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विनोद कुमार शुक्ल : 30 लाख क्या चीज़ है!

जनवरी, 2024 में मैंने भोपाल छोड़ दिया था। यानी मैंने अपना कमरा छोड़ दिया था। फिर आतंरिक परीक्षा और सेमेस्टर की परीक्षाओं के लिए जाना भी होता तो कुछ दोस्तों के घर रुकता। मैं उनके यहाँ जब पहुँचा तो पाया कि विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) की एक किताब की तीन प्रतियाँ रखी हैं। पूछने पर पता चला एक सचिन की है, एक अभिषेक की है और एक अंकित की। मैंने मेरी प्रति दिल्ली में छोड़ दी थी, इसलिए मैंने सचिन की दो किताबें उड़ा दी और बदले में दूसरी किताबें लौटाई। किताबों की अदला-बदली कर पढ़ने का एक अलग सौंदर्य है। आतिश भैया, शाश्वत भैया, राकेश जी और जिनसे भी मिलता, उनकी लाइब्रेरी में विकुशु की किताबें दिखती-ही-दिखती।

अच्छा एक दिलचस्प बात यह कि मुर्तुज़ा भाई फ़ैज़ाबाद से हैं और ट्रेन में भोपाल से लखनऊ आने के दौरान ही उनसे मुलाक़ात हुई थी। वह मैनिट में कंप्यूटर-साइंस से इंजीनियरिंग कर रहे थे। अभी फ़िलहाल बेंगलुरु में वह एक अच्छी तकनीकी कंपनी में इंजीनियर हैं। अपने जन्मदिन पर उन्होंने मुझे आमंत्रित किया था। उनके यहाँ गया तो देखा कई मोटी-मोटी किताबों के बीच—‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ झाँक रही थी, ‘केवल जड़ें हैं’ और ‘अतिरिक्त नहीं’—झिलमिला रहे थे। मैंने कुछ और तलाशना चाहा, जिसमें ‘रश्मिरथी’, ‘गुनाहों का देवता’, ‘उसके हिस्से की धूप’, ‘कसप’, और ‘पानी को सब याद था’ सहित कई सारी प्रतिनिधि कविताओं और न जाने कितनी और किताबें थीं, जो समयाभाव की वजह से मैं देख न सका। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ से एक हिस्सा पढ़कर सुनाया भी था। ऐसे ही मेरे एक अनन्य साथी अजीत पांडेय—जो कि भारतीय तकनीक संस्थान, मंडी से पढने के बाद, शोधकार्य के सिलसिले में भारतीय प्रबंध संस्थान, उदयपुर से संबद्ध थे—ने कहा कि ‘नौकर की क़मीज़’ पढ़ते हुए सोचा आपको फ़ोन कर लूँ।

इतने अलग-अलग संदर्भों में केवल एक समानता है कि मुझे छोड़कर कोई भी साथी हिंदी की तथाकथित अकादमिक दुनिया से कभी जुड़ा नहीं रहा—जिसमें मैं केवल स्नातक, परास्नातक और शोध आदि को गिन रहा हूँ। फिर भी वे हिंदी पढ़ रहे हैं, कवि की कविता पढ़ रहे हैं और लेखक का गद्य भी।

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2 अप्रैल, 2025 को मैं भोपाल से कुछ दिनों के लिए रायपुर गया था तो मेरी इच्छा हुई कि विकुशु के इतने पास आकर, इतनी दूरी न बरती जाए। गिलहरी, चिड़ियाँ, पेड़-पत्ते और फूल के नाम बदलते पते पर मैं घूम आऊँ। ऐसे पते पर घूम आऊँ कि जिसका नाम मनुष्यों, महात्माओं और नेताओं का न हो। जो चिड़ियाँ, पेड़ और गिलहरी के नाम का पता हो, जिससे घबराकर भाषा के लोग ग़लती करने लगते हैं।

गली में, गली नहीं सड़क से मुड़ते हुए कोने में नीले बोर्ड पर लिखा है—संत कँवरराम नगर, गली नंबर ग्यारह और अँग्रेज़ी में लिखा है—कटोरा तालाब, गली नंबर ग्यारह। सामने एक मंदिर भी है, जो दिखा नहीं। मैं कला-साहित्य प्रेमी राहुल के साथ उस पते पर पहुँच चुका था। राहुल ने दरवाज़े से प्रवेश करते हुए कहा “हमें तो यह पता याद नहीं रहता। बड़-झाड़ के पेड़ याद रहते हैं, वहाँ आकर रुक जाता हूँ।”

मैंने सचिन से ली हुई विकुशु की किताब पर उनके हस्ताक्षर का अनुरोध किया। उन्होंने किताब और उसके संस्करण देखने शुरू किए और कहा “वाणी से छपी किताबें अब अवैध हैं। मैं उनपर हस्ताक्षर नहीं करता। मेरी प्रति वाणी से नहीं थी।”

मैंने इसकी वजह जाननी चाही तो उनके बेटे शाश्वत, एक मोटी फ़ाइल उठा लाए जिसमें उन्होंने सभी पत्राचार का बाक़ायदा प्रिंट रखा हुआ था। उन्होंने हमें बताया कि मार्च 2022 में दादा (शाश्वत अपने पिता विनोद कुमार शुक्ल को ‘दादा’ कहकर संबोधित करते हैं) ने सार्वजनिक रूप से यह माँग की थी, कि उनके प्रकाशक—मुख्यतः वाणी प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन—उनकी पुस्तकों के अधिकार उन्हें वापस करें। उनका यह कहना था कि प्रकाशकों ने उनके साथ न्याय नहीं किया जिसमें सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि उन्हें बहुत ही कम रॉयल्टी दी गई। उदाहरण के लिए, वाणी प्रकाशन से उनकी तीन पुस्तकों पर केवल 6,000 रूपए और राजकमल प्रकाशन से पूरे साल की कमाई 8,000 रूपये मात्र रही। यानी पूरे साल की मेहनत और रचनात्मकता का आर्थिक मूल्य सिर्फ़ 14,000 रूपये आँका गया। इसके अलावा विकुशु ने यह भी कहा कि उन्हें अपनी किताबों की बिक्री का पूरा और पारदर्शी ब्यौरा कभी नहीं मिला। कई बार उनकी अनुमति लिए बिना ही नए संस्करण छाप दिए गए और ई-बुक्स (जैसे Kindle संस्करण) प्रकाशित कर दिए गए। जिन पुस्तकों के बारे में उन्होंने ख़ुद ग़लतियाँ बताकर छपाई रोकने को कहा, उन्हें भी प्रकाशित कर दिया गया। जब उन्होंने ऑडिट या बिक्री का सही हिसाब माँगा, तो उनके पत्राचार का कोई जवाब नहीं दिया गया। यह सब उन्हें बेहद अपमानजनक और अन्यायपूर्ण लगा।

इस पूरे मामले को साहित्य जगत में व्यापक चर्चा तब मिली जब लेखक-अभिनेता मानव कौल उनसे मिलने गए। कौल ने उनकी स्थिति को सोशल मीडिया पर साझा किया। फलस्वरूप यह विवाद ज़्यादा लोगों तक पहुँचा, जिसके बाद यह मुद्दा हिंदी साहित्य की दुनिया में चर्चा का विषय बन गया कि इतने बड़े लेखक के साथ भी अगर ऐसा हो सकता है, तो नए और छोटे लेखकों की स्थिति कितनी दयनीय होगी।

यह सर्वविदित ही है कि हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रकाशन की दुनिया में पारदर्शिता की कमी एक आम बात है। अक्सर अनुबंध (contracts) इतने जटिल और पक्षपाती होते हैं कि लेखक शर्तों को समझ ही नहीं पाते। डिजिटल युग में जब ई-बुक्स और नए संस्करणों की बिक्री लगातार बढ़ रही है, तब इन अधिकारों को लेकर और भी गड़बड़ी होती है। अँग्रेज़ी प्रकाशन जगत की तुलना में भारतीय भाषाओं में यह समस्या कहीं अधिक गहरी है।

विनोद कुमार शुक्ल, 30 लाख रुपये की रॉयल्टी, हिन्द युग्म प्रकाशन और शैलेश भारतवासी। 

कुल मिलाकर मेरा ऐसा मानना है कि किताबें तो बिकी हैं। इसके लिए लेखक, प्रकाशक और संस्थान से जुड़े विपणन के लोगों को बधाई मिलनी चाहिए कि किसी प्रकाशक ने साहस करके कोई आँकड़ा सार्वजनिक रूप से साझा किया और बीच-बीच में वे सोशल मीडिया के ज़रिए इसकी जानकारी भी साझा करते रहे। जो लोग इस सच से कतराते हैं, वे दरअस्ल उसी साम्राज्य की रक्षा कर रहे हैं जिसने वर्षों से लेखकों को हाशिए पर धकेल रखा है—जहाँ पांडुलिपियाँ बरसों धूल फाँकती रहती हैं।

मुझे इतने दिनों में इस बात का तो अनुभव हुआ ही है कि अकादमिक दुनिया के लोग अपनी प्रोफ़ेसरी के छोटे-छोटे झोले में इतनी बड़ी-बड़ी बातें अँटा ही नहीं पाते, क्योंकि उसमें होती हैं—प्रोफ़ेसरी की बंदूक़। बंदूक़ और किताबें एक साथ नहीं रहतीं। हिंदी विभाग के पंडों के, अपने विभाग में हो रहे धाँधली और भ्रष्टाचार पर शब्द हेरा जाते हैं और कान मानो कान न हों, सूप हों।

हालाँकि मैं इसके लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं कि यह बता सकूँ कि कहाँ के पाठ्यक्रम में क्या लगे और न ही मैं हिंदी का पाठ्यक्रम पढ़ने वाला एक सामान्य विद्यार्थी रहा। लेकिन स्नातक के दिनों में ही विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम देखने के दौरान मुझे इक्के-दुक्के विश्वविद्यालयों में दिखा, जिसमें कौन-कौन से विश्वविद्यालय शामिल थे—उनके नाम भी अब याद नहीं।

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हमलोग विकुशु के बैठकख़ाने में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। शाश्वत ने कहा “मैं दादा को लेकर आ रहा हूँ।” उनका आना हल्की-हल्की हवा का आना था। पूरी जगह में, हर जगह उनकी मौजूदगी थी। उनका स्पर्श, उनकी चेतना उस हवा के साथ तैर रही थी। मुझे सामने खड़े कवि की ही पंक्ति याद आ रही थी—
            
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा

पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।

जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा—
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।

मेरा ध्यान राहुल के प्रश्न से टूटा।

राहुल : आपकी पसंद की कोई सियाही, क़लम या पन्ना, जिसपर लिखना आपको पसंद हो?

विकुशु : नहीं! नहीं! ऐसा कुछ नहीं है। ये (अपने बेटे शाश्वत की ओर संकेत करते हुए) जो कुछ दे देता है, उस पर ही लिख लेता हूँ।

राहुल : अगर लंबा लिखना होता है तो काट-छाँट भी होती होगी?

विकुशु : एक पैड है। पैड में काग़ज़ लगे हुए हैं। उसमें लिखना और काटना होता रहता है। पीछे कुछ देखना होता है तो पन्ने पलटाकर देख लेता हूँ। मिलाता रहता हूँ, डूबा हुआ रहता हूँ।

मैंने पूछा : पढ़ने में आपको किन-किन लोगों को पढ़ना पसंद है?

विकुशु : अरे नाम-वाम तो अब याद नहीं रहते। पत्र-पत्रिकाओं में जो आ जाता है, जो अच्छा लगता है। कई बार कुछ लिखे हुए के कुछ ही हिस्से अच्छे लगते हैं, बाक़ी हिस्से अच्छे नहीं लगते—ये भी होता है।

राहुल : शास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन?

विकुशु : हाँ ये पहले पढ़ता था; अब नहीं पढ़ता। बड़ी मोटी-मोटी क़िताबें हैं, मैं तो उनको सँभाल भी नहीं सकता। लेकिन जादुई लेखन की परंपरा उस काल से बनी हुई है। हमारे यहाँ जादुई लेखन आयातित नहीं है, यह यहीं की है।

मैंने पूछा : आपकी रचनाओं के पात्रों के बारे में कुछ बताइए। ये कहाँ से आते हैं?

विकुशु : मेरी ज़िंदगी जाने-पहचाने पात्रों के साथ जो बीती—उसी के अनुसार मैंने लिखा। मेरा लिखा सारा आत्मकथात्मक ही है। जो भी लिखा है उसके सारे पात्र मेरी ज़िंदगी में आ चुके हैं। मान लो उपन्यास में जो मैं चरित्र का निर्माण करता हूँ; पात्रों के रूप में वो एक ऐसी स्थिति में आ जाते हैं कि वे पात्र मुझपर हावी होने लग जाते हैं। फिर मैं लिखना शुरू करता हूँ। अगर मैं अपने हिसाब से लिखता हूँ, तो पात्र मुझे रोक देते हैं।

राहुल ने पूछा : अपनी रचना में आप घर के विविध प्रसंग लेते हैं।

विकुशु : घर वो जगह है, जो बाहर का एहसास बहुत सच्चाई के साथ कराता है। जब हम घर से बाहर निकलते हैं, हमको तब मालूम नहीं होता कि बाहर को कैसे अपने से अलग किया जाय। तब फिर घर की याद आती है कि घर जिस तरह बाहर निकलने के लिए है; उससे कहीं ज़्यादा लौटने के लिए है और हम घर की तरफ़ लौटकर आते हैं, तो बाहर को बाहर छोड़ देते हैं।

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