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बिंदुघाटी : अब घंटे चतुर्दिक बज रहे हैं

• नशे की वजह से कभी-कभार थोड़ा बहुत ग़ुस्सा बन जाता है और आपसी चिल्प-पों के बाद ऊपर आसमान में गुम हो जाता है। इस नशे की स्थिति में ऐसा भी लगता है कि हम सजग हो गए हैं।

साहित्य के सन्वीक्षा-संसार में अब घंटे चतुर्दिक बज रहे हैं। उन्हें जो की-वर्ड्स याद हैं, थोड़े नशे के प्रभाव में या किसी नई हुलकार के बाद—उन्हीं की-वर्ड्स के क्रमचयों से वे वाक्य बनाने लगते हैं। 

वे घंटे छोटे हैं, उनकी धातु खोटी है, जिस ज़ंजीर से वे बँधे हैं; वह ज़ंजीर चोरी की है। वे बहुत दिन बजेंगे नहीं, उनका खोटापन उन्हें क्षरित कर देगा, उनकी ज़ंजीर ज़ब्त हो जाएगी। फिर वे पिघलते हुए, नया रूप हासिल करते हुए जीवन की अर्थवत्ता की तलाश में अपने लिए वास्तविक गठजोड़ तैयार करेंगे और सफल कहलाएँगे... 

वे—वही छोटे-मोटे घंटा कुमार्स!

• बिंदुघाटी सड़कों पर!

शाम हुई है। जीटी रोड आधी हो गई है। आधी में आवागमन है। आधे में काँवड़ है। जगह-जगह भक्ति-सेवा पंडाल हैं। पंडालों में केले-पकौड़े-चाय-पानी-बिस्तर-कूलर-कैमरे-नेता-डीजे आदि हैं। प्रतिबंध है, जाम है, दहकच्चर है। 

वे अनगिनत जो सड़कों पर गुज़र रहे हैं, उनके साथ अनगिनत देह-भाषाएँ गुज़र रही हैं।

मैं कैसा नागरिक हूँ कि उनकी तस्वीरें नहीं खींचता और झाँकियों में बैठे चश्मिश-भोले को बमबम नहीं करता। 

मैं कैसा नागरिक हूँ कि अभी तक असुविधाओं और उन्मादों के बारे में भी कुछ नहीं लिखा।

मैं कैसा नागरिक हूँ कि अपनी ही डब की हुई आवाज़ चहुँओर सुनता हूँ! 

कितने बरस बीत गए कि भारत के दो बड़े धर्मों पर मैंने कोई बाइनरी नहीं बनाई। 

मैं कितना कम हूँ सड़कों पर—अधिक फ़ेसबुकीन होकर... जबकि बिंदुघाटी वहीं, वहाँ सड़कों पर है।

• उनकी किताब... अपने आप!

उनकी किताब आती है। उसके प्रचार में वे कोई कसर नहीं रख छोड़ते। वे ख़ुद भी ख़रीदकर भेजते हैं, कई-कईयों को भेजते हैं। हर शहर के कुछ फ़रमाइशी बुकस्टोरों से लेकर अँग्रेज़ी मीडियम में हिंदी की शिक्षा देने वाले कॉलेजों तक उनकी प्रायोजित उपस्थिति होती है।

उनके पास मूर्खता-मुँहलपोरी-ग़ैरसाहित्यिक ताक़तों का सिंडिकेट है। वे साल-साल भर अपनी पुस्तकों में छूट होने की सूचना देते हैं। निज माल के विज्ञापनों पर मिलने वाली मुहब्बतों को री-सेल करके और मुहब्बत पाने की फ़िराक़ में होते हैं।

एक दिन उन्होंने ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए लिखा, ‘‘चौधरी जी के पास उनकी किताब अपने आप ही पहुँच गई!’’ 

उन्हें तो जी-तोड़ ख़ुशी हुई ही और मुझे भी इस ‘अपने-आप’ पर भरपेट आश्चर्य हुआ।

• मैं नहीं तो कौन! 

वयोवृद्ध कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन ‘संगत’ में अपनी ही कहानी का उदाहरण देते हैं। 

ऑक्सफ़ोर्ड बुकस्टोर [नई दिल्ली] में नई पीढ़ी की कहानीकार उपासना की किताब ‘उड़ने वाला फूल’ के विमोचन के अवसर पर वृद्ध कथाकार उदय प्रकाश ने भी अपनी ही कहानियों के माध्यम से कुछ अर्थपूर्ण समझाने की कोशिश की। 

सिद्धांत निवाले की तरह ग्राह्य हो सकें, इसके लिए उदाहरण चाहिए होते हैं। 

• इस हिंदी-कथा-समय में अभी ज्ञानरंजन और उदय प्रकाश से बड़ा कौन है! लेकिन क्या अब वे स्वयं के लिए भी उदाहरण हैं! क्या लेखक कहानी के नैरेटर से ख़ुद को अलग रखने के रियाज़ में, ख़ुद अपने आपको भी उसी दूरी से देखने लगता है!

• उदय प्रकाश ने ‘उड़ने वाला फूल’ के विमोचन में इस पुस्तक की प्रशंसा करने के साथ ही जो बात समान रूप से रेखांकित की, वह थी—पुस्तक की भूमिका। उन्होंने भूमिका-वूमिका के चक्करों से परहेज़ करने की बात की। 

उदय प्रकाश ने संजीव कुमार को अपने हाथ के रिफ़्लेक्सिव परवलय में जगह देते हुए कहा कि हम सब मित्र ही हैं और यह भूमिका भी मित्रवत् अरुण कमल ने ही लिखी है, लेकिन अरुण कमल ने उक्त भूमिका में जाने क्यों ‘स्तबक’ जैसे शब्द और ‘अप्रत्याशित विषयों’ जैसे पदबंध का प्रयोग कर दिया है, जबकि पुस्तक के विषयों, यथा—गोधूलि, उदासी, नींद, सहजन, भूख... आदि में क्या ही अप्रत्याशित है! 

उदय प्रकाश जैसे एक छोटे से घरेलू सामान से जीवन-मर्म को उद्घाटित करने वाली कहानी लिख सकते हैं, वैसे ही बोलते हुए अपने नृ-विज्ञान संबंधी ज्ञान और स्पेन या अमेरिका के अनुभवों से हमें सहज ही रससिक्त कर देते हैं।

• बिंदुघाटी में बड़े लेखक अपने नाम की मुहरें चलाते हुए भी पाए जाते हैं। वे मुहरें छोटे लेखकों की पुस्तकों में उनकी मनमाफ़िक़ भूमिकाओं पर लग जाया करती हैं। 

• करेक्शनवाद और मित्रता!

दो चिथड़े लोग करेक्ट राजनीति के गलबँहिए मित्र बने। उनकी मित्रता गाहे-ब-गाहे लोकप्रियतावाद से ओतप्रोत धत्-अभियानों के सहारे फलती-फूलती रही। दोनों एक दूसरे को अभियानपरक सामाग्रियाँ सप्लाई करते और परस्पर खुजली-हार्मोन ठीक रखते। लेकिन सबकी निजी महत्त्वाकांक्षी परियोजनाएँ भी होती हैं। इसी कारण एक दिन दोनों टकरा गए और एक दूसरे का सब कुछ खोल बैठे। 

इसलिए ही मित्रता में कहा गया है कि वह खुले मन से होनी चाहिए और वहाँ मनुष्य के बहुत ‘करेक्ट’ न रह पाने का स्वीकार-भाव होना चाहिए। अपने समेत अमूमन सारे कंधे नाज़ुक ही हैं, इसका एहसास होना चाहिए। व्यवस्थित अध्ययन और लिखने-पढ़ने के  लक्ष्य होने चाहिए। 

यह न हो तो कुढ़न के थोड़ा और कंटियाते ही मैत्रीवाद के ग़ुब्बारे पुटपुटाने लगते हैं। 

• ‘अर्थरूपं तथा शब्दे...’

अर्थात् : अर्थ का बोध कराके शब्द निःशेष हो जाता है। 

लेकिन आज के अभियानपरक लेखन में तो अर्थ-गौरव से गिरे हुए शब्द ही शब्द हैं। जैसे न गली हुई दाल कुपच कर जाती है और विष्ठा में भी वैसे ही साबुत दिखती है। वैसे ही आज के अभियानपरक लेखकीय शब्द हैं।

बहुत सारे शब्द स्वार्थपरक गलदश्रुओं के लिए प्रयुक्त होने के कारण अपने अर्थ खो रहे हैं।
कितनी सामान्य समझ की बात है कि आप स्त्री हैं तो आपसे भी ग़लत काम हो सकते हैं। आपकी हर हरक़त पर किए गए सवाल ‘मिसोजिनी’ नहीं होते। निहित स्वार्थों के लिए ही आए दिन प्रयुक्त होते रहने से इस अर्थपूर्ण शब्द में होने वाले अर्थ-क्षय से इसे बचाइए।

यह कैसी चटपटबाज़ी है? 
यह कैसी निष्कर्ष-उतावली है?
यह कैसी...

• शब्दों को पढ़ते हुए अर्थ उठाइए, अनर्थ नहीं। 

पाठ-दोष पाठक की समस्या भी होती है। पाठक को अपने को तैयार करते रहना चाहिए।

साहित्य-आचार में पाठक-केंद्रीयता को महत्त्व मिलना चाहिए; लेकिन यहाँ तो पाठक नहीं, प्रशंसक जन्म ले रहे हैं। भावक नहीं फ़ॉलोअर विकसित हो रहे हैं। अर्थ को ग्रहण न कर पाने की अक्षमता के कारण ही यह संस्कृति फूल-फल रही है। क्या इसी पाठक के लिए रोलाँ बार्थ ने टेक्स्ट और लेखक के बजाय टेक्स्ट और पाठक को केंद्र में रखने की बात की थी? क्या इसी पाठक को ‘कहानी : नयी कहानी’ के निबंधों में नामवर सिंह बड़ी उम्मीद से संबोधित करते हैं!

अगर पाठक को अर्थों की तलाश होगी तो वह हल्केपन की वाहवाही में समय नहीं गँवाएगा।

• आप जीवन में निहित अर्थों की खोज में हैं? किसी शाश्वत स्थिति या कुछ अंतिम रूप से मानीख़ेज़? अगर ऐसा है तो इससे जागने की ज़रूरत है। सब कुछ मिथकीय चरित्र सिसिफ़स की तरह बेतुका है। यहाँ दिन भर काम होता दिख रहा है, जबकि अस्ल में कुछ भी नहीं हो रहा है। 

सैमुअल बैकेट ने भी ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ लिखा, जहाँ लकी जैसे चरित्र हैं। भाषा की कारीगरी है। लकी का लंबा बिना किसी फ़ुलस्टॉप का एकालाप है—शायद साठ पंक्तियों के आस-पास। सब कुछ की घोर निरर्थकता है। निरर्थकता का विराट—जहाँ कुछ ऐसे वाक्य जन्म लेते हैं : 

‘‘संसार में आँसू नियत मात्रा में हैं। हर वह व्यक्ति जो रोना बंद कर देता है, उसकी जगह कोई और रोना शुरू कर देता है। यही बात हँसी के बारे में भी सही है।’’

• यह सब कुछ उसी एब्सर्डिज़्म और अस्तित्ववादी विमर्शों के दौर में लिखा जा रहा था; जब कामू, सार्त्र और ऐसे कई लेखक बीसवीं सदी की संपन्नता और विलास में डूबे यूरोपीय व्यक्ति और समाज की स्थिति को समीक्षित कर रहे थे। ग़ौर करिए कि यह एलियट के ‘वेस्टलैंड’ का भी समय था। 

बीसवीं सदी का समाज झूठ-फ़रेब-दिखावे-गलदश्रु-जुगाड़बाज़ी का था। साहित्य में यह समीक्षा-आलोचना-मूर्तिभंजन का काल था। भारत में आज़ादी से मोहभंग के बाद के साहित्यिक आंदोलन भी इससे अछूते नहीं रहे।

• ज्ञानरंजन की ‘घंटा’ जैसी कहानियों को सभ्यता की चमकती पॉलिश, एब्सर्डिटी, अस्तित्ववाद, निहिलिज़्म जैसी बातों के आलोक में देखा जाना चाहिए; न कि सोशल मीडिया के करेक्शनवाद के आलोक में। ‘घंटा’ कहानी का जो पात्र स्त्रियों के लिए ‘वह’ रेखांकित पंक्ति बोलता है, वह ऐसी और बहुत-सी रेखांकित करने योग्य बातें बोलता है और ऐसी हरकतें भी करता है। वह ख़ुद को ‘घंटा’ मानने और बोलने में परहेज़ नहीं करता, वह वास्तव में व्यावहारिक नियम-क़ायदों से परे की कल्पित दुनिया ‘पेट्रोला’ का वासी है। ‘पेट्रोला’ में सब कुछ खुला है, यहाँ कोई मर्यादा नहीं है, कोई लिहाज़ नहीं है। ‘पेट्रोला’ में अस्तित्व का नंगापन है। 

• बक़ौल पिकासो, कोई अमूर्त-कला नहीं होती। किसी बिंदु से ही रचना की शुरुआत होती है, जिसमें से रियलिटी के सारे चिह्न बाद में हटाए जा सकते हैं। 

इसी रौ में सोचते हुए बिन्दुघाटीकार एब्सर्ड को ऐसे भी समझने की कोशिश करता है : 

वास्तविकता (Reality) को रेशा-रेशा अलगा दें, तो जो बचता है, क्या वही एब्सर्ड नहीं है! यह रियलिटी की तलाश में ही होता है। और इसकी तलाश में जब सबकुछ अलग-अलग हो गया तो अब जो दिखेगा वह कुरूप है। वही रियल है―यानी एब्सर्ड। और इसके समर्थन में यहाँ दार्शनिक संपुटि यह भी है कि दिखने वाली सुंदर रियलिटी का मूल भी अलगाये जाने पर सुंदर और रियल दिखना चाहिए। अगर ऐसा नही है तो जो अबतक दिख रही थी वह ‘भव्यता’ रियलटी भी नहीं थी। ‘पेट्रोला’ का वह चरित्र, जोकि नैरेटर भी है, उस पूरी कथा में क्या उसी ढँकी-तुपी-बनावटी रियलिटी को उघाड़ नहीं रहा है, जोकि ‘घंटा’ कहानी के तमाम दृश्यों में है। हम उससे बिलबिलाते क्यों है? क्या हम उतनी रियलिटी जोकि एब्सर्ड के रूप में सामने आ चुकी, सह नहीं पाते हैं? 
• आज इक्कीसवीं सदी के समाज और साहित्यिक समाज में सोशल मीडियाई समागमों के चलते कुछ बेहद अजीब ढंग के आसव सामने आ रहे हैं, जिनमें न साहित्य का स्वाद मिलता है और न ही कोई उदाहरण-योग्य जीवन-चरित। यहाँ बस सब कुछ हो रहा है। क्या? यह पता नहीं है। सिद्धांत और विचार इससे पहले इतने असहाय नहीं हुए थे। अब उन्हें कोई भी, किसी भी खूँटे से बाँधकर दुह सकता है और उनके प्रयोग से कैसी भी अपील बना सकता है। इसलिए ज़रूरत फिर वही है—समीक्षा-आलोचना-मूर्तिभंजन!

• यहाँ पापियों के पास अच्छी अपीलें होती हैं। जैसे ठंडे शीरे के पास मक्खियाँ भिनभिनाती हैं, वैसे ही हल्के, गलदश्रुपूर्ण, विक्टिम-कार्डी चीज़ों पर ‘सभ्यता चाटने वाले’ अनगिनत रिस्पॉन्स आने लगते हैं। 

न्याय की माँग बेहद सीमित अर्थों तक सिमटकर रह गई है। अब वह महज नंबर्स माँगती है। न्याय, आहत को अहोभाव देने में है। इसके लिए भाषा और समकालीनता का अनुकूलन मददगार होता है। यहाँ कोई पड़ताल नहीं है, कोई प्रमाणिकता नहीं है। सिर्फ़ नैरेटिव्स हैं और अपील हैं। क्या लगता है? साहित्यिक प्रश्न ‘कुंदन सरकारों’ और उनके ‘आहत घंटों’ की ‘सभ्यता को यथावत बने’ रहने देने के लिए स्थगित कर दिए जाएँ?

• झूठे गलदश्रुओं के बारे में...

गलदश्रुओं की कोई आँख नहीं होती। ये मनुष्य के उस गंदे अस्तित्व से जन्म लेते हैं, जो उसने धत्-कर्मों से बनाया है। अगर तुम्हारी फ़ेसबुक-पोस्ट में गलदश्रु-धारा बह निकले तो बहुत सारे यानी कुछ सौ लोग तुम्हें ढाढ़स बँधाएँगे। 

गलदश्रु के दर्शकों या पाठकों में कभी किसी विवेक या भावपूरकता का संचार नहीं होता। वे तो बस गलदश्रु बहाने वाले के असगुन-विलाप से हड़बड़ाकर अपनी तरफ़ से कुछ छुहारे फेंक देते हैं। इस तरह बार-बार ढेर सारे छुहारे लूटने वाला मनुष्य गलदश्रु-जीवी बन जाता है। 

गलदश्रु बहाने वाला मनोरंजक हो सकता है; बशर्ते उसे आप कुछ दिन वॉच करें, जबकि फ़ेसबुक एक तुरंता संसार है। यहाँ प्रतिपल अनंत मोड़ बनते हैं, ग़ायब होते हैं—देह की कोशिकाओं की तरह ही।

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