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माही मार रहा है

आईपीएल ख़त्म हो गया। आख़िरकार ‘आरसीबी’ [रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु] ने अपना पहला खिताब जीत ही लिया। विराट कोहली का अठारह साल का इंतिज़ार समाप्त हुआ। अंतिम ओवर में वह भावुक होकर रोने लगे। कोई भी होगा उसका इस मक़ाम पर आकर भावुक हो जाना लाज़िमी है। आरसीबी और उसके फ़ैंस को बधाई और जो इस अवसर पर चिन्नास्वामी स्टेडियम के बाहर निकाली गई विक्ट्री परेड में मची भगदड़ में नहीं रहे, उनके लिए संवेदना...

हर किसी की अपनी उम्र का कोई न कोई खिलाड़ी होता ही होता है, जिसे हम देखते ही उमंग से भर जाते हैं और भावुक भी हो जाते हैं। विराट को‌ देखकर बहुत लोग भावुक होंगे। मैं भी था, लेकिन किसी खिलाड़ी की हमारे अपने जीवन में क्या भूमिका होती है... यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि हम उससे प्रेरणा लेते हैं। उसकी उपलब्धियाँ हमें प्रोत्साहित करती हैं। उसका जीवन हमारे अपने जीवन को बदल देता है। उसे नई दिशाएँ देता है। यह सब कुछ इतना अदृश्य होता है कि हमें ध्यान से देखने पर दिखाई देने लगता है।

मेरे लिए आईपीएल [इंडियन प्रीमियर लीग] उस दिन ही ख़त्म हो गया था, जिस दिन महेंद्र सिंह धोनी ने अपना इस सत्र का अंतिम मैच खेला था। मेरे लिए आईपीएल मतलब धोनी को खेलते हुए देखना भर है‌ और कुछ नहीं। मुझे आप धोनी का जबरा फ़ैन कह सकते हैं।

मैं आम दिनों में भी‌ जब-जब परेशान होता हूँ, पता नहीं क्यों धोनी को याद करने लगता हूँ। पिछले दिनों मैं जीवन के सबसे बड़े दुश्चक्र में फँस गया।‌ उसमें धोनी का संबंध सबसे ज़्यादा था, लेकिन अगर मैं आपको बताऊँगा तो आप समझ ही नहीं पाएँगे कि इसमें ऐसे-कैसे धोनी आते हैं। चूँकि मामला विचाराधीन है, तो उस पर अभी कोई बात नहीं। वह बाद में कभी मेरी आपबीती में आएगा।‌ जब मैं उससे बरी हो जाऊँगा।‌ मैं आईपीएल का इंतिज़ार बस धोनी को खेलते हुए देखने के लिए करता हूँ।

गए महीने जब से आईपीएल शुरू हुआ, तब से तो देख ही रहा था धोनी को। मगर जब सिर पर दुःख का भारी पत्थर कोई पटक देता है या मैं ख़ुद ही दुःख से टकरा जाता हूँ, तो मैं उसके‌ इतने रील्स देखता हूँ कि मेरा इंस्टाग्राम धोनीमय हो जाता है। इधर कुछ दिन पहले दुःख का एक बड़ा-सा पहाड़ सिर पर गिर गया है। मैं धोनी के रील्स और मीम देखकर अपना दुःख काट रहा हूँ। अभी मैंने महेंद्र सिंह धोनी पर इतनी रील्स देखी है कि बार-बार स्क्रॉल करता हूँ, तो धोनी के वीडियो आते हैं। कुछ तो ऐसे होते हैं, जो मुझे भावुक कर देते हैं। मैं रोने भी लगता हूँ। धोनी और मैं कभी नहीं मिले हैं।

आपको लग रहा होगा कि ग़ज़ब पागल आदमी है। धोनी का फ़ैन होना एक बात है, मगर उसके रील्स देखते हुए रोना... क्या कुछ ज़्यादा नहीं हो रहा है! नहीं मैं सच बोल रहा हूँ।

चेन्नई सुपर किंग्स के अंतिम मैच के बाद हर्षा भोगले से बात करते हुए जब धोनी ने कहा कि मैं अगले साल आऊँगा तो मैं भावुक था, लेकिन पता नहीं क्यों लग रहा है कि धोनी को अंतिम बार खेलते हुए मैंने देख लिया है। अगर वह अगले साल आते हैं तो आईपीएल और जीवन का मज़ा मेरे लिए बरक़रार रहेगा।‌ मैं धोनी को‌ लेकर क्यों भावुक हो जाता हूँ?

धोनी को जब 2007 टी-ट्वेंटी विश्वकप का कप्तान बनाया गया तो मैं कक्षा सात में पढ़ रहा था। यह उससे भी पहले की बात है। गाँव के कई लोग भारत और पाकिस्तान के बीच खेलें जा रहे टेस्ट मैच को देख रहे थे। मैं देखने गया तो बड़े लोगों ने शर्त रखी कि छोटे बच्चों को उसी शर्त पर मैच देखने दिया जाएगा जो पिच पर मौजूद खिलाड़ियों के नाम, स्कोर, विकेट और गेंदबाज़ का नाम टेलीविजन पर पढ़कर बता देगा। अंत में सिर्फ़ मैं बता पाया कि विकेट पर कौन हैं, स्कोर क्या हुआ और गेंदबाज़ कौन है। इस तरह मुझे मैच देखने की अनुमति मिल गई।

फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैं बड़े साहित्यकारों और विद्वानों को अक्सर यह कहते सुनता हूँ कि उन्हें पढ़ाई-लिखाई का माहौल घर से विरासत में मिला।‌ विरासत में उन्हें घर पर पुस्तकें और पत्रिकाएँ उपलब्ध होतीं और कोई न कोई शख़्स था जो उन्हें यह माहौल दे रहा था।

मुझे यह माहौल धोनी से मिला। विरासत में तो मुझे पिता का रिक्शा मिला था, जिसे मुझे बड़ा होकर चलाना था। पूरे घर में ‘अ’ भी किसी को लिखने नहीं आता था। ऐसे में आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि ऐसे कैसे हो सकता है‌ कि धोनी से मुझे यह माहौल मिल गया। मैं बताता हूँ।

हुआ कुछ यूँ कि 31 अक्टूबर 2005 को जयपुर में भारत और श्रीलंका के बीच एकदिवसीय मैच हुआ था, जिसमें लंबें बालों वाले धोनी ने दस छक्के मारे थे। फिर क्या! मैं उसका फ़ैन हो गया। वह पूरा मैच मैंने टेलीविजन पर देखा था।

अब जैसे-जैसे धोनी का खेल बढ़ता गया; वैसे-वैसे मेरी उम्र और समझ बढ़ती गई, जो आज तक जारी है। धोनी के फ़ैन होने के बहाने मैं क्रिकेट की दुनिया में घुसा। धोनी ने जब 183 रन बनाए थे, तब मैं कक्षा पाँच का छात्र था और क्रिकेट को समझने लगा था।

यह समझ धीरे-धीरे मेरी क्रिकेट के प्रति दीवानगी में बदल गई। दिन हो या रात हो; अगर मैच हो रहा है, तो मैं कमेंट्री ज़रूर सुनता था। यहाँ तक कि वेस्टइंडीज के साथ होने वाले मैच की कमेंट्री सुनता जो रात में हुआ करते थे। घर पर टीवी होने का कोई सवाल ही नहीं था। किसी तरह कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो का जुगाड़ करता था।

जब भी मैच होता किसी की रेडियो माँग लेता, क्योंकि अपनी हैसियत उस समय बस रेडियो की बैटरी खरीदने भर की थी। बैटरी भी अक्सर घर से कुछ इधर-उधर करके लेता था। मसलन चोरी से गेहूँ-चावल बेच आता‌‌ या छप्पर में खोंसे हुए माँ के पैसे ही‌ चुरा लेता।‌ अब ऐसा कोई मैच नहीं होता, जिसकी सारांश मेरे पास न हो।

ज़िंदगी ने करवट ली। पिताजी ने चाय की एक दुकान खोल दी। मैं एक सपना देखा करता कि कभी मेरे पास अपना रेडियो होगा। इसने मेरे रेडियो लेने के सबसे ख़ूबसूरत सपने को पूरा करने का एक मौक़ा दे दिया। शाम को दुकान पर काम करने के बाद मैं दुकान से पाँच रुपये अपने पास रख लेता था।

धीरे-धीरे सौ रुपये के क़रीब होने पर मैंने एक छोटी वाली रेडियो ले ली, जो मोबाइल के आकार की होती थी। अब यह मेरा हमसफ़र बन गई, जो स्कूल में भी मेरे बैग में होती थी और भैंस चराते समय भी मेरे हाथ में। अब मैं क्रिकेट कमेंट्री के अलावा गीत-संगीत, समाचार तथा और भी देश- दुनिया की तमाम चीज़ों के बारे में रेडियो पर सुनने लगा। जिससे मेरे भीतर किसी भी चीज को जानने और समझने की जिज्ञासा बढ़ने लगी।

इस सबके साथ ही जिस महत्त्वपूर्ण चीज़ का शौक़ लगा, वह था पत्रिकाओं और अख़बार का पढ़ना।‌ तब क्रिकेट की एक पत्रिका आती थी—‘क्रिकेट सम्राट’। यह पूरी पत्रिका रंगीन होती थी और बीच वाले पन्ने पर किसी एक क्रिकेटर की तस्वीर होती थी, जिसे आराम से निकालकर दीवाल पर चिपकाया जा सकता था। उसमें दुनिया भर की क्रिकेट से संबंधित ख़बरें होती थीं।

मैं गाँव में रहता था।‌ मेरा एक दोस्त है, जो तब बड़े क़स्बाई बाज़ार के एक बड़े स्कूल में पढ़ा करता था। वह पत्रिकाओं की दुकान जानता था। मैं उससे ही ‘क्रिकेट सम्राट’ मँगवाता था और ख़ूब चाव से पढ़ता था। मैं गाँव में क्रिकेट का वीकिपीडिया हो गया था। क्रिकेट के बारे में कुछ भी जानना हो‌ता तो लोग मेरे पास आते।

दूसरा शौक़ जो मुझे धोनी ने लगाया, वह था अख़बार पढ़ना। मेरे गाँव से लगा एक छोटा-सा बाज़ार है, जहाँ हिंदी के लगभग सभी अख़बार आते थे। मैं स्कूल की छुट्टी पर सुबह नौ‌ बजे ही बाज़ार पहुँचकर ललचाई नज़रों से अख़बार वाले का इंतिज़ार करता। वह‌ जैसे ही अख़बार किसी की दुकान पर फेंकता, मैं झपटकर उसे उठा लेता।

कभी-कभी होता कि अख़बार किसी दूसरे के हाथ में पड़ जाता तो मैं प्रतीक्षा करता। यह आधे घंटे का इंतिज़ार मुझे सालों जैसा लगने लगता। मेरी गिद्ध-दृष्टि अख़बार पर ही लगी रहती। अगर कोई‌ कहता कि मुझे भी पढ़ना है; तो मैं अख़बार के बीच के पेज निकालकर उन्हें दे देता और जिसमें खेल समाचार होते, वह मैं अपने पास रखता। क्रिकेट की ख़बरें पढ़ते हुए मैं कब संपादकीय भी पढ़ने लगा, मुझे पता ही नहीं चला। देश-विदेश वाले कॉलम को भी मैं मन लगाकर पढ़ने लगा।

जल्द ही वह दिन आया जब मैं सारे अख़बारों का संपादकीय भी पढ़ने लगा। अब मैं धीरे-धीरे देश-दुनिया में क्या हो रहा है, उसकी भी अच्छी जानकारी रखने लगा। तब मुझे विदेश-नीति के बारे में जितना पता होता था, उतना तो आज भी नहीं पता होता‌ है। मैं अलग-अलग दुकानों पर जाकर‌ हिंदी के सभी अख़बार पढ़ डालता। पढ़ाई के दिनों में शाम को अख़बार पढ़ता। सुबह नौ बजे ही स्कूल जाना पड़ता। दुकान वाले भी समझ गए थे कि मैं बस अख़बार पढ़ने आता हूँ। वह भी मेरा सम्मान करते हुए, मुझे दुकान पर घंटों बैठकर फ़्री में अख़बार पढ़ने देते।

यही से लगने लगा कि दुनिया बहुत बड़ी है। फिर चीज़ों को रेडियो से सुनने और अख़बारों से समझने का जो जुनून लगा, वह अभी भी कई दूसरे और नए माध्यमों के द्वारा क़ायम है।

न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ विश्वकप के सेमीफाइनल में धोनी जब आउट हुए, तो‌ मैं विश्वविद्यालय में सीनेट हाल की‌ बिल्डिंग में बैठा मैच देख रहा था। जैसे ही गेद स्टम्प पर लगी, वैसे ही दिल ज़ोर से धड़का।‌ जब तीसरे अंपायर ने धोनी को आउट करार दिया, तो धोनी का दुःखी चेहरा देखकर मैं रोने लगा। बाहर आसमान में बादल भी बरसने लगे। ऐसा लगा कि दुनिया ही ख़त्म हो गई है। बाद में जब धोनी ने टेस्ट और वन-डे से संन्यास लिया, तो यह मेरे लिए एक सुकून से पीड़ा में परिवर्तित हो जाने वाला क्षण था। फिर हर साल आईपीएल का इंतिज़ार करता। यह सुनने के लिए कि माही मार रहा है।

मुझे याद है 2023 की वह रात जब चेन्नई सुपर किंग्स ने आईपीएल ट्राफ़ी जीती थी, तब मैं गाँव में था।‌ ‌छत पर‌ सोया हुआ था। रविन्द्र जडेजा ने जैसे ही चौंका लगाया, मैं ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा। रात बारह बजे मुझे चिल्लाता देखकर घर के लोग डर गए। वह दौड़ते हुए मेरे पास आए। तब मैं भावुक हो गया था। मेरा चेहरा देखकर उन्हें लगा कि मुझे किसी भूत वग़ैरा ने पकड़ लिया है। मैंने थोड़ी देर बाद उन्हें बताया कि मैं मैच देख रहा था। उन्होंने कहा कि तुमने तो सबको डरा ही दिया था। माँ बोलीं, ‘‘ऐसन का मैचवा में देखला कि चिल्लाए लगला।’’ मैंने कहा, ‘‘तोहरे समझ में ना आई। जा तू नीचे सोवा आराम से...’’

सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि धोनी को देखकर हमेशा लगता है—कोई अपने ही आस-पास का आदमी है, जिसे मैं जानता हूँ। ठीक वैसा ही चेहरा, जैसा मेरे गाँव के एक भैया का हुआ करता था। अब भी सोचता हूँ, तो जैसे लगता है कि मेरी यात्रा में धोनी का भी साथ है।

यहाँ कहने का सार यह है कि धोनी के श्रीलंका के ख़िलाफ़ लगाए गए दस छक्कों की धमक मुझे आज भी सुनाई देती है। धोनी ने रेडियो और अख़बार के ज़रिये जिस दुनिया और विचार से मेरा परिचय कराया, वह शायद ही बिना धोनी के हो पाता।

धोनी जब भी खेल रहे होते हैं, मैं भावुक हो जाता हूँ। मुझे उनका चेहरा देखकर अपनी जीवन-यात्रा का सब कुछ आँखों के सामने से गुज़रता हुआ दिखाई देता है। मैं चाहता हूँ कि माही मारता रहे और सदा यह सुनाई पड़ता रहे—‘‘माही मार रहा है।’’

आरसीबी-फ़ैंस और विराट कोहली को एक बार पुनः बधाई!

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