फ़ैटी लिवर प्रतीक्षा की बीमारी है
अतुल तिवारी
17 अक्तूबर 2025

एक बड़ी घटना जिस समय घट रही थी, उस समय मैं बरौनी ग्वालियर एक्सप्रेस में थर्ड एसी के कोच में सामान चढ़ाकर हाँफ रहा था। साँस फेफड़ों के उस कोने में आसानी से नहीं पहुँच पा रही, जहाँ से ख़ून अपने हिस्से का ऑक्सीजन उठाता है। ख़ून ऑक्सीजन उठाने में देर कर रहा था। रोग से शरीर की दोस्ती बचपन से थी। अयोग्यता की लड़ाई लड़ने की शुरुआत में, बचपन से ही पता चल चुका था कि प्रिविलेज का अर्थ है शक्ति―जिसे पचाने का प्रिविलेज मुझे जन्म से मिला था। जिसे पचा पाने में उत्तर प्रदेश की बसपा सरकार में दलित और बिहार में राजद की सरकार दौरान पिछड़े चूक गए थे। या यों कहें कि वे प्रिविलेज्ड के प्रतीक-चिह्नों से ऊब गए थे। सदियों से प्रतीक्षालय में बैठे थे उनके नायक बाहर आना चाहते थे। उन्हें पता नहीं था कि शक्ति को पचाने के लिए एंजाइम ही नहीं। एक विचित्र प्रतिरक्षा प्रणाली और अभ्यास भी चाहिए होता है।
ख़ैर, अब जो भी सुपाच्य था, ऊँची आवाज़ में था। मंच पर था। डिब्बाबंद था। मंचों की ऊँचाई से मुझे खिड़कियों के शीशे याद आते। शीशे पारदर्शी होते हैं, लेकिन उन्हें पार करना लगभग असंभव होता है। ऊँची आवाज़ें भी पारदर्शी होती हैं—आप सुन तो लेते हैं, मगर भीतर प्रवेश नहीं कर पाते। पाचन-तंत्र दाँव दे रहा था। मैं डिब्बाबंद खिचड़ी मँगाने लगा। भेजने वाला चम्मच भेजना भूल जाता। पाचन जटिल हो रहा था। समोसा कैंसरकारी और आधी चम्मच चीनी को विष घोषित किया जा चुका था। लोग चीनी छोड़ रहे थे। तेल छोड़ रहे थे। चुप रहने की कोशिश और ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृतियों वाले इलाक़ों छोड़कर टू बीएचके खोज रहे थे।
...लेकिन प्रेमिकाएँ बालों को खुला नहीं छोड़ रही थीं। क्लचर से बाँध लेती थीं। उनकी ‘हम्म...’ अब सहमति का संकेत नहीं बल्कि एक स्थगन आदेश जैसा हो गया था। ‘ठीक है’ अब किसी भी दिशा में अर्थ ले सकता था। मैं इस अस्पष्टता से घबराने लगा। थर्मामीटर में पारा काँप रहा था। लोग, लोगों का सहारा छोड़कर बग़ावत कर रहे थे और फिर से सहारे की खोज में निकल पड़ते थे। यह एक तरह का शाश्वत व्यापार था। जिस समय यह सब कुछ हो रहा था, मैं फ़ोटोकॉपी वाली दुकान खोजते-खोजते ट्रैफ़िक-जाम में फँस गया था। हर ट्रैफ़िक-जाम नए दुराग्रह जन्म देता। मैं गीत का अधूरा अंत सुनकर खीझ जाता।
समय में ‘ठीक’ कम और हाथों में मोटरसाइकिल का हैंडल अधिक था। मेरे पास सड़क भी नहीं थी। न जुलूस था, न जनमत। आत्मा के कोमल और असावधान कोने में वसा जम चुका था। हालाँकि डॉक्टर ने कहा कि यह फ़ैटी लिवर है। यह भी कहा कि यह सिर्फ़ शरीर की नहीं, जीवन-शैली की बीमारी है। मैं चिंतित हुआ। मेरे सहकर्मी और मित्र चिंतित हुए। सहकर्मियों ने मसूरी जाने की सलाह दी और मित्रों ने कहा कि भोपाल बहुत पास है। मैं मसूरी और भोपाल की दूरियों को रुपयों की शक्ल में सोचने लगता। यह कोई बारह सौ रुपए का लमसम आँकड़ा था। दूरी मेरे लिए कोई भौगोलिक अवधारणा नहीं, रुपए की आकृति थी। मैं कहीं जाने की कामना करने लगा। कामनाएँ बहुत कुत्ती चीज़ होती हैं। दीर्घ सन्नाटे के साथ लौटाती हैं। भीतर की महत्त्वाकांक्षाओं को और धारदार बना जाती हैं। लिवर का फ़ैट कम नहीं हो रहा था। उसकी चिंता कम हो रही थी, क्योंकि मैं भाषा में हिचक, अटकन और चौंकाने वाले मोड़ ला रहा था। भाषा सब कुछ गड़बड़-सड़बड़ कर रही थी। मैं सुबह शाम ‘अधिक मत सोचो’ की सलाह पर हँसने लगा था। सोचना बंद करना वैसा ही था, जैसे पेट को कहना कि भूख मत लगाओ।
हर चीज़ भारी लगने लगी थी। फ़ैटी लिवर धीरे-धीरे मेरी भाषा में भी घुस आया था। शब्दों पर परत चढ़ रही थी। वाक्य मोटे होते जा रहे थे। अर्थ के भीतर चर्बी जम गई थी। हर बात में एक अतिरिक्त अल्पविराम, हर स्मृति में अनावश्यक विराम, हर इरादे में अतिरिक्त बोझ आ गया था। दरअस्ल, यह बीमारी सिर्फ़ मेरे शरीर की नहीं, पूरे बाज़ार की भी थी। हर दुकान, हर विज्ञापन, हर परामर्श, हर डायट-प्लान में वसा का ही कारोबार था। धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि फ़ैटी लिवर दरअस्ल ‘प्रतीक्षा’ की बीमारी है। आदमी अपने हिस्से की ख़ुशी, क्रांति और प्रेम देर तक टालता रहता है। और टलती हुई चीज़ें भीतर जाकर जम जाती हैं। पेट के भीतर की परतों में वही जमा था जो अख़बार के संपादकीय में था।
मेरे लक्षण मामूली थे। कभी-कभार उपस्थित। लक्षण न होना अस्ल में फ़ैटी लिवर बीमारी का सबसे ख़तरनाक लक्षण है। जैसे भाषा बिगड़ते-बिगड़ते भी कविता रचने का बहाना बनाए रखती है। भाषा, समाज, राजनीति, प्रेम और लिवर! सब जगह एक जैसी वसा जम रही थी। यह बीमारी व्यक्तिगत से बढ़कर राष्ट्रीय रोग में तब्दील हो रही थी, क्योंकि सुपाच्यता अब नैसर्गिकता में नहीं बची थी। लक्षणहीनता राहत नहीं चेतावनी भी हो सकती थी। मैं भाषाएँ, तकनीक, प्रस्तुति, प्रस्तावना और प्रस्थान तक के घोर जानकारों के बीच था। जानकार आदमी शराब को धीरे-धीरे और कम पीता है। बहकाता है। बहकता नहीं है। डॉक्टर ने बताया कि शराब लिवर की कोशिकाओं में वसा के भंडारण को बढ़ावा देती हैं। वसा जीवन का केंद्रीय विषय बन चुका था। उससे मुक्ति असंभव थी। वर्जित-सूची में शराब को शामिल किया गया। यह सूची कुछ-कुछ ख़रीदारी की सूची और नौकरी जैसी थी, जहाँ हर आवेदन में एक अनावश्यक अनुच्छेद, हर प्रस्ताव में एक बेवजह का बिंदु और एक मोटा सलाम क़ाबिज़ था। दफ़्तर की भाषा ने भी फ़ैटी लिवर पाल लिया था। वहाँ निर्णय कम और टालमटोल ज़्यादा था। रोग जैविक से अधिक सामाजिक और सांस्कृतिक हो रहा था। बाज़ार इस बेचैनी को जान चुका था। इसलिए उसने इतिहास में लौटकर उपचार खोजना शुरू किया।
पिता बताते हैं कि जब नब्बे के दशक में एक ऐतिहासिक घटना घटी तो वह एक ऐतिहासिक ट्रेन में सामान चढ़ा रहे थे। ठसाठस भीड़ के बीच अपनी बर्थ का नंबर देख रहे थे। भीड़ लहरा रही थी। मुल्क का पाचन-तंत्र बदल चुका था। उस समय भी सब कुछ पारदर्शी और अपारगम्य था। दरअस्ल, हर ऐतिहासिक दुर्घटना फ़ैटी लिवर की तरह लक्षणहीन थी। तब भी लोग अपने-अपने शहरों, घरों और बर्थ-नंबरों में उलझे रहे थे...
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