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शरद ऋतु में, शरद ऋतु में, शरद ऋतु में ही

मैं पानी पी रही हूँ और तभी जब पानी मेरे गले से होता हुआ भीतर जाता महसूस हो रहा है, उसी पल कोयल की आवाज़ आने लगी। उस क्षण मुझे लगा मेरे कंठ से आवाज़ आएगी और कोयल कंठ के साथ गाती रहेगी।

चार क़दम चलकर मैं खिड़की के पास खड़ी हो गई। दोनों कोहनियों को खिड़की के फ़्रेम पर रखकर मैं बाहर देख रही थी। खिड़की थोड़ी बड़ी है तो वहाँ खड़े होकर मुझे लगता है कि मैं घर से बाहर आ गई हूँ और किसी को दिख भी नहीं रही हूँ। 

बाहर दो बड़े-बड़े पेड़ हैं, उनकी पत्तियाँ और बहुत दूर तक जाती छाया। सूरज कहीं से आता है, और फिर कहीं दूसरी ओर चला जाता है। मुझे यह सब समझ नहीं आता, लेकिन इसकी बनती हुई छाया बताती है कि वह पेड़ के पास ही है या वह बहुत दूर चली गई है। सूरज की रोशनी और पत्तियों से छनकर बनती छाया पेड़ की तने पर भी दिख रही है।

ये वे दिन होते हैं जब पत्तियों को देखकर समझ आ जाता है कि हम शरद ऋतु में हैं। हर वक़्त पीली पत्तियाँ झर रही हैं। छोटी पत्तियाँ जिसे हम अपनी अँगुली में रख सकते हैं, वे हमारी साँस के साथ ज़मीन में मिल रही हैं। बड़ी पत्तियाँ थोड़ा वक़्त लेती हैं और वे हमारी साँस के साथ नहीं गिरतीं। वे बस कभी भी धम्म से ज़मीन में लेट जाती हैं।

कोयल कहीं उड़कर चली गई है। अब अलग-अलग तरह की चिड़ियाएँ आवाज़ें दे रही हैं। कोई बहुत तेज़ फिर भी कम और किसी की बहुत धीमी फिर भी ज़्यादा—आवाज़ें कानों तक पहुँचने के लिए तरंगों का खेल, खेल रही हैं। 

एक पेड़ के नीचे कितने सारे लोग आ जा रहे हैं। एक पेड़ में कितने सारे लोग रह सकते हैं। कोई साइकिल से कहीं जा रहा है तो उसके पैर दम लगा रहे हैं—साइकिल दम लगाने पर आवाज़ करती है। एक बूढ़ा आदमी धीमे-धीमे चलकर जा रहा है, उसी समय एक छोटा-सा पत्ता पेड़ से छिटककर हवा में तैरता हुआ उसके सफ़ेद बालों में अटक गया है।