विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक
अनमोल
28 मई 2025

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के रचना-संसार को अगर एक शब्द में लिखना हो, तो यह शब्द उस भाव को लगभग बयान कर देता है, जो उन्हें पढ़ते हुए सबसे पहले हम में घर करता है।
लेकिन आख़िर वह आश्चर्यलोक है क्या? वह आख़िर बना किन चीज़ों से है? विकुशु ऐसा क्या करते हैं—अपने पढ़ने वालों के साथ? इतने विस्तृत रचनाकाल में आख़िर वे कौन-से तत्त्व कहे जा सकते हैं, जिन्हें हम उनके लेखन के प्रतिनिधि के तौर पर देख सकते हैं?
हम किसी भी कला की तरफ़ तब बढ़ते हैं, जब हम अपने सामान्य इंद्रियबोध में कुछ बाहरी हस्तक्षेप चाहते हैं। जब हम कला के माध्यम से अपने अनुभव-क्षेत्र का कुछ विस्तार हुआ चाहते हैं। और अनुभव-क्षेत्र का वह विस्तार किसी भी दिशा में हुआ हो सकता है। मुमकिन है कि हम रोज़मर्रा के जीवन ही के किसी अंग का कुछ अनुवाद कला में चाहते हों, या कि किसी कल्पनालोक से संवाद करने की इच्छा हमारी होती हो। विकुशु इन दोनों—यथार्थ जीवन और कल्पना के जीवन—को मिला देने की अद्भुत क्षमता रखते हैं। वह हमारे सामने की ही किसी चीज़ को उठा कर हमारे ही सामने उसके आयामों को ऐसा विस्तार देते हैं, मसलन वह कोई और ही चीज़ हो। यह उनकी विलक्षण अवलोकन दृष्टि से ही संभव हो सकता है।
हाथी आगे-आगे निकलता था और पीछे हाथी की ख़ाली जगह छूटती जाती थी।
(दीवार में एक खिड़की रहती थी, पृ. 27)
यह कल्पना के सिरे पर ले जाकर छोड़ता हुआ यथार्थ का अदभुत दस्तावेज़ीकरण है। प्रतिक्षण घटती चीज़ों पर ऐसी दृष्टि उनकी बनी रहती है, जो पढ़ने वालों को हैरतज़दा करती है। साहित्य अकादेमी के यूट्यूब चैनल पर एक आधे घंटे का वृत्तचित्र है विकुशु पर। उसमें वह एक प्रसंग बताते हुए कहते हैं—
मुक्तिबोध से जब पहली बार मिलने गया तो वह कंदील का ज़माना था। वे कंदील लेकर आए, तो उजाला पहले हिलता-डुलता आया, फिर बाद में मुक्तिबोध जी आए।
जिन्हें लगता हो कि उनकी भाषा बहुत यत्नशील है और सामान्य से इतर कुछ है, उन्हें संभव हो तो विकुशु को कहीं सामान्य बातचीत, साक्षात्कार आदि में बोलते सुनना चाहिए। निश्चित ही वह भाषा गढ़ने के लिए, यत्न तो उन्होंने किए ही होंगे—क्योंकि उस भाषा के वह इकलौते प्रयोगकर्ता हैं, लेकिन उन्होंने उसे ऐसा अंगीकार किया है कि अब कोई विभेद नहीं है, उनके लिखने और सोचने में। वह बिल्कुल उसी भाषा का व्यवहार बहुत सामान्य बातचीत में भी वैसी ही सहजता से करते हैं, जैसी सहजता से उनका पूरा लेखन भरा हुआ है। हिंदी भाषा के जो आयाम उन्होंने खोज निकाले हैं—अपनी बात कहने को—वे अन्यत्र किसी कवि-लेखक के संसार में उपलब्ध नहीं हैं। इसी भाषा ने, उनकी विलक्षण अवलोकन दृष्टि के साथ मिलकर उन्हें यह सामर्थ्य दिया है कि वह किसी भी विषय पर रचना कर सकते हैं।
थोड़ा विषयांतर होगा लेकिन कुछ बातों का वर्णन यहीं किए देना शक्य समझता हूँ। एक पृष्ठभूमि है—उस विश्व की—जिसमें विनोद जी ने लिखना शुरू किया, और जो उनकी कविता के मूल, मनुष्यता के, स्वर को चीन्हने में हमारे लिए मददगार हो सकता है।
विनोद कुमार शुक्ल का जन्म 1937 के भारत में हुआ था। उनके बचपन में दुनिया एक जंग से गुज़र रही थी—जिसमें, बज़रिया बर्तानिया हुकूमत, भारत भी हिस्सेदार था; और उनकी वय:संधि देश का विभाजन देख रही थी।
विश्व युद्ध ने आधुनिकता के समस्त विचारों को गोया तिरोहित कर दिया। विज्ञान द्वारा जिन प्रश्नों के उत्तर दिए जाने के दावे किए जा रहे थे, वे नहीं मिले। आधुनिकता ने विज्ञान की सत्ता स्थापित की और ईश्वर को—एक हद तक—अपदस्थ तो किया, लेकिन विज्ञान से मनुष्य को अपने अस्तित्व संबंधी उन सवालों के उत्तर नहीं मिल सके, जो ईश्वर के पास थे। उस प्रति-आख्यान ने एक रिक्तता का निर्माण किया—जिसमें अविश्वास, भय, महत्त्वाकांक्षा, और उन्हें पूर्ण करने में असमर्थता से पैदा खीझ जैसे भाव भर गए।
इसी युद्धोत्तर विश्व में हम देखते हैं कि पूर्वी यूरोप में मीलोष और शिम्बोर्स्का जैसे कवियों ने कविताएँ लिखीं; ज्याँ पॉल सार्त्र, अल्बेयर कामू और सिमॉन जैसे अस्तित्ववादी विचारक हुए; जॉर्ज ऑरवेल, चिनुआ अचेबे, सलमान रश्दी, गैब्रिएल गार्सिया मार्केस जैसे उपन्यासकार, सैमुएल बेकेट जैसे नाटककार, बरटेंड्र रसेल जैसे बौद्धिक दार्शनिक और भारत में निर्मल वर्मा, अज्ञेय, मुक्तिबोध, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और जौन एलिया जैसे कवि हुए। ये सभी युद्धोत्तर समाज में रह रहे मनुष्य की भावनात्मकता और अपूर्णता के अहसास और राज्य-नागरिक संबंधों की जटिलता और उस जटिलता जनित खीझ की कहानियाँ कहने वाले लोग थे। इन सभी लोगों ने अपने समय और समाज को आख्यायित किया, लेकिन विकुशु ने उस रास्ते से कुछ दूरी बना कर, एक प्रति-आख्यान देना चुना।
एक कविता में वह लिखते हैं—
दरअस्ल बचपन का चिन्हारा हुआ
नाँदगाँव का यह सूर्योदय
दिल्ली में भी हो तो
नाँदगाँव का सूर्योदय लगता है
(छत्तीसगढ़ी में वह झूठ बोल रहा है)
किसी व्यक्ति के दिल्ली आकर भी नाँदगाँव (अथवा किसी भी अन्य गाँव) की ओर एक नज़र बनाए रहने का यह भाव उनकी कविता भर के लिए वांछनीय नहीं है; यह इस पूरे दौर, जिस दौर में विकुशु कविता कर रहे हैं, के लिए वांछित है। एक पूरा वर्ग है जो अपने घर, अपनी ज़मीन से पलायित है। अपने घर छोड़कर शहरों में रहने वाला, निम्न व निम्न मध्यम वर्ग, एक ओर तो शहरी उच्च वर्ग के लिए सुविधाओं की ज़मीन तैयार करता है, और दूसरी ओर एक आँख अपने गाँव, घर और तीज-त्यौहारों पर लगाए रखता है। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के इन अवांछनीय प्रभावों के समक्ष विकुशु अपनी कविता खड़ी करते हैं।
इस दौर में जब मनुष्यता में विश्वास का गुण प्रतिदिन कुछ और, कुछ और क्षीण होता जाता है; जब हालात ऐसे हों कि कक्षा में पढ़ाने के लिए उपस्थित अध्यापक सामने बैठे छात्रों पर शक़ करता है कि कहीं उसकी बातें रिकॉर्ड ना होती हों। यह अविश्वास हमारी व्यवस्थाओं का दाय है हम पर। इनके बीच विकुशु लिखते हैं, कि—
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
---
हम दोनों साथ चले
दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे
(हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था)
आज के महानगरों में ऐसे किसी‘ना मालूम सगा’ को पाने के भाव से अतिरिक्त शायद ही कुछ और वांछित हो। कलाकार अपनी कला में अपना समाज भी रचता है। विकुशु की कविता भी यह काम करती है। ‘पड़ोस’ उसी समाज का एक हिस्सा है। और उनका पड़ोस एक घर, दो घर या एक गली तक सीमित नहीं है। उनकी कविता में ईश्वर और चंद्रमा भी उनके पड़ोस ही का एक हिस्सा है। उनकी दृष्टि पड़ोस में पहचान खोजती है, और उसके सहारे अच्छाई। वह पड़ोसी को ईश्वर सदृश देखते हैं—
अपनी बसावट में
ईश्वर को पुकारता हूँ
तो पड़ोसी सुनता है।
(अपने असीम में)
ज़रूरी नहीं कि पड़ोसी अच्छा ही हो। हो सकता है वह बुलाने पर ना भी सुने। लेकिन इससे विश्वास खंडित ना हो जाए, इसके लिए वह इसी कविता में लिखते हैं कि—
नहीं सुनता तो लगता है कि
अभी घर पर नहीं है।
(अपने असीम में)
दुनिया में किसी ‘ख़राब’ की उपस्थिति से वह इंकार नहीं करते, बल्कि कई अवसरों पर वह ख़ुद उसे उघाड़ते हैं। ‘नौकर की कमीज़’ जैसा उपन्यास हमारी व्यवस्थाओं पर एक तीखा प्रहार है। वह लेखक जो सब कुछ प्रिय बना सकने की क़ाबिलियत रखता है, वह भी ऐसी क्रूर पंक्तियों का इस्तेमाल करता है—
हाथ का कोई वजन नहीं होता। वजन तब होगा जब बाएँ कटे हाथ को दाहिने हाथ से उठाया जाए।
(नौकर की कमीज़, पृ. 9)
इसी वीभत्स-सी लगती पंक्ति को अगले ही वाक्य में वह व्यवस्था पर एक गंभीर व्यंग्य में बदल देते हैं—
चेहरे में दो कान हैं, इसकी याद बहुत दिनों तक नहीं रहती। कान चेहरे से कहाँ जाएँगे? इस तरह की लापरवाही सामाजिक सुरक्षा को बतलाती है। सब जगह अमन-चैन है, यह मालूम होता है।
(नौकर की कमीज़, पृ. 9)
जब कोई यह कहता कि आनेवाले बीस वर्षों में यह देश बहुत ख़ुशहाल हो जाएगा, तब मैं सोचता था कि ख़ुशहाली बीस वर्षों में क्यों? बीस वर्षों के बाद भी ख़ुशहाली होगी, यह कैसे कोई कह सकता था? ख़ुशहाली अभी हो, इसी वक़्त; मेरे देखते-देखते!
(नौकर की कमीज़, पृ. 13)
विकुशु के उपन्यासों और कहानियों में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिसमें वह तंत्र की आलोचना करते दीखते हैं। जो दृष्टि कविता में हैरत से भरती है, वही दृष्टि उनके गद्य को एक तीखी व्यंग्यात्मक शैली से परिपूर्ण करती है।
वह गद्य में ख़राब को उद्घाटित करते हैं, लेकिन कविता में उनकी सारी कोशिश इस पर केंद्रित है कि उस ‘ख़राब’ से हमारी नज़र ख़राब ना होने पाए। उनकी कविता इस समय में भी दुनिया में, समाज में, अच्छाई देखने की कविता है। उनकी कामना शत्रुओं तक को भी अपना मित्र बना लेने की है, जिसका विस्तार कर के वह समस्त दुनिया को अपना मित्र बनाए लेना चाहते हैं—
अपनी मित्रता बढ़ाकर
संसार भर को मित्र बना लूँ
तब तक अमर रहूँ।
(जीवन को मैंने पाया)
विकुशु का संसार ऐसा ही दीखता है। भीतर से भी। मानवीय मूल्यों को बनाए रखने, भीतर दबे कोमलता के बीज को अंकुरित करने की चेष्टा करते से रचना-संसार में उन्होंने दंगों पर, पर्यावरण की चिंताओं पर और आदिवासी संघर्ष जैसे मुद्दों पर अनगिनत कविताएँ की हैं। और इस बिंदु पर आकर उनकी भाषा और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि वह उनकी कविता को पूरी तरह से कविता बनाए रखती है, समाचार नहीं बनने देती। उनकी कविता में दंगों का, हत्याओं का ज़िक्र है, और उन कविताओं का स्वर पर्याप्त राजनीतिक (इस शब्द के व्यापक अर्थों में) है। मसलन—
गुजराती मुझे नहीं आती
परंतु जानता हूँ
कि गुजराती मुझे आती है—
वह हत्या कर के भाग रहा है
यह एक गुजराती वाक्य है।
(गुजराती मुझे नहीं आती)
लेकिन तब भी उनके शब्द यह कोशिश करते नज़र आते हैं कि समाज में इंसान का इंसान पर विश्वास बचा रहे।
किसी मुसलमान के हाथों मरूँ
तो मुझे हिन्दू न समझना
मुसलमान समझना
अगर हिन्दू के हाथों मरूँ
तो मुझे मुसलमान न समझना
हिन्दू समझना।
(दंगे के दिन जब लोग)
उनकी कविताओं के राजनीतिक स्वर का एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों के विस्थापन से जुड़ा चलता है। उनकी बहुत-सी कविताएँ जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई लड़ते, उनके जंगलों—या कि उनके घरों—से विस्थापित, आदिवासियों की चिंताओं में मुरझाती दीखती हैं। एक जगह वह कहते हैं कि आदिवासियों पर इतनी कविताएँ हो गयी हैं कि लगता है कहीं उनका एक अलग संग्रह न तैयार हो जाए। ‘जितने सभ्य होते हैं’ कविता में, वह जंगल के लिए शहर को हत्यारे का विशेषण देते हैं। इसी कविता में जब वह कहते हैं कि शहर जंगल को असभ्य कहता है, और उसे सभ्य बनाने के प्रयत्न करने के बहाने जंगल में घुसपैठ करना चाहता है, तो हमें प्राचीन ग्रीस से अर्वाचीन विश्व तक साम्राज्यवादी शक्तियों के दिए तर्क बरबस ही याद हो उठते हैं। शहर की इस तथाकथित सभ्यता को उद्घाटित करते हुए, वह लिखते हैं—
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से
डर लगता है
(बाज़ार का दिन है)
कितनी, कितनी, कितनी और कविताएँ हैं उनकी, मैं लिखता जाऊँ और लगता रहेगा कि उनकी कविता हर बार नए-नए विषय, या विषय को नए तरीक़े से, छू रही है। ग़रीबी पर, भूख पर कितनी कविताएँ हैं उनकी। बहुत आसान बातें, बहुत आसान भाषा में वह कह देते हैं। वर्ग संघर्ष की चेतना उनकी कविता में पूरी रौ में मिलती है। ‘अपने हिस्से में लोग आकाश देखते हैं’ कविता में वह कहते हैं कि भूख तो सबको मिली है, भूख प्रकृतिजन्य है, लेकिन भात सबको नहीं मिलता; कि बाज़ार में रोटी तो पक रही है, लेकिन वह सबके हिस्से की नहीं है। पंक्ति के आख़िरी व्यक्ति तक उनकी नज़र जाती दीखती है, जब वह कहते हैं कि—
सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महँगा है।
(सबसे ग़रीब आदमी की)
बीते कुछ समय से वह लगातार बच्चों के लिए साहित्य लिख रहे हैं। पेंसिल, रबर और कटर जैसी वस्तुओं पर उन्होंने एक कविता ‘एक पेंसिल लिखन्नी’ लिखी है, जिसमें वह लिखन्नी, मिटन्नी और छिलन्नी जैसी संज्ञाओं का इस्तेमाल करते हैं और इन तीनों को सहेलियाँ बताते हैं। नातिन पर केंद्रित उनकी कुछ कविताएँ भी हैं।
पीछे विकुशु के लेखन के शुरुआती समय के देशकाल की बात हम कर चुके हैं। उनका लेखन किसी शून्य में नहीं खड़ा हुआ है। वह पूरी तरह से उनके समय का लेखन है, और उनमें उनके समय के साथ उनके पूर्ववर्तियों की अनुगूँज भी सुनाई देती है। जब वे लिखते हैं, कि—
ज़िंदा रहना और दुःख सहना, दोनों की शक्ल इतनी मिलती-जुलती थी, जैसे जुड़वा हों!
(नौकर की कमीज़, पृ. 16)
तो, इसमें अनायास ही ग़ालिब प्रतिध्वनित होते दीखते हैं—
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
या कि जब एक कविता में विकुशु लिखते हैं, कि—
कहीं भी होऊँ,
पर यदि कोई मुझसे पूछे ‘कहाँ हो?’
तो कहूँगा ‘यहाँ हूँ’
---
कविता से मैं खोता नहीं।
(कहीं भी होऊँ)
यह पढ़ते हुए युद्धोत्तर विश्व के उन पोलिश कवियों की याद हो उठती है, जिसमें मिलोष अपनी भाषा के लिए लिखते हैं, कि—
तुम मेरी मातृभूमि थी क्योंकि और कोई नहीं थी
(खुला घर, पृ. 89)
पीछे जौन एलिया का ज़िक्र भी हुआ है। उनका एक शे’र है—
आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा
पूरी ठसक के साथ आदमी की ऐसी हिमायत इसी दौर में मुमकिन थी और यह विकुशु में भी दिखती है। विकुशु के लिखने में वैयक्तिकता का महत्त्व अत्यधिक है। ‘मैं’ का स्वर प्रतिनिधि रहता है, लेकिन उसमें कोई निजी स्वार्थ न है, अपितु एक अकेले की आवाज़ वहाँ समूची विश्व सभ्यता की आवाज़ के तौर पर झंकृत होती है। एक कविता में संपूर्ण मनुष्यता के लिए एक मनुष्य का प्रतिनिधित्व भी वह काफ़ी बताते हैं। वैयक्तिकता की ऐसी हिमायत भी उनके समय का ही प्रतिनिधित्व करता है।
इन सबसे मिल कर बनता है विकुशु का आश्चर्यलोक!
विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक, आश्चर्यलोक इसलिए भी है क्योंकि यह उन मूल्यों की बात करता है, जिनकी बात व्यावहारिकता में तो कोई नहीं ही करता। मुमकिन है कि कहे कोई कि वे बातें तो सामान्य ही हैं, और लगभग ठीक भी होगा। निश्चित ही वे बातें सामान्य हैं, लेकिन हम अभ्यस्त नहीं हैं—ऐसी किसी ‘सामान्य’ मूल्य व्यवस्था के लिए। सामान्य जब दुर्लभ हो जाए, तो वह भी असाधारण नज़र आता है। संयम, जितना है उतने में ख़ुशी, अपनी जड़ों से नज़दीक रहना (लेकिन जड़ नहीं होना), कोलाहल से दूर शांति! शांति! शांति! का मंत्रोच्चार करती उनकी कविताएँ, अपनी समस्त मुखरता के साथ, एक क़िस्म का प्रतिवाद हैं उनके समय से; एक तरह का प्रत्याख्यान हैं वे।
हम सबको उन्हें पढ़ना चाहिए। जितना हो सके, उतना। मैं अक्सर उनके ज़िक्र के साथ कहता हूँ कि उन्होंने कहीं पाई भी खींची हो तो उसे खोज के पढ़ना चाहिए और समझ ना आए तो ख़ुद ही को दोष देना चाहिए—इससे यह आशय नहीं कि उनका लिखा सब अच्छा ही है या कैसा है, बल्कि वह बात ज़ेर-ए-बहस ही नहीं है। बात यह है कि वह व्यक्ति हमसे ऐसा आदर पाने का हक़दार है, और इससे बहुत अधिक भी। यह हमारे लिए—यदि गर्व ना भी कहना चाहें, तो—असीम ख़ुशी की बात है कि इस दौर में भी हमारे पास, हमारी भाषा के पास एक कवि-लेखक है, जिसे सामने रख कर हम विश्व में जा सकते हैं।
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