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विनोद कुमार शुक्ल

1937 | राजनाँदगाँव, छत्तीसगढ़

सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित।

विनोद कुमार शुक्ल के उद्धरण

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अधिकतर अज्ञानता के सुख-दुःख की आदत थी। ज्ञान के सुख-दुःख बहुतों को नहीं मालूम थे। जबकि ज्ञान असीम अटूट था। ज्ञान सुख की समझ देता था पर सुख नहीं देता था।

अदब और क़ायदे आदमी को बहुत जल्दी कायर बना देते हैं। ऐसा आदमी झगड़ा नहीं करता।

किसी दुःख के परिणाम से कोई ज़हर नहीं खा सकता। यह तो षड्यंत्र होता है। आदमी को बुरी तरह हराने के बाद ज़हर का विकल्प सुझाया जाता है।

ख़ुश होने से पहले बहाने ढूँढने चाहिए और ख़ुश रहना चाहिए। बाद में ये बहाने कारण बन जाते। सचमुच की ख़ुशी देने लगते।

लड़की माँ-बाप के घर में ग़ैरहाज़िर जैसी होती थी। उसे उसी तरह पाला-पोसा जाता था कि कोई भटकी हुई गई है। भले कोख से गई है। एकाध दिन उसे खाना खिला दो कल चली जाएगी। लड़की का रोज़-रोज़, बस एकाध दिन जैसा होता था। फिर ब्याह दी जाती जैसे निकल जाती हो।

“जितनी बुराइयाँ हैं वे केवल इसलिए कि कुछ बातें छुपाई नहीं जाती और अच्छाइयाँ इसलिए हैं कि कुछ बातें छुपा ली जाती हैं।”

पृथ्वी में जो कुछ जीव जगत, पत्थर, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल, वनस्पति मनुष्य इत्यादि हैं वे सब पृथ्वी की सोच की तरह थे। मन की बात की तरह। मनुष्य की सोच में पता नहीं कैसे ब्रह्मांड गया था।

पत्नी का रिश्ता फूल को तोड़कर अपने पास रख लेने का था। पेड़ में खिले फूल-जैसा रिश्ता कहीं नहीं दिखता था।

कारीगर अपनी रोज़ी से मतलब रखता है, काम से नहीं। काम बनाने पर वह विश्वास रखेगा तो उसकी रोज़ी नहीं चलेगी।

दूसरों की सहानुभूति, हमारा स्वाभिमान तैयार करती थी।

गंतव्य दुःख का कारण होता। सुख का कारण है कि किसी अच्छी जगह जा रहे हैं। परंतु अच्छी जगह दुनिया में कहाँ है? जगह मतलब कहीं नहीं पहुँचना है।

एक अच्छा नौकर परिवार में नौकर की तरह शामिल रहता था।

दृश्य बदलने के लिए पलक का झपक जाना ही बहुत होता है।

मुझे चंद्रमा आकाश में गोल कटी हुई खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था।

यदि एकबारगी कोई गर्दन काटने के लिए आए तो जान बचाने के लिए जी-जान से लड़ाई होती। इसलिए एकदम से गर्दन काटने कोई नहीं आता। पीढ़ियों से गर्दन धीरे-धीरे कटती है।

अच्छा व्यवहार और सहायता के लिए तत्पर होना, यानी, आदमी को उस रेंज पर लाना है जहाँ से उस पर अचूक निशाना लगाया जा सके।

घड़ी नहीं थी। पर निरंतरता का बोध था। आकाश का होना निरंतर था। आकाश स्थिर पर उसका होना लगातार। स्थिर झरने में लगातार गिरते हुए पानी की निरंतरता।

दुःख और तकलीफ़ के कार्यक्रम भी यदि अच्छी तरह से प्रस्तुत होते तो तालियाँ तड़-तड़ बजतीं।

कितना सुख था कि हर बार घर लौटकर आने के लिए मैं बार-बार घर से बाहर निकलूँगा।

घर का दरवाज़ा खोलते ही मैंने घर को ऐसे देखा जैसे किसी ख़ाली डब्बे के ढक्कन को खोलकर अंदर झाँक रहा हूँ। अगर ख़ालीपन मभी कोई चीज़ थी, तो उसी घर ठसाठस भरा था। इसके अलावा कुछ नहीं था। घर के अंदर मैं उसी तरह आया, जैसे एक उपराहा ख़ालीपन और आया है।

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नौकर अच्छा हो तो वह क़ीमती हो जाता था।

यात्रा में जाने का सुख और लौटने का सुख होता। परंतु रेलगाड़ी में दुःख की भीड़ होती। दुःख किसी भी गाँव में ज़ंजीर खींचकर उतर जाता।

ग़रीब एक स्तर के होते हुए भी एक जैसे इकट्ठे नहीं होते।

नौकर की कमीज़ एक सांचा था, जिससे आदर्श नौकरों की पहचान होती।

ज़िंदगी को जीना, स्थगित मौत को जीना होता पर बहुत दिनों तक स्थगित मौत को भी नहीं जिया जा सकता।

मृत्यु समय से बहिष्कृत होने से होती थी।

सृष्टि में पृथ्वी का भी अकेलापन होगा। परंतु एक मनुष्य का अकेलापन सृष्टि के अकेलेपन से भी बड़ा होता होगा। एक मनुष्य के अनेक दुःख सुख थे।

जी दुखता है तो खिड़की बंद कर लेना चाहिए। अकेलेपन में कोई आएगा कि राह देखने के बदले किसी के पास चले जाना चाहिए।

आदमी के विचार तेज़ी से बदल रहे थे। लेकिन उनकी तेज़ी से रद्दीपन इकठ्ठा हो रहा था। रद्दीपन देर तक ताज़ा रहेगा। अच्छाई तुरंत सड़ जाती थी।

यदि नदी बह रही हो तो उसमें एक सूखी टहनी डाल दी जाए तो वह ज़रूर बहेगी।

गाड़ियों और यात्रियों को आते-जाते देखते हुए वे जीवन का रहस्य नहीं, लौटने और जाने का रहस्य समझना चाहते थे।

ज़्यादा गहरे में डूबकर मरने का डर रहता है। इस बाहरी हलचल भरी गहराई में कितनी दूर तक जा सकेंगे, जिसमें मरें नहीं।

मैं बार-बार घर से बाहर जाऊँगा और बार-बार घर लौटूँगा।

बहुत से लोग दुःख का अभ्यास बचपन से करते हैं। इसके अभ्यास के लिए मैदान की ज़रूरत नहीं होती।

सुख भविष्य के बहुत नज़दीक नहीं होता। दुःख का वर्तमान इतना लंबा, नुकीला होता है कि भविष्य में उसकी नोक घुसी होती। ऐसा कम होता है कि दु:खी हुए और चार मिनट बाद सुखी हो गए। सुख थोड़ा लचीला होता।

सारा जीवन लौटने का रास्ता नहीं देखना चाहिए। लौटने का रास्ता घंटा दो घंटा, दो चार दिन, दो चार महीने, दो चार वर्ष बस।

घर बदलने और नौकरी बदलने के बदले ख़ुद को बदलना चाहिए।

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आत्महत्या करते हुए मौत की प्रतीक्षा होती। ज़्यादातर लोगों के जीने का तरीक़ा आत्महत्या का तरीक़ा होता।

बहुत दुःख के बाद भी बहुत दु:खों से बचने का यह रिवाज़ था। दुःख से लबालब भरे हुए को बाँधना कि फूट जाए। बहकर पड़ोसी के घर जाए।

खेल-खेल की ज़िंदगी और सचमुच की ज़िंदगी का जो अनुभव होता उसमें आदमी के बचपने से कोई सहायता नहीं मिलती थी। लेकिन बुढ़ापे तक बचपन के खेल याद आते थे।

जो सुन नहीं पाते वे बम का धमाका सुन नहीं पाते होंगे। अणुबम का धमाका भी नहीं। धमाका सुनाई दे कल-कल की ध्वनि सबको सुनाई देनी चाहिए, बहरे को इतना ही बहरा होना चाहिए।

अँधेरे के मैदान में अँधेरे का आकाश था जिसमें यह गाँव था। मिट्टी के घर थे कहीं-कहीं खेत थे। अँधेरे में अगर ऊपर से स्वर्ग उतरता हो तो स्वर्ग भी वैसा ही होता जैसे यह नरक था।

पीठ देखना विमुख होना देखना था। पेड़ विमुख था। बाँस की भर्राई धुन के साथ सुबह का और आगे होना संगत कर रहा था।

रात-भर जागकर ही आनेवाले दिन को पकड़ सकते थे।

उपेक्षित उपस्थिति होने से आदमी को अदृश्य होने में समय नहीं लगता।

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मेरा वेतन एक कटघरा था, जिसे तोड़ना मेरे बस में नहीं था। यह कटघरा मुझमें कमीज़ की तरह फिट था।

निरंतरता समय का गोत्र है जैसे भारद्वाज गोत्र होता है।

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चीज़ों को उसी तरह के साथ उसके अलावा भी देखने का अभ्यास होना था।

मैं दुःख सहने का नगर स्तर या ज़िला स्तर का खिलाड़ी नहीं होना चाहता था।

पहनने का ढंग या पहनावा आदमी के नक़्शे में शामिल हो जाता है जो मरते दम तक नहीं छूटता।

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