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इहबास में सोलह दिन

मेरे चार दशक के अनुभव ने जीवन में चार चाँद लगा दिए हैं। कुछ दशक तो मेरे लिए एक सदी लिए हुए आए थे, सूरज सरीखे चमकीले, दमकीले और झुलसा देने वाले। दिल्ली के हाइटेक कहे-समझे जाने वाले खस्ताहाल अस्पतालों में बीमारों की तीमारदारी में बिताए हुए हफ़्ते और महीने। कभी एम्स, कभी सफ़दरजंग तो कभी इहबास (मानव व्यवहार एवं संबद्ध विज्ञान संस्थान), और भी काफ़ी सारे छोटे-बड़े अस्पतालों में छिटपुट दिन। 

इहबास (दो दशक पहले तक ग्रामीण सेवा और जीप/ऑटो वाले पागलख़ाने नाम से हमें वहाँ ठेला करते थे) में चक्कर लगना मेरे जीवन के एक ज़रूरी काम में से एक था। पहली बार क़रीब बीस-बाईस साल पहले मैं इहबास गई थी। उससे पहले मेरी माँ के कंधों पर यह ज़िम्मेदारी थी, कुछ समय पापा का इलाज सफ़दरजंग में चला, जिसे बाद में ख़ासतौर पर मानसिक रोगों के इलाज के लिए प्रसिद्ध हो रहे इहबास में शिफ़्ट कर दिया गया। 

वैसे मानसिक रोगियों के साथ रहने का मेरा अनुभव काफ़ी पुराना है; इसलिए जो औरों को कड़वा लगता है, मुझे सादा-सा ही लगता है। मुझे आज भी वे दिन बहुत अच्छे से याद हैं। दिल्ली में कड़ाके के सर्दियाँ थी, दिवाली के बाद से ही पापा की तबीयत लगातार बद से बदतर होती जा रही थी। मेरे जीवन में दिवाली और होली जैसे त्योहारों का अनुभव लंबे समय तक यातना से भरा ही रहा। सर्दियाँ में सुबह उठते ही सबसे पहले फैली रसोई से मुलाक़ात होती—तेल से सना हुआ तवा, पलोथन स्लैब पर बिखरा हुआ, चायदान लगभग जला हुआ मिलता; और पापा अपनी साइकिल लिए घर से चम्पत मिलते। लगभग रोज़ यही विचार होता कि फिर आज कहाँ और किसके यहाँ गए होंगे! घरवालों और रिश्तेदारों की बखिया उधेड़ने। बहरहाल मैं पापा को चाँदनी चौक के छोले-भठूरे का लालच देकर जैसे-तैसे इहबास चलने को राज़ी कर लेती थी। 

मुझे याद है वह पहला दिन—दिल्ली की सर्दी में सुबह पाँच-साढ़े पाँच बजे पापा मुझे उठाकर, पराठा तैयार करके मेरे पीछे पड़ जाते थे कि पराठा खाओ एक तुम्हारे ही लिए रखा है; मैं अपने पाँच पराठे खा चुका हूँ। तेल में बुरी तरह लथपथ-लसड़ा पराठा देखकर ही मुझे ऊब-सी आती थी। मैं क्या-क्या प्रपंच रचकर, अपनी बीमारी का नाम लेकर उस पराठे से पीछा छुड़ाकर; चाय-रस खाकर पापा के साथ छह-साढ़े छह बजे की ई एम यू लेकर (ओल्ड फ़रीदाबाद से शाहदरा की लोकल ट्रेन) हम शाहदरा उतरते थे। मेरी इच्छा होती थी कि महिला कंपार्टमेंट में बैठकर पापा कि गालियों से बच जाऊँ, लेकिन पापा की किसी भी व्यक्ति से उलझने-भिड़ने की कल्पना करते ही पापा के साथ जनरल बोगी में ही सफ़र करती। पहले पहल पापा से अजनबियों के सामने गाली खाना बुरा लगता लेकिन फिर आदत-सी पड़ गई। 

इसी सब में मैंने पहली दफ़ा डॉक्टर ओमप्रकाश को देखा, पापा की जाँच-पड़ताल और इलाज करते हुए। पापा के पास परिवार से लेकर पूरी दुनिया के बारे में शिकायतें होतीं। वह जिस जगह पर होते वहाँ ख़ुद को सर्वोच्च पायदान पर रखते। डॉक्टर ओमप्रकाश को वह नौकर ही समझते जो उनकी ग़ुलामी करने के लिए ही पैदा हुआ है। मेरी माँ डॉक्टरों को वही बतातीं जो पापा उन्हें रास्ते भर में रटाकर लाते और डॉक्टर भी उसी के अनुसार दवा लिख कर देते। 

बाद में मैंने पापा के आगे डॉक्टर को अँग्रेज़ी में उनकी सही स्थिति बताई कि कैसे वह मार-पीट करते हैं, कई बार जान से मारने की कोशिश कर चुके हैं; घर में कोहराम मचाने के बाद हमें ही उल्टा कहते हैं कि पुलिस कंप्लेंट करोगे तो मेरा कुछ नहीं होगा मैं तो मानसिक रोगी हूँ। डॉक्टर ने ये सब सुनकर और एक परचा बनाया कि यदि रोशन लाल, कहीं कोई मारपीट अथवा हिंसा में पाए गए तो इन्हें इहबास में रखा जाए। इनके घरवालों की शिकायत पर पुलिस कार्यवाही करे। वह परचा मोहर और हस्ताक्षर करके मुझे दे दिया गया और पापा को लगभग धमकाते हुए कहा गया कि आइंदा यदि अकेले आए तो आपका इलाज नहीं होगा। घर से बेटी अथवा बेटे को साथ लाएँ। 

उस दिन के बाद से मैंने पापा के व्यवहार में बहुत बड़ा अंतर देखा लेकिन उन्हें मुझसे एक अजीब क़िस्म की खुन्नस उनमें पैदा हो गई थी। अठारह साल से तीस साल तक, दिवाली और होली के बाद मैं अपने बारे में पास-पड़ोस और रिश्तेदारों से सुनती कि पापा कहते हैं—मेरा चरित्र सही नहीं है; मैं अँग्रेज़ी बोलकर, इशारों-इशारों में किसी को भी फँसा लेती हूँ। डॉक्टर को मैंने अपने क़ाबू में करके पापा के ख़िलाफ़ कर दिया। मैं बहुत तेज़ हूँ। शुरुआत में यह सब सुनकर मुझे रोना आता था, लेकिन अनुभव ने उसी भाव पर हँसना सिखा दिया। इहबास इन सालों में एक बेहतरीन हॉस्पिटल बना रहा और डॉक्टर ओमप्रकाश वहाँ के निदेशक हुए, फिर डीन बने। इतने सालों में उनके साथ-साथ मैंने भी एक यात्रा की और समझ सकी कि एक व्यक्ति जब लगन और प्रेम से अपना काम करता है, तो फ़र्क़ पड़ता है। 

दिसंबर 2012 में क़रीब दो-ढाई हफ़्ते इहबास में पापा के साथ रह रही थी। मैं अपनी कंपनी की आईएसओ की ऑडिट में जाने के लिए कोट पहन ही रही थी कि फ़रीदाबाद के ख़ान हॉस्पिटल से मुझे फ़ोन आया कि कोई रोशन लाल है जिसका एक्सीडेंट हो गया है और हम वहाँ जल्दी आएँ। 

वह चक्कर खाकर पत्थरों पर गिरे थे जिससे उनकी जीभ लगभग कट गई थी। मैं मामा के साथ वहाँ पहुँची। माहौल पहले से ही अभिशप्त-सा था। मैं पापा को देखकर उनके पास गई, उन्होंने मुझे पुकारने के लिए मुँह खोला तो ख़ून का फ़व्वारा निकला; साथ ही लगभग पूरी कटी हुई जीभ बाहर लटक गई। मैं बुरी तरह से डरकर चिल्लाई कि डॉक्टर देखो यह क्या रहा है! एक वार्ड बॉय ने जीभ अंदर करके एक कपड़ा उनके मुँह में ठूँस दिया और मुझे बाहर जाने के लिए इशारा किया। कुछ घंटे बाद उनकी जीभ को 92 टाँकों से जोड़कर उन्हें जनरल वार्ड में उन्हें शिफ़्ट कर दिया गया, लेकिन उनके मुँह से ख़ून का रिसना बंद ही नहीं हो रहा था। एक से दो बार डॉक्टर देख कर गए लेकिन कोई उपचार संभव नहीं हुआ। आख़िर में अगले दिन उन्हें हॉस्पिटल से छुट्टी देकर वहाँ के डॉक्टर्स ने अपनी सरदर्दी दूर कर दी कि यह दिमाग़ी मरीज है इनका इलाज किसी दिमाग़ी डॉक्टर से करवाएँ। 

शाम तक एक लाख रूपए का क़र्ज़ लेकर फ़रीदाबाद के सबसे बढ़िया न्यूरोसर्जन से मिलने का समय मिला। हम डॉक्टर के आने का इंतिज़ार कर रहे थे कि इतने में मेरा मंझला भाई (जिस पर पापा के व्यवहार और मारपीट का सबसे अधिक असर यूँ पड़ा कि वह दिमाग़ी मरीज के आस-पास की बीमारी से ग्रस्त रहकर, शराबी बन चुका था) बाहर गाड़ी में से चिल्ला रहा था : “रोशन लाल तू मरना नहीं चाहिए, तुझे मैं बचाऊँगा। अगर इस डॉक्टर ने कुछ नहीं किया तो इसे यम नगरी पहुँचा दूँगा।” 

डॉक्टर ने आते हुए सारा तमाशा देखा, पापा का एक से दो मिनट देखा और कहा : “आप किसी बड़े हॉस्पिटल में इन्हें दिखाएँ, हमें इसका कारण समझ नहीं आ रहा।” मुझे समझ नहीं आया कि वे मेरे भाई की रवैये से घबरा गए थे या फिर सचमुच स्थिति उसकी समझ से परे थी। 

हम अपनी फ़ाइल सँभाल कर एम्स की ओर दौड़ गए। इसी बीच मैंने भाई को कॉल करके कहा कि हॉस्पिटल के बाहर ही रहना नहीं तो डॉक्टर हमें भगा देगा। एम्स के इमरजेंसी वार्ड में बीमार और तीमारदार बिखरे हुए थे। उन्हीं में नवेले डॉक्टर्स अपनी आर एंड डी में तरह-तरह के औज़ार मरीजों पर आज़मा रहे थे, लगभग आधे घंटे बाद एक सीनियर डॉक्टर बर्न वार्ड से एस्ट्रोनाड जैसा सफ़ेद सूट पहने पापा के पास आकर, मुँह का जायज़ा लेने लगा। महज़ दो मिनट बाद उसने कहा : “इनके जबड़े और होंठ के बीच बड़ा कट लगा हुआ है, उस कटे हुए हिस्से से लगातार ख़ून बह रहा है, वहाँ टाँके लगने की स्थिति नहीं है इसलिए बीटाडीन की एक पट्टी होंठ और जबड़े के बीच फँसा दो।” 

ख़ून बंद हो गया। मैंने पापा का चेहरा देखा और फिर लाख रूपए को देखकर पर्स की चैन बंद करते हुए गहरी साँस ली और सोचा कि कितनी आसानी से निपटी पहाड़ जैसी समस्या। निवारक हर कोई नहीं हो सकता, अनुभव और पैसा भी नहीं। कुछ ख़ास ताले, ख़ास समय पर, ख़ास हाथों द्वारा, ख़ास चाबी से ही खुलने के लिए ही बने होते हैं। मुझे उस डॉक्टर का नाम और चेहरा नहीं याद लेकिन वह क्षण हमेशा के लिए यादगार बना रहेगा। 

घर लाने के बाद पापा की तबियत अलग तरह से बिगड़ने लगी। नींद या दर्द की आम दवा उनके शरीर पर काम ही नहीं कर रही थी। जीटीबी, ईएसआई दिल्ली, आरएमएल में धक्के खाने के बाद कोई हॉस्पिटल पापा को रखने के लिए राज़ी नहीं था। आख़िरश इहबास में मान-मनुहार और लंबे इंतिज़ार के बाद इमरजेंसी में उन्हें एडमिट कर लिया गया। 

वहाँ इहबास में एक नियम सबसे अहम था, आप अपने मरीज के साथ हमेशा साए की तरह रहेंगे, नहीं तो आपको भगा दिया जाएगा; इस वजह से मैं पहली बार इमरजेंसी वार्ड में सोई, पुरुष शौचालय के दर्शन किए, पापा का मल-मूत्र साफ़ किया, बीमारों का खाना खाया। दवा का असर जैसे ही ख़त्म होता पापा लगातार बड़बड़ाने लगते जिससे जीभ के टाँकों से ख़ून निकलने लगता। वह खाने-पीने की चीज़ माँगने लगते, चिल्लाने लगते, फिर उन्हें तेज़ इंजेक्शन देकर बेहोश कर दिया जाता। 

इहबास का इमरजेंसी वार्ड लगभग एक मॉडर्न जेल की तरह था। आठ से दस पुरुष और महिला गार्ड वॉर्ड में तैनात होते। पेशेंट एक निश्चित दायरे से बाहर नहीं जा सकते और तीमारदार को उसके साथ रहना ज़रूरी होता। इमरजेंसी वॉर्ड में बिताए सात दिनों में मैंने कई मौतें देखी, लडाईयाँ, मार-पिटाई, गाली-गलौज जैसे अलग-अलग अनुभव जीवन में शामिल हुए। वहाँ सबसे बड़ी दो सुविधा इमरजेंसी वॉर्ड में थीं कि डॉक्टर हर समय हॉस्पिटल में उपलब्ध रहते और पापा के बिस्तर के साथ मुझे भी सोने के लिए एक सट्टी (एक बेंच) मिल जाती। 

सात दिन बाद पापा को जनरल वार्ड में भेज दिया जाना तय हुआ, जहाँ सट्टी ग़ायब थी और वहाँ डॉक्टर्स भी एक निश्चित समय पर ही आते थे। नवेले डॉक्टर्स की वहाँ धूम थी, वे दिन में कई दफ़ा पापा पर एक्सपेरिमेंट करने वह आते,  मुझसे तमाम सवाल पूछे जाते कि वह कबसे बाइपोलर हैं? कबसे दवा खा रहे हैं? कब इनका स्वभाव बदल जाता है? कब दवा काम करना बंद करती है? मौसम का क्या असर होता है? बीस-बाईस सालों में कितने हॉस्पिटल बदले? इलेक्ट्रिक शॉक लगने कब शुरू हुए, फिर क्या असर रहता उन पर, कब बंद हुए? बीस वर्षों से वेल्पलिन दवा खाने से हाथ तो नहीं काँपते इनके? यह-वह... आदि-अनादी जो समझ आता वे सब पूछ रहे होते थे। पहले मुझे अच्छा-सा लगता कि मेरे पापा पर रिसर्च हो रही है लेकिन फिर मैं जल्द उकता गई। कोई बहाना बनाकर नवेले डॉक्टर्स से पीछा छुड़ा लेती थी क्योंकि रोज़ ही कोई नया प्रैक्टिशनर सवाल की पोथी लिए हुए आ जाता। 

जनरल वॉर्ड में मैं सिर्फ़ दिन के वक़्त रहती क्योंकि वहाँ बहुत उठापटक थी। पुरुष वार्ड में कोई महिला नहीं थी, तीमारदार भी सभी पुरुष। कुछ पुरुषवृति कुछ बीमारी, वे अजीब तरह से घूर कर देखते थे। वहाँ कुछ ख़ास क़िरदार थे जो मेरे ज़ेहन में जस-के-तस चस्पा हैं—जैसे कि रोहित (किसी नेता का बेटा), पापा के साथ ही वह जनरल वार्ड में आया और रात को उसने वॉर्ड बॉय और एक तीमारदार का सर लहू-लुहान कर दिया था इसीलिए उसे पैडरूम में बंदी बनाकर रख दिया गया। रोहित वाले प्रकरण ने मुझे इतना ख़ौफ़ज़दा कर दिया कि मैंने अपने भाई को फ़ोन करके पापा के साथ एक दिन रुकने को कहा। देर रात तक वह नौकरी से आया, एक सुंदर-सी लड़की (जिसका नाम मैंने अंजलि रखा) जब चाहे हमारे या हर वॉर्ड में घुसी चली आती और अपनी मीठी आवाज़ में गाने गाती, नई उम्र के लड़कों को रिझाने के प्रयास में लगी रहती। उसके प्रेमी ने उसे धोखा दिया जिस कारण से वह ऐसी हो गई थी। 

जनरल वार्ड में मुझे थोड़ा इधर-उधर टहलने की आज़ादी थी। मैं महिला वार्ड में जाती, मेटरनिटी वार्ड में महिलाओं से मिल कर आती। कुछ जो आक्रमक होती उसके प्रति पहले ही दूसरी महिलाएँ सचेत कर देती कि फ़लाना बेड वाली से मत मिलना, मुँह नोच लेती है, चोटी खींच लेती है, हो सकता है काट भी खाए। एक दो दिन में मुझे सब समझ आ गया था। पापा को पार्क में टहलाने भी जाना होता, दुपहर की धूप में सभी मरीज पार्क में बैठते, वॉर्ड बॉय से मुझे पता चलता कि उस महिला को अल्जाइमर है, उसे सीज़ोफ़्रेनिया है। वहाँ एक महिला थी मृगतृष्णा, किसी रईस परिवार से थी—दो वॉर्डबॉय उसके साथ रहते, हर समय उसकी सेवा के लिए। वह सीबीआई में किसी ऊँचे ओहदे पर थीं लेकिन दिमाग़ी बीमारी के चलते, वह महाभारत काल में ही रहती। डॉक्टर, वॉर्ड बॉय या आसपास के लोगों को उसी काल के नामों से बुलाती। कृष्ण, दुर्योधन, अश्वत्थामा आदि। 

हमारे जाने के कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। मैटरनिटी वार्ड में एक गर्भवती महिला थी, जो मुझे हर समय कुछ-न-कुछ खाते हुए ही दिखती। एक दिन वॉर्ड वाली से मैंने पूछा कि यहाँ कबसे है? बोला आठ साल से, मैंने चंद क्षण चुप रह कर फिर पूछा, यह बच्चा? बग़ल वाली ने ताना मारते हुए कहा : “औरत औरत होती है और मर्द मर्द।” मैंने फिर कहा कि किसी ने इसकी शिकायत नहीं की, यह तो बलात्कार भी हो सकता है। बग़ल वाली ने जवाब दिया, “कौन, कैसे साबित करेगा यह सब।” इसके घरवाले इसे यहाँ पटक गए हैं, कोई पुछवे वाला नहीं है, क्या पता यह सब इसकी इच्छा से ही होता हो, औरत औरत होती है और मर्द मर्द, समझी!”

वहाँ एक लड़का भी था, जो रोज़ पार्क में दिख जाता, इंजीनियरिंग का छात्र था। उसकी माँ उसके साथ ही रहा करती थी, उनसे पता चला घर की ग़रीबी और रैगिंग के कारण वह ऐसे मानसिक दबाव में पहुँच गया था। जैसी उदासी और चुप्पी मैंने उस लड़के के चेहरे पर देखी थी वह आज तक कहीं और दिखी ही नहीं। यदा-कदा डॉक्टर ओमप्रकाश भी किसी वॉर्ड में टहलते हुए दिख जाते। दस-बारह वर्षों में उन्होंने में भी मुझे पहचानना शुरू कर दिया था, वह कभी-कभी पापा के बारे में पूछ लेते थे। लगभग 16 दिन बाद पापा को वहाँ से छुट्टी मिली और दिसंबर 2012 पापा के साथ इहबास में यूँ बीता।

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