त्याग नहीं, प्रेम को स्पर्श चाहिए
पायल भारद्वाज
13 सितम्बर 2025

‘लगी तुमसे मन की लगन’— यह गीत 2003 में आई फ़िल्म ‘पाप’ से है। इस गीत के बोल, संगीत और गायन तो हृदयस्पर्शी है ही, इन सबसे अधिक प्रभावी है इसका फ़िल्मांकन—जो अपने आप में एक पूरी कहानी है। इस गीत का वीडियो फ़िल्म की स्टोरी लाइन, उसके बेसिक थॉट को बहुत प्रभावशाली तरीक़े से दर्शकों पर उजागर करता है।
फ़िल्म में उदिता गोस्वामी ने काया और जॉन अब्राहम ने शिवेन का किरदार निभाया है। काया कविताएँ लिखने वाली, गीत गाने वाली, फूलों, रंगों और ख़ुशबूओं को प्रेम करने वाली, सपने देखने वाली एक लड़की है जो जीवन को भरपूर जीना चाहती है। उसके भीतर सृजनशीलता की संभावनाएँ हैं, अपने होने को परखने और पहचानने की ललक है। परंतु वह एक कठोर और अनुशासित पिता के संरक्षण में पली बढ़ी है। उसे आध्यात्मिक जीवन के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
काया बौद्ध मठ जाकर परम सत्य और आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु अनुशासित और प्रतिबद्ध जीवन जीने के लिए मजबूर है।
“सब कुछ नश्वर है, सब वृथा है, त्याग ही सर्वोपरि है; इसलिए सत्य की खोज में सबसे पहले इच्छाओं का त्याग करना होता है” : पिता की ऐसी शिक्षा के अनुकूल स्वयं को ढालने की कोशिश करती काया का दुविधाग्रस्त, इत-उत डोलता मन उसे बेचैन करता है।
एक ओर जीवन की सहज आकांक्षाएँ हैं—प्रेम करना, प्रेम पाना, गीत-संगीत, कविताएँ और मन की असीम उड़ान। दूसरी ओर पिता की शिक्षा, इच्छा और कठोर अनुशासन, जो जीवन को नश्वरता और त्याग के चश्मे से देखता है। इस द्वंद्व में फँसी काया की आत्मा दुविधाओं में झूलती रहती है।
शहर से आया पुलिस अफ़सर शिवेन यथार्थवादी सोच का व्यक्ति है। वह प्राप्त जीवन को पूर्णरूपेण जीने में विश्वास करता है। वह काया की दुविधा और बेचैनी को पहचानता है। काया के मन को समझने वाला शिवेन उसकी सादगी और निश्छलता पर मोहित है।
गीत की शुरुआत वहाँ होती है जहाँ काया और शिवेन एक-दूसरे के प्रति आकर्षण को पहचानने व एक-दूसरे पर ज़ाहिर करने लगते हैं। उनकी देहयष्टि और दृष्टि के बीच एक मूक संवाद चल रहा है। काया की अनवहेलनीय उपस्थिति शिवेन को उसकी ओर खींच रही है और शिवेन का अस्तित्व काया के अंतर्मन में उजास फूँक रहा है।
काया की आँखों में उसका सच ढूँढ़ती शिवेन की गहरी लाल आँखें काया के मन के लगभग ठहरते पानी में जैसे पत्थर फेंक देती हैं। शिवेन की आँखों में काया के लिए जीवन का आमंत्रण है और वह आमंत्रण किसी वासना का नहीं, बल्कि जीवन के सामूहिक अनुभव का है। उसके हाव-भाव में साथ, स्पर्श, प्रेम और प्रणय की प्रबल इच्छा तो है, परंतु वह वासना नहीं कि जिससे घिनाकर या आतंकित होकर स्त्री स्वयं को छिपाना चाहे; बल्कि ऐसा विनय और समर्पण है कि जिसके वेग में स्त्री स्वयं को बहाना चाहे, प्रेम करना व अपने होने को पहचानना चाहे। उसकी दृष्टि काया के लिए उस दरवाज़े की तरह है, जिसके पार जीवन हँसता, खिलखिलाता है और संपूर्णता में प्रकट होता है।
यहाँ शिवेन केवल एक प्रेमी नहीं, बल्कि जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण का प्रतिनिधि है। एक ऐसा प्रेमी जो कहता है कि जीवन केवल त्याग नहीं, बल्कि उसमें साथ, स्पर्श और प्रेम का होना भी उतना ही पवित्र है—जिसके केंद्र में प्रेम, सहयोग और साझेदारी है।
भारतीय परंपरा में अक्सर स्त्री-पुरुष संबंध को दो छोरों पर बाँट दिया गया है। एक ओर वासना, पाप और मोह का बंधन; दूसरी ओर त्याग, संयम और तपस्या का आदर्श। परंतु ‘लगी तुमसे मन की लगन’ जैसे गीत इस विभाजन को तोड़ते हैं। गीत का चित्रण दिखाता है कि प्रेम, स्पर्श और आकांक्षाएँ वासना की निम्नता नहीं, बल्कि जीवन की सहजता और पवित्रता हैं।
शिवेन का प्रेम, प्रेम का वह रूप है जिसमें स्त्री स्वयं को छिपाने की बजाय पहचानना चाहती है। यहाँ स्त्री की स्वतंत्रता और उसकी सहमति सर्वोपरि है। यही आधुनिक सामाजिक संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है—प्रेम का अर्थ केवल शारीरिक आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा की साझेदारी भी है।
गीत की सबसे गहन परत तब खुलती है, जब शिवेन की ओर खिंचती, बहती काया छिपाकर रखे दर्पण में स्वयं को निहारती है। अपनी कल्पना में शिवेन की उँगलियों का स्पर्श अपने चेहरे पर महसूस करते हुए, वह अपने मन के उस कोने में झाँकती है जहाँ उसने अपनी कामनाओं को बलात् दबाकर रखा है।
उस कोने में उसे बाहुपाश में कसकर यहाँ-वहाँ चूमता हुआ, प्रेम करता हुआ, उसे उसके अस्तित्व से मिलाता हुआ शिवेन है। हवा से बातें करती हुई उसकी खुली केशराशि है, उसकी कविताएँ हैं और नदिया की तरह कल-कल बहता जीवन है। मन की मौज में गोते लगाती काया शिवेन के अँकवार में हँसती खिलखिलाती है। प्रेम के जुगनू उसके अंग-प्रत्यंग में जल रहे होते हैं कि एकाएक मोह भंग होता है—याद आता है बौद्ध मठ, याद आते हैं पिता, याद आती है उनकी शिक्षा : “सब नश्वर है, सब व्यर्थ है, और कामनाएँ पाप”
मनोविज्ञान की भाषा में कहें तो शिवेन के आकर्षण से काया का निग्रह या दमन चक्र टूट जाता है। अवचेतन में पैठी उसकी दमित इच्छाएँ बलवती होने लगती हैं। वह जब कल्पना में शिवेन की बाहों में जाती है तो पहली बार अपने अस्तित्व को संपूर्णता में महसूस करती है। उसके खुले बाल, उसकी कविताएँ, उसका खिलखिलाकर हँसना—ये सब उस आत्म-स्वीकृति का प्रतीक हैं जो प्रेम के अनुभव से ही संभव होती है। परंतु चेतना लौटते ही दमन चक्र पुनः हावी होने लगता है।
यह रिप्रेशन (दबाव) केवल उसका निजी अनुभव नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक व्यवस्था का प्रतिरूप है। स्त्रियों को अक्सर सिखाया जाता है कि उनकी इच्छाएँ, उनकी कामनाएँ पाप हैं। धर्म, संस्कृति और परिवार की मर्यादाएँ उन पर यह बोझ डालती हैं कि वे केवल संयम और त्याग की प्रतिमूर्ति बनें।
काया का मोहभंग केवल उसकी व्यक्तिगत पीड़ा नहीं है, बल्कि उस परंपरा की विडंबना है जिसमें मनुष्य को अपनी सहज इच्छाओं से वंचित किया जाता है।
यहाँ प्रश्न उठता है—क्या वास्तव में कामनाएँ पाप हैं? क्या जीवन का उद्देश्य केवल इच्छाओं को त्यागना है? या फिर इच्छाओं का परिष्कार करके उन्हें प्रेम और करुणा में बदलना ही सही साधना है? क्या त्याग से परिपूर्ण जीवन ही पवित्र है या जीवन पाप-पुण्य की परिभाषाओं से परे की कोई चीज़ है? क्या दमित इच्छाओं का दंश मन में लिए जबरन थोपे गए संन्यास से मानव जीवन का कल्याण संभव है? स्वयं को जीवन को सौंप देने और जीवन को उसकी संपूर्णता में स्वीकार करना क्या साधना का ही एक रूप नहीं है?
समाज में अक्सर त्याग को सर्वोच्च आदर्श मान लिया गया है। त्याग निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है—वह लोभ, स्वार्थ और आसक्ति से मुक्त करता है। परंतु जब त्याग का अर्थ जीवन की सहज इच्छाओं का दमन बन जाता है, तब वह विकृति का रूप ले लेता है। काया इसी दार्शनिक असंतुलन की शिकार है। उसका द्वंद्व हमारी सामाजिक संरचना का आईना है। शिवेन का प्रेम जीवन की पूर्ण सहजता का प्रतीक है। वह उस संभावना का पर्याय है जिसमें स्त्री और पुरुष समान भाव से एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करें।
यदि केवल त्याग को थामा जाए तो जीवन सूखा और बंजर हो जाता है और यदि केवल भोग में डूबा जाए तो वह उथला और अशांत हो जाता है। सहज मानवीय संवेगों को साधना का हिस्सा मान उन्हें बाधक मानकर नहीं बल्कि साधकर मनुष्य अपने अस्तित्व का संपूर्ण परिचय पा सकता है।
जीवन दर्शन के इसी पक्ष की वकालत फ़िल्म भी अपने अंतिम दृश्य में करती दिखाई देती है, जहाँ काया का पिता अपनी कठोरता, अनुशासन और अपने फैसले व अपनी इच्छाएँ काया पर थोपने के लिए काया से माफ़ी माँगते हुए उसे उसकी स्वतंत्रता, उसका जीवन यह कहते हुए लौटा देता है कि “दुख यह नहीं है कि सब कुछ नष्ट हो जाता है, हम नष्ट हो जाते हैं बल्कि दुख यह है कि हम जीते जी प्रेम करना छोड़ देते हैं। मैंने तुमसे प्रेम करना छोड़ दिया और इसलिए तुम्हारी सबसे मूल्यवान चीज़, तुम्हारी पूँजी; तुम्हारी स्वतंत्रता तुमसे छीन ली। आज वह पूँजी मैं तुम्हें लौटा रहा हूँ” और काया क़ैद से छूटे किसी पंछी की भाँति मुक्त आकाश रूपी शिवेन के आलिंगन में समा जाती है।
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