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चिट्ठीरसा : कुछ परंपराओं का होना, जीवन का होना होता है

डाकिया आया है। चिट्ठी लाया है। ये शब्द अम्मा को चुभते थे। कहतीं चिट्ठीरसा आए हैं, बड़ी फुर्ती से उस दिन ओसारे से दुआर तक पहुँचतीं, जैसे कोई किसी अपने का इंतिज़ार करते माला जप रहा हो, और ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली हो। 

अम्मा आश्वस्ति भरी साँस लेकर कहतीं, ‘‘देखा आज केकर सनेसा...’’

एक तेज़ आवाज़ आती, ‘‘कोनो सुनत अहे चाय पानी अबही तक नाही आई!’’

‘चिट्ठीरसा’ की ऐसी आवभगत करतीं अम्मा, जैसे वह उनका रिश्तेदार हो।

‘‘बेटवा भेनुसार से उठत होबा, केतना थक जात होबा। येहर से आवत घर भुला जिन करा, बिना चिठ्ठी के आइ जावा करा।’’ फिर बेना डुलाने लगतीं, ‘‘ई बिजिली नाम के अहे, बेना न होई तो गर्मी में जिऊ न बचई मनई के।’’ चिट्ठीरसा का पूरे घर-परिवार हाल चाल लेने के बाद, अम्मा पूछतीं, ‘‘अमेरिका से चिट्ठी आई होई...’’ फिर ऐसे ख़ुश होतीं, जैसे परदेस से कोई घर आ गया हो। वह ख़ुश होकर बतातीं, ‘‘एक हमर भइया (पापा) और एक ये दुइनो भइया (बड़े मामा, मँझले मामा) रिश्ता निभावई जानत हैं। बहिन राखी भेजेस, भईया तुरंत जवाब देहेस इहई तो असिल रिश्ता होई।’’ 

एक बार मेरी कोई चिट्ठी आई। उस रोज़ तो अम्मा ख़ुशी के मारे हँस-हँस के दुहरी हो गईं! वह जब ख़ूब हँसतीं, तो कोयल की के-के बचती... हम शैतान उन्हें चिढ़ाते तो ख़ूब गुस्सा होती थीं। वह बड़े ही गर्व से सबको कहतीं, ‘‘अर्चनवा के पढ़ई-लिखई के धवन ब, पढ़े ई।’’ 

अम्मा हर रिश्ते में जान डाल देतीं। वह हर रोज़ चिट्ठीरसा को ढूँढ़ती थीं। वह उसे साइकिल की घंटी से पहचानने लगी थीं, ‘‘पानी वानी धई दे, चिट्ठीरसा आवत अहें...’’

दूर से संदेश का आना—अम्मा के लिए व्यक्ति का आना हो जाता था।

वे जो मृत थे हमारे रिश्ते में, अम्मा के रहते वे कभी मृत नहीं हुए। वह रोज़ उनको याद करतीं और उनके गुण गिनवातीं...

संदेश मिलते ही दिन भर अम्मा के चेहरे पर आनंद छाया रहता। वह भावुक होकर गातीं, ‘‘मैं न लड़ी हो मोरा राम निकरी गए...’’

डाकिया शब्द की जगह, चिट्ठीरसा मैंने भी अपना लिया।

अम्मा उस रोज़ रस से ही तो सराबोर होती थीं, जिस रोज़ उनका ‘सनेस’ कोसों मील से उन तक पहुँचता था। चिट्ठी में उनका नाम आते ही ख़ूब देर तक आशीष देतीं, ‘‘भइया बना रहा, जिया निके रहा...’’ 

अम्मा हाथ जोड़े रखतीं—हरेक की सलामती की दुआ में।

अब अम्मा नहीं हैं...

चिट्ठीरसा बदल गए हैं; पर बिना चिट्ठी के भी चिट्ठीरसा आते हैं, अम्मा को याद करते हैं। अब भी वही आवभगत होती है उनकी, अब अम्मा की जगह माँ हैं। यह परंपरा चल रही है मेरे घर में, कुछ परंपराओं का होना—जीवन का होना होता है।

चिट्ठी में बसी हमारी परम सुंदरी अम्मा (दादी) अब भी चहकती हैं, ‘‘चिट्ठीरसा आए हैं, बहुत दूर से आए हैं। पानी लाओ, बिठाओ, पिलाओ, खिलाओ...’’

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