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‘2147’ : भविष्य की एक ज़रूरी चेतावनी

लीलानूर सेंटर फ़ॉर वॉयस एंड डांस में पारंगद शॉ द्वारा लिखित और बलराम झा द्वारा निर्देशित नाटक ‘2147’ का मंचन—कैटेलिस्ट थिएटर सोसायटी और काव्यपीडिया के संयुक्त तत्वावधान में—सफलता के साथ किया गया। यह नाट्य प्रस्तुति मानवीय संवेदनाओं, तकनीकी विकास और उनके टकराव के बीच पनपती उस दुनिया की कल्पना है, जो आज से 100 साल आगे की है। नाटक में प्रमुख भूमिकाओं में आलम नूर और बलराम झा जैसे रंगकर्मियों ने अपने सशक्त अभिनय से भविष्य की एक भयावह परिकल्पना को साकार कर दिया। दोनों कलाकारों ने दर्शकों को न केवल सोचने पर मजबूर किया, बल्कि उन्हें उनकी वर्तमान जीवनशैली के प्रति सचेत भी किया।

कल्पना नहीं, चेतावनी है ‘2147’

यह नाटक कोई साइंस फ़िक्शन भर नहीं है। यह एक कलात्मक रूप से प्रस्तुत चेतावनी है। नाटक का आधार वर्ष 2147 है—वह भविष्य जहाँ तकनीक चोटी पर है और इंसान कहीं पीछे छूट चुका है, लेकिन यह भविष्य पूरी तरह काल्पनिक नहीं लगता, क्योंकि उसकी जड़ें हमारे आज में ही मौजूद हैं। लेखक पारंगद शॉ ने अत्यंत सूझबूझ के साथ तेज़ी से विकसित होती तकनीकी सुविधाओं और घटती मानवीय संवेदनाओं के बीच के द्वंद्व को शब्दों में पिरोया है और इस जटिल विचार को दोनों अभिनेताओं ने मंच पर प्रभावशाली ढंग से जीवंत किया है। पूरा नाटक अपने मूल प्रश्न के इर्द-गिर्द केंद्रित रहता है—जब हर तकनीकी आविष्कार मनुष्य के जीवन को अधिक सहज, सुरक्षित और सुंदर बनाने के उद्देश्य से किया गया था, तो फिर क्यों आज हवा, पानी, मिट्टी और आकाश दिन-ब-दिन ज़हरीले होते जा रहे हैं? एक ओर तकनीक कैंसर जैसी घातक बीमारियों का इलाज खोज रही है, तो दूसरी ओर हर दिन कोई-न-कोई नई बीमारी जन्म ले रही है। यह कैसी विडंबनात्मक सफलता है—जहाँ मनुष्यों की भलाई के लिए बनाई गई तकनीकें अब उनके ही विनाश का कारण बनती जा रही हैं?

एक दृश्य, कई प्रश्न

नाटक का हर दृश्य किसी-न-किसी प्रश्न को जन्म देता है—क्या हमारी इच्छाएँ अब हमारी नहीं रहीं? क्या हमारी भावनाएँ भी तकनीक के नियंत्रण में हैं? जब आकाश और समीर नामक पात्रों के बीच वाद-विवाद होता है, तो दर्शक सिर्फ़ संवाद नहीं सुनते—वे आने वाले समय की आहट महसूस करते हैं।

आज अनजाने में ही पूरी मानव जाति की इच्छाएँ, भावनाएँ, संवेदनाएँ, पसंद-नापसंद और यहाँ तक कि सोचने का ढंग भी टेक्नोलॉजी द्वारा नियंत्रित होने लगा है। आप किसी खाद्य वस्तु के बारे में केवल सोच भर लें या ज़िक्र कर दें—और अगले ही क्षण आपका मोबाइल फोन आपको बता देता है कि वह वस्तु सबसे सस्ते और आसान तरीक़े से कहाँ उपलब्ध है।

नाटक के कलाकारों ने अपने सहज और प्रभावशाली अभिनय के माध्यम से दर्शकों को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ उन्हें यह सोचना पड़ा कि इंसान और प्रकृति की इस बिगड़ती हालत के लिए ज़िम्मेदार कौन है — मनुष्य स्वयं या उसकी बनाई टेक्नोलॉजी?

हम स्वयं प्रदूषण फैलाते हैं और फिर उसे कृत्रिम बारिश जैसे उपायों से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं, जिसका दुष्प्रभाव वायुमंडल पर और भी गंभीर पड़ता है।

नाटक इस बात की गूंज है कि अगर हमें सचमुच भविष्य को बचाना है, तो सबसे पहले हमें ख़ुद को मशीन बनने से बचाना होगा।

सोचिए—क्या होगा जब मशीनों की संख्या इंसानों से ज़्यादा हो जाएगी? क्या हम इंसान रहेंगे या मशीननुमा जीव?

‘2147’ केवल एक नाटक नहीं, बल्कि एक आईना है—जिसमें हम अपना भविष्य देख सकते हैं, और क्या जिसमें झाँकते हुए हम उसमें अपने चेहरे को पहचान पा रहे हैं? या उस पर पहले ही मशीनों की परछाइयाँ पड़ चुकी हैं?

एक दृश्य में यह प्रश्न उठा कि अगर हम ख़ुद ही प्रदूषण फैलाते हैं, और फिर कृत्रिम बारिश से उसे साफ़ करने की कोशिश करते हैं, तो अस्ल में हम कर क्या रहे हैं? हम समस्या हैं या समाधान?

नाटक के कई दृश्य ऐसे हैं, जिनकी संवाद-रचना दर्शकों को भीतर तक झकझोर देती है। जब आकाश और समीर पृथ्वी की बर्बादी पर बहस करते हैं, तो वह सिर्फ़ संवाद नहीं होता — वह दर्शकों के लिए एक दर्पण बन जाता है, जिसमें वे अपनी जीवनशैली, आदतों और भविष्य की दिशा को देख सकते हैं।

हम जिस तरह का जीवन आज जी रहे हैं — पर्यावरण के प्रति उदासीन, तकनीक पर निर्भर और सहज मानवीय संबंधों से कटे हुए — यदि यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब सड़कों पर हर इंसान ऑक्सीजन मास्क लगाकर चलेगा।

नाटक की शुरुआत धीमी गति से होती है, लेकिन जल्दी ही अपनी लय पकड़ लेता है। मंच पर केवल दो अभिनेता होते हुए भी नाटक कहीं भी एकरस नहीं लगता। आलम नूर और बलराम झा की संवाद अदायगी और शारीरिक अभिव्यक्तियाँ इतनी प्रभावशाली थीं कि दृश्य अपने आप आकार लेने लगे।

प्रकाश परिकल्पना उज्ज्वल वत्स और उत्सव वत्स की थी, जिन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद दृश्य प्रभावों को मजबूत बनाया। संगीत संयोजन आर्यन प्रकाश द्वारा किया गया था, जिसने पूरे नाटक को एक संगीतमय गति दी। मंच संचालन रहमान द्वारा सहज और प्रभावपूर्ण रहा।

नाटक का केंद्रीय संदेश स्पष्ट है—तकनीक तब तक ही उपयोगी है, जब तक वह मनुष्य और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखे। यदि तकनीक हमारी भावनाओं, हमारी सोच, हमारे महसूस करने की क्षमता को नियंत्रित करने लगे, तो हम इंसान कहाँ रह जाएँगे?

‘2147’ हमें बताता है कि हमारी वर्तमान जीवनशैली—जिसमें भोजन, पानी, हवा और यहाँ तक कि हमारी इच्छाएँ भी बाज़ार और तकनीक से तय हो रही हैं—हमें धीरे-धीरे उस बिंदु की ओर ले जा रही है, जहाँ ऑक्सीजन मास्क, सिंथेटिक भोजन और आभासी संवेदनाएँ ही हमारी हक़ीक़त होंगी।

लेखक ने अंत में एक बेहद मार्मिक प्रश्न उठाया है—जब सारी तकनीकें मनुष्यों द्वारा मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए बनाई गई थीं, तो क्या ये तकनीकें हमें यह नहीं बता सकतीं कि यदि जंगल, ज़मीन, पानी और आसमान न बचे—तो हम भी नहीं बचेंगे?

इस प्रस्तुति की सबसे सराहनीय बात यह रही कि यह एक युवा टीम का प्रयास था। सीमित संसाधनों में भी उन्होंने एक विचारोत्तेजक, प्रभावशाली और कलात्मक प्रस्तुति दी। युवा रंगकर्मियों की यह पीढ़ी अब सिर्फ़ मनोरंजन नहीं करती, बल्कि संवाद रचती है—एक बातचीत, जो समाज, समय और संवेदना के बीच पुल बनाती है।

यह नाटक केवल एक कल्पना नहीं, बल्कि एक स्पष्ट चेतावनी है कि अगर हम अब भी नहीं चेते, तो तकनीकें हमारे लिए सुविधा नहीं, विनाश बन जाएँगी।

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