्द तो ठहरे मर्द, गाहे बगाहे उनकी गोलाई नापते रहते, जो साड़ी के ऊपर पहनी गई शर्ट से झाँकती तक नहीं थी। झाँकती भी तो उन औरतों को फ़र्क़ नहीं पड़ता। साड़ी पहने-पहने नहाने वाली उन औरतों को पर्दे की ओट में कपड़े पहनने का हुनर बख़ूबी आता था। फिर वे दोनों हमेशा एक-दूसरे की चौकीदार भी तो बनी रहतीं। जागते रहो का इशारा आँखों से करने वाली चौकीदार…
मकान की दीवार खड़ी हो रही थी। ईंट के ऊपर ईंट, उस पर गारे का घोल उसे मज़बूत बना रहा था। छत पड़ने का समय नज़दीक आ रहा था। एक दिन कमली के गाँव से ख़बर आई, अम्मा बहुत बीमार हैं। वह रोती-बिलखती गाँव के लिए निकल गई। जाते समय लड़की के पति को सहेज कर गई, लड़की बहुत नाज़ुक है... ख़याल रखना।
आदमी के जीवन में भी इस लड़की और एक मंदबुद्धि भाई छोटका के सिवा कौन था?
छोटका की मानसिक उमर उसकी शारीरिक उमर से कम थी। ईंटा-बालू ढोने जैसे काम तो वह आराम से कर लेता था, पर उसे कब क्या कहना है और कब क्या सोचना है—जैसी बातों की समझ नहीं थी। ना ख़ुद की बात समझा पाता। भाई की कही हर बात मानते हुए वह दूसरे को सामान्य भी लग सकता था, असामान्य भी...
पति अपने भाई को बहुत प्यार करता था। माँ-बाप बचपन में ही गुज़र गए थे तो वही छोटका का बाप भी बन गया था।
“अरे छोटका, इधर आ खाना खा ले।”
“छोटका का हुआ? माथा पिरा रा का रे?”
“सुन छोटका! जितना बस चले उतने काम किया कर”
लड़की, पति के भाई के प्रति इस प्यार को देख अभिभूत हो जाती। उसका कोई भाई नहीं था, ना बड़ा, ना छोटा तो छोटका उसके लिए भी भाई ही था। उमर में बड़ा होकर भी छोटे जैसा। छत पड़ने के कुछ दिनों बाद सारे मज़दूर मकान के निचले हिस्से में रहने लगने लगे। लड़की ने एक छोटे कमरे में अपनी गृहस्थी बना ली थी। इसी कमरे में रात की रानी खिलती थी, मोगरे संकुचाते थे और बलिष्ठता कोमल हो जाती थी। देर रात चूड़ियों की खनक सुन दूसरे कमरे में सोए दूसरे मज़दूरों की नींद खुल जाती थी। उनके करवटों के बदलने से सुबह तो जल्दी नहीं होती, लेकिन रात कट जाती थी। जैसे हर एक करवट इंसान को एक कहानी सुनाता हो। कहानी जिसको ख़त्म होने की कोई जल्दी नहीं है, रात और कहानी धीरे-धीरे बढ़ती थी। लड़की के पास रात की अलग कहानी थी तो लड़के के पास अलग… दूसरे लोगों के पास अलग। मकान का वश चले तो ये सारी कहानियाँ मुझसे लिखवा ले! जैसे उस इंजीनियर की कहानी जो अपनी कार्यक्षमता के अनुरूप काम ना कर पाने से हतोत्साहित था। या फिर उस मकान के मालिक की कहानी जो अपनी सीमित कमाई में अपनी पत्नी के सपनों को पूरा कर रहा था।
उन मज़दूरों की भी कहानी जो सिर्फ़ अपने घर और गाँव से दूर हो जाने के लिए यहाँ आ गए थे। पर यह कहानी तो उस लड़की की है जिसको देखने के लिए सूरज भी डूबने में वक़्त लेने लगा था।
आदमी चाहता था, लड़की किसी की नज़र में ना आए पर वह आ ही जाती थी। ठेकेदार का युवा सहायक ‘शंभू’ लड़की को अक्सर उसकी रेजगारी के अतिरिक्त रुपए दे देता था।
“सुन यहाँ से थोड़ी दूरी पर मंगल हाट लगता है, चली जाना”
“अच्छा! वहाँ झूला है?”
“पगली, मेला नहीं बाज़ार है। अपने लिए कुछ ख़रीद लेना।”
“अरे ना! सब है हमारे पास। ज़रूरत का सामान छोटका के भैया ले आते हैं।”
“तू भी चली जाना उसके साथ, बाहर की हवा खा लेना”
“ वो तो हम हर दिन खाते हैं”
हवा को खाने का अभिनय करती हुई लड़की हँसने लगी।
दूर खड़े पति को दोनों की समवेत हँसी सुनाई दी। उसने लड़की को हड़काते हुए उसके हाथ में मौजूद रुपए की वजह पूछी।
“फालतू बात ना करो। बाबू हमको बेसी रुपया तुम सबका खाना बनाने का देते हैं।”
“काहें! वो भतार है तुम्हारा जो खर्ची देता है।”
लड़की ने तमतमाई आँखों से आदमी को देखा, “जो मुँह में आता है, वही बक देते हो। कभी सोचे कि हम इतना काम अकेले कैसे करते हैं। कमली दी थी, तो बात अलग थी”
“अच्छा! नईहर में कैसे करती थी? पानी तक तो दो कोस दूर से भर कर लाती थीं”
“वहाँ ईंटा, गारा नहीं ढोते थे हम। खाना भी दीदिया बनाती थीं। उनके बियाह के बाद अम्मा... हम बस ऊपर का काम करते थे।”
“ऊपर का काम! हें… उसी काम के लिए अपने यार संग पूरा गाँव में घूमती रहती थीं तुम। ईहाँ ई सब आवारागर्दी नहीं चलेगी।”
“तुम अपनी तरह समझे हो का हमको! तुम घूमते होगे अपने यार...”
“चुप साली छिनाल, जबान लड़ाती है हमसे...”
इस पंक्ति के साथ कही गई एक और गंदी गाली ने लड़की का मन ज़ख़्मी कर दिया था। ये बातें अन्य मज़दूरों के साथ छोटका ने भी सुनी थीं। उसने आगे बढ़ कर लड़की का हाथ पकड़ लिया और उसे वहाँ से उसके कमरे की तरफ़ ले गया।
लड़की कुछ देर सुबकती रही। जब दुख और क्रोध आँसूओं के साथ बह गया, तो वह फिर से खाना बनाने की तैयारी में जुट गई। ग़ुस्से में कही गई बात, कहने वाले को भी परेशान करती है, पर ओहदे में बड़ा आदमी माफ़ी नहीं माँगता। वह कुछ ऐसा करता है कि सामने वाले को उसकी ग़लती क्षणिक आवेश का प्रभाव लगे।
पति ने भी उस रात लड़की को थोड़ा ज़्यादा प्यार किया था। लड़की सिकुड़ती जा रही थी और वो अपने चुम्बन द्वारा उससे माफ़ी माँग रहा था। रात ने फिर एक कहानी सुनाई, जिसे सिर्फ़ लड़की ने सुना...
उसके बाद लड़की ने शंभू से बात करना कम कर दिया। शायद पति के डर से या वह अपने चरित्र पर कोई सवाल नहीं सुनना चाहती थी।
उस दिन लंबी बारिशों के बाद सुबह का मौसम धुला हुआ था। राशन लेने लड़का मंडी चला गया, उसके साथ कमली का पति भी गया था…
जब वह मकान पर वापस आया तो शंभू वहाँ से बाहर निकल रहा था। पति तेज़ चाल से अंदर गया। लड़की की स्थिति बदहवास-सी थी। पति तैश में उसके पास गया। उसे पकड़कर पूछा, “ई शंभू अंदर क्या कर रहा था?” लड़की पहले तो कुछ बोल ही नहीं पाई, फिर पति के सीने से लग सुबकने लगी।
पति ने उसे दूर हटाकर कहा, “नौटंकी साली हुआ क्या यह बता?”
“वो छोटका आज परदे के अंदर…”
बिना पूरी बात सुने पति ने चिल्लाकर कुछ कहा, लड़की भी चिल्लाई... फिर घर को गंदी गालियों और थप्पड़ों की आवाज़ सुनाई दी। कमली का आदमी बाहर फ़ोन पर बात कर रहा था। शोर सुन अंदर आ गया और पति को खींचते हुए बाहर ले आया।
उस घटना को बीते एक हफ़्ते हो गए थे। मज़दूर वापस आ गए थे। ऊपरी तल्ले का काम शुरू हो गया था। वापस आए मज़दूर जिस चहक भरी लड़की को देखने आए थे, वह वहाँ मौजूद नहीं थी। कुछ दिन बाद कमला भी वापस आ गई। लड़की को देख उसका मुँह सूख गया।
“क्या हो गया रे तुझको?”
लड़की अपनी कमली दी को देख फफक उठी। उनसे गले लग बहुत देर तक रोती रही।
“बात का है बता ना?”
लड़की कुछ बुदबुदा रही थी, जो कमली दी को ठीक से समझ नहीं आ रहा था। वह उसकी पीठ सहलाती रही। उसकी बाह पर पड़े नीले निशान कुछ बताना चाह रहे थे, पर उन्होंने इस समय सिर्फ़ लड़की को सँभाला।
“पकौड़ी अच्छी ना बनी का रे?”
कमली दी को लगा उनके हाथ स्वाद लड़की के मन को ठीक कर देगा, पर इस बार लड़की कुछ ठीक से खा ही नहीं रही थी। थोड़े दिन बाद उन्हें समझ आया कि लड़की का खाना ना खाने का कारण कुछ और ही है।
ऊपरी तल्ले पर काम करते पति तक यह बात पहुँची। रात बहुत दिनों बाद लड़की के कमरे में रोशनी आई। पति बोल रहा था लड़की सुन रही थी, “लड़का हुआ तो विक्रम और लड़की हुई तो मुस्कान... ठीक है ना दूनों नाम?”
लड़की ने ‘हूँ’ बोलकर सहमति दे दी। वह शांत थी। इतनी शांत जैसे समंदर में रुकी हुई हवा। उस कमरे में मौजूद हवा ने भी साँस रोक लिया था। लड़के ने उसे अपने क़रीब खींचा, बिना प्रतिरोध वह क़रीब आ गई। जैसे अपने भीतर की ख़ामोशी से ख़ुद ही निकलना चाह रही हो। लड़के का हाथ बहुत तेज़ी से उसके शरीर पर फिसल रहा था। लड़की के अंदर भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था। उसके घायल मन को बहुत दिनों बाद पति के स्पर्श का मलहम मिला था। जिसके कंधे पर सिर रख उसने जीवन के सुंदर सपने देखे थे, आज बहुत दिनों बाद वो कंधा उसके बग़ल में था। उसने आगे बढ़कर कंधे पर सिर रख दिया और उसकी बनियाइन को उंगलियों में दबाए रोती रही। जब पति के शरीर को उसके गर्म आँसूओं का अहसास हुआ, तब उसने उसे और पास खींच लिया।
स्त्री, पुरुष से दूर होकर संसर्ग के लिए नहीं; उसके स्पर्श के लिए व्याकुल होती है। वह स्पर्श जिसे अपनी सारी उलझनों को सौंपा जा सके। जो उसे एहसास दिलाता है कि दुनिया कितनी भी जटिल हो, मैं तुम्हारे पास रहूँगा। लड़की भी इस छुअन के लिए तरस रही थी। पर आज उसके सीने से लग कर भी मन हल्का नहीं हो पा रहा था। पति की बाहों में आकर भी वह ख़ुद को उसके साथ महसूस नहीं कर पा रही थी।
पति उसके मन से बेख़बर अपनी महीने भर की दूरी को मिनटों में पाट लेना चाहता था। उस उत्तेजना की आँधी में लड़की एक बार फिर घायल हो रही थी। उस दिन की चोट के निशान उसके जिस्म पर फिर से उभरने लगे। लड़के की उफनती साँसों के शोर में उसे उन गालियों की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी।
आवेग थमने के बाद पति छिटक कर सो गया। लड़की वहीं रह गई, उसी ज़मीन पर… उसी ज़मीन-सी ठंडी, कठोर... उन बातों को मन में दोहराती जो उसका पति हाँफते हुए बुदबुदा रहा था।
“यह बात जान लो, वह शंभुआ तुमको कभी यह मज़ा नहीं दे पाएगा”
घर, उस लड़की की पत्थर बनी आँखों को देख सहम गया था।
लड़की फिर उसी सुबह की ओर मुड़ गई। जहाँ पति सुबह मंडी गया था। रोज़ तो पर्दे के बाहर वही चौकीदारी करता था, आज वहाँ कोई नहीं था। गीली देह लिए वह पर्दे के भीतर कपड़ा बदलने चली गई। कपड़ा बदलते हुए, उसे अपनी पीछे किसी के होने का आभास हुआ। घबराकर पलटी तो वहाँ छोटका था। उसकी चीख निकल गई। उसे लगा जैसे किसी ने उसके पूरे शरीर का ख़ून निचोड़ लिया हो। साँस को अंदर भरने के लिए बहुत दम लगाना पड़ रहा था। उसकी फटी हुई आँखें इस सच को झुठलाना चाहती थीं कि वह छोटका था। कैसे उसने साड़ी पहनी कैसे पर्दे से बाहर आई। उसे कुछ याद नहीं आ रहा था। बाहर निकलते ही उसे छोटका के साथ शंभू दिखाई दिया। वह उन दोनों को देख रहा था। उसकी हालत देख शायद उसने सच को समझ लिया था।
“अबे साले, पागल होने का नाटक करता है।”
“तू तू तुम कब आए? और हम क क का किए?”
“एक झापड़ खाएगा तो तेरी सारी नौटंकी ख़त्म हो जाएगी।”
छोटका घबराहट में काँप रहा था। लड़की डर गई कि उसको दौरा ना पड़ जाए।
उसने शंभू के आगे हाथ जोड़ लिए। उसका मन ज़ख़्मी हुआ था। जिस छोटका को वह अपना भाई मानती थी। दिन भर बाबू-बाबू करती फिरती थी। उसने पर्दे के भीतर आकर ख़ुद को लड़की के मन से बाहर निकाल दिया। लड़की को वो सारे स्पर्श लिजलिजे लगने लगे, जो छोटका ने भाई से झगड़े के बाद रोती हुई लड़की की कलाइयों और चेहरे पर दिए थे। अभी वह ख़ुद को बटोर ही रही थी कि पीछे से ग़ुस्से में दनदनाता हुआ उसका पति आ गया।
उसने शंभू को बाहर निकलते देखा था। उसके पूछने पर लड़की ने रोते हुए कहा, “छोटका आज पर्दे के भीतर आ गए थे।”
पर पति ने उसकी बात अनसुनी कर दी। “साली खुलेआम धंधा कर रही थी? आज छोटका ना होता तो तुम लोग”
पति की इस बात से वह बौखला गई। एक मानसिक आघात ने उसे घायल किया था, दूसरे आघात ने कुचल दिया।
“अच्छा! हम धंधा कर रहे थे... तो तुम्हारा भाई क्या भड़ुवा बना हुआ था... साला पागल होने का डरामा करता है। कमीना कहीं का और तुम...” उसके आगे कुछ और बोलने से पहले लड़के का थप्पड़ उसके गालों पर पड़ चुका था।
“तुम हमको मारे कैसे? आँ… सारी मर्दानगी हमी पर दिखाओगे! अपने पागल भाई को कुछ नहीं कहोगे!”
आदमी का ग़ुस्सा और भड़क गया था। उसके थप्पड़-घूँसे तब रुके, जब कमला का आदमी वहाँ आ गया।
उस दिन के बाद, वह हर रोज़ ख़ुद को समझाती थी कि उसके आदमी को अपनी ग़लती का अहसास होगा। छोटका की मानसिक हालत ठीक नहीं है लेकिन शरीर तो बढ़ ही रहा है, इसीलिए वह यह ग़लती कर बैठा! पर यह बात तो उसके भाई को समझनी चाहिए थी। हर दिन उसे लगता कि पति उससे माफ़ी माँगने आएगा। पर आदमी के मन में तो कुछ और ही चल रहा था। इस आदमी से भला तो शंभू है, जो पर्दे से दोनों को बाहर निकलते देख भी शक नहीं किया। एक वही था जिसने छोटका को डाँटा था।
दिन ऐसे ही गुज़रने लगे मकान लगभग तैयार हो गया था। ठेके पर जितना काम इन मज़दूरों का था, वह पूरा हो गया था। उनकी कुछ रेजगारी बची हुई थी, जिसे लेने के बाद सब दूसरे मकान जाएँगे। कमली ने कहा, “अब जचगी तक तुम कोई भारी काम ना करना, उसके बाद भी नहीं।”
लड़की कुछ नहीं बोली...
“अरे! काहे ऐसा कर रही है। आदमी सब ऐसे ही होत हैं। भूल जा ए सब”
लड़की अभी भी शांत थी, लेकिन उसका चेहरा बता रहा था कि मन बहुत अशांत है।
“ई शंबू तुमको चाहता है का?”
लड़की ने इस बात पर कमली को जिस तरह देखा उसका मतलब घर समझ नहीं पाया।
“सुन मेरी बात धियान से सुन, ये मरद जात किसी की सगी ना है। आज तुमको फुसलाएगा, परेम दिखाएगा कुछ टेम बाद मन भर जाएगा। तेरा मरद चाहें जईसा हो तेरे बच्चे का बाप है। वही जीवन भर साथ देगा।”
उन्नीस साल की लड़की जीवन भर साथ देने वाले मरद के नाम से घबरा गई। अभी तो एक साल भी नहीं हुए थे।
“सुनो, मेरी एक बात मानोगी! इतना दुख में रहोगी तो पेट के भीतर वाला भी उदास ही रहेगा। हमारी अम्मा कहती थी, बच्चा सब सुनता-समझता है। का चाहती हो एगो और छोटका आ जाए?”
लड़की डर गई, छोटका के नाम से भी उसका मन अजीब हो जाता था। उसकी पीठ पर छोटका की लोलुप आँखों के निशान अभी तक थे… नहीं चाहिए छोटका जैसा ना उसके भाई जैसा। नहीं चाहिए। यही पंक्ति उसके मन में बराबर चलती रहती।
यही सोचते-सोचते वह दिन आ गया, जहाँ से हमने कहानी शुरू की थी। तो लड़की कहीं नहीं मिल रही थी। किसी ने उसे बाहर जाते हुए नहीं देखा था, मतलब अँधेरे में ही कहीं निकल गई। कहाँ गई होगी? शंभू का फ़ोन भी बंद जा रहा था। घर की हर ईंट बुदबुदाने लगी, “लड़की शंभू के साथ भाग गई।”
कमली को इस बात पर भरोसा नहीं था। “हम जानते हैं उसको, हल्के चरित्तर की ना है।”
पति बौराया घूम रहा था। बदहवासी के इस समय में छोटका एकदम शांत होकर छत पर बैठा था। सूरज ने भी लड़की के इंतज़ार में थकी आँखें मूँद लीं।
“ध्यान से जाना, इस पर पहला नंबर दबाओगी तो हम फ़ोन उठाएँगे और दूसरा नंबर तुम्हारी दीदी उठाएगी। वो पक्का तुमको लेने आएगी ना?”
लड़की ने हाँ कहा और ट्रेन में चढ़ गई। शंभू ने टिकट कटवा दिया था, वही उसको स्टेशन भी लेकर आया था। लड़की ने उसके प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया था। तब भी उसे सही सलामत उसकी बहन के घर भेजने की ज़िम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली थी। जिसे पहली बार देखते ही चाहने लगा था उसके लिए इतना तो कर ही सकता था।
लड़की खिड़की से पीछे छूटते शहर को देख रही थी। सिर्फ़ शहर ही नहीं छूटा था, एक फूल की खुशबू भी छूटी थी। एक नाज़ुक-सा मन जिन सपनों के साथ इस शहर आया था, वह सपना भी टूटा था। लड़की के हाथ उसके उभरे हुए पेट पर थे। जैसे उसे तसल्ली दे रहे हों “हम हैं ना तुम्हारे साथ” जैसे उससे पूछ रहे हों “तुम रहोगे ना हमारे साथ?”
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कहानी का शीर्षक परवीन शाकिर की ग़ज़ल के मतले—‘वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा/ मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा’ से उद्धृत है।
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