दंपति प्रेम पयोधि में, जो दृग देत सुभाय।
सुधि बुधि सब बिसरत तहाँ, रहे सु विस्मै पाय॥
महा मधुर रस धाम श्री, सीता नाम ललाम।
झलक सुमन भासत कबहुँ, होत जोत अभिराम॥
दास दासि अरु सखि सखा, इनमें निज रुचि एक।
नातो करि सिय राम सों, सेवै भाव विवेक॥
यद्यपि दंपति परसपर, सदा प्रेम रस लीन।
रहे अपन पौ हारि कै, पै पिय अधिक अधीन॥
बसै अवध मिथिलाथवा, त्यागि सकल जिस आस।
मिलिहैं सिय रघुनंद मोहिं, अस करि दृढ़ विश्वास॥
हिलि मिलि झूलत डोल दोउ, अलि हिय हरने लाल।
लसी युगल गल एक ही, सुसम कुसुम मय माल॥
यथा विषय परिनाम में, बिसर जात सुधि देह।
सुमिरत श्री सिय नाम गुन, कब इमि होय सनेह॥
नेह सरोवर कुँवर दोउ, रहे फूलि नव कंज।
अनुरागी अलि अलिन के, लपटे लोचन मंजु॥
जानकीवल्लभ नाम अति, मधुर रसिक उर ऐन।
बसे हमेशे तोम तम, शमन करन चित्त चैन॥
नील पीत छबि सो परे, पहिरे बसन सुरंग।
जनु दंपति यह रूप ह्वै, परसत प्यारे अंग॥
जो भीजै रसराज रस, अरस अनेक बिहाय।
तिनको केवल जानकी, वल्लभ नाम सहाय॥
नाम गाम में रुचि सदा, यह नव लक्षण होइ।
सिय रघुनंदन मिलन को, अधिकारी लखु सोइ॥
पिय कुंडल तिय अलक सों, कर-कंकण सौ माल।
मन सो मन दृग दृगन सों, रहे उरझि दोउ लाल॥
गौर श्याम बिचरत पये, मनहुँ किहैं इक देह।
सौहैं मन मोहैं ललन, कोहैं हरतिय नेह॥
होरी रास हिंडोलना, महलन अरु शिकार।
इन्ह लीलन की भावना, करे निज भावनुसार॥
कबहुँक सुंदर डोल महि, राजत युगल किशोर।
अद्भुत छवि बाढ़ी तहाँ, ठाढ़ी अलि चहुँ ओर॥
सुंदर गलबहियाँ दिये, लालन लसे अनूप।
तन मन प्राण कपोल दृग, मिलत भये इक रूप॥
लस्यो श्याम तव तन कस्यो, कंचुकि बसन बनाय।
राखे हैं मनो प्राण पति, हिये लगाय दुराय॥
ललित कसन कटि वसन की, ललित तलटकनी चाल।
ललित धनुष करसर धरनि, ललिताई निधिलाल॥
जंघ युगल तव जनक जे, अकि ग्रह उत्सव रंभ।
पिया प्रेम कै भवन कै, किधौ सुंदर बरखंभ॥
एक चित्त कोउ एक बय, एक नैह इक प्राण।
एक रूप इक वेश ह्वै, क्रीड़त कुँवर सुजान॥
ए तीनों बुध कहत हैं, श्रद्धा के अनुभाव।
श्रद्धा संपति होय घर, तब बस्तु की चाव॥
लता लवंग कदंब तर, तर दृग पुलकित गात।
जयति जानकी सुजय जय, जपिहों तजि जग नात॥
कुसुम क्रीट कवरी गुही, रंग कुम-कुम मुख कंज।
अंजन अंजित युगल दृग, नासा बेसरि मंजु॥
श्री रघुनंदन नाम नित, करे जो कोटि उचार।
ताते अधिक प्रसन्न पिय, सुनि सिय एकहु बार॥
सखी किंकरी भाव भल, धारि सुर सने नित्त।
रमो निरंतर नाम सिय, निज हिय खोल सुचित्त॥
नाभि गंभीर कि भ्रमर यह, नेह निरजगा माहिं।
ता महँ पिय मन मगन ह्वै, नेकहु निकर्यौ नाहिं॥
संजन सफरी से चपल, अनियारे युग बान।
जनु युवती एती हतन, भौंह चाप संधान॥
है अलि सुंदरि उरज युग, रहे तव उरजु प्रकाश।
नवल नेह के फंद द्वै, अतिपिय सुख की रासि॥
ज्ञान योग आश्रय करत, त्यागि के भक्ति उदार।
बालिस छाँह बबूर की, बैठत तजि सहकार॥
रघुवर मन रंजन निपुण, गंजन मद रस मैन।
कंजन पर खंजन किधौं, अंजन अंजित नैन॥
सीस नवै सियराम को, जीह जपै सियराम।
हृदय ध्यान सियराम को, नहीं और सन काम॥
जनक नंदनी नाम नित, हित हिय भरि जो लेत।
ताके हाथ अधीन ह्वै, लाल अपन पौ देत॥
रसने तू नव नागरी, गुनन आगरी नाम।
क्यों न भजै संकोच तजि, सजि मन मोद ललाम॥
श्रुति कुंडल भल दशन दुति, अरुण अधर छवि ऐन।
हित सौ हँसि बोलहि पिय, हिय हरने मृदु बैन॥
तैल धार सम एक रस, स्वांस-स्वांस प्रति नाम।
रटौं हटौं पथ असत से, बसौ रंग निज धाम॥
दरश परस में सुख बढ़े, बिनु दरशन दुख भूरि।
यह रुचिकै अनुभाव सखि, करै न रघुबर दूरि॥
श्याम बरण अंबरन को, सुकृत सराहत लाल।
छराहरा अंग राग भो, चाहत नैन बिसाल॥
ज्ञानी योगिन करत संग, ये तजि रसिकन संग।
सूख गर्त्त सेवन करत, शठ तजि पावन गंग॥
सुख निद्रा पौढ़े अरघ, नारी स्वर से होय।
प्रेम समाधि लगी मनौ, सखि जानत सुख सोय॥
जामे प्रीति लगाइये, लखि कछु तिही विपरीत।
जिय अभाव आवै नहीं, सो निष्ठा की रीति॥
कुसुमित भूषण नगन युत, भुज वल्लरी सुवास।
लालन बीच तमाल के, कंध पर कियो निवास॥
अंध नयन श्रुति बधिर वर, बानी मूक सुपाय।
याहू ते सत गुन हरष, कबहुँ नाम गुन गाय॥
सिय तेरे गोरे गरे, पोति जोति छवि झाय।
मनहुँ रँगीले लाल की, भुजा रही लपटाय॥
गुरु नितंब कटि सिंह मिलि, पट गौतमी प्रवाह।
किंकिण मुनि गण अमर निज, मन अन्हवावत नाह॥
दीपसिखा निर्वात जल, लहर हीन तेहि भाँति।
कब ह्वै है मन नाम जप, जोग-रहित भव भ्रांति॥
ललिताई रघुनंद की, सो आलंब विभाव।
ललित रसाश्रित जनन को, मिलन सदा मनुचाव॥
चकत तरौना भौंह युग, अलिबलि दृग मृग जोर।
रदन अमी कण बदन तव, ससिरथ पीय चकोर॥
नील पीत नव बसन छवि, हिलि मिलि भय यक रंग।
हरे हरे अली कहत हैं, यह धरि सिय पिय अंग॥