कवियों के क़िस्से वाया AI
हिन्दवी डेस्क
12 अक्तूबर 2025

कभी-कभी कवि का प्रेम शब्दों में नहीं, बल्कि उन शब्दों के बीच की निस्तब्धता में छिपा होता है। वह प्रेम जो दिखता नहीं, पर हर पंक्ति में स्पंदित रहता है—मंद, गूढ़ और अनाम। कवि जयशंकर प्रसाद के जीवन और कवित्व में भी यही रहस्य था—एक ऐसा आवरण जो कभी पूरी तरह उठा ही नहीं।
कहते हैं, एक दिन उनके अत्यंत निकट के मित्र ने बड़ी सहज जिज्ञासा से पूछा—“प्रसाद जी, आपकी प्रेम कविताएँ तो दिव्य हैं। पर यह तो बताइए, आपका प्रिय कौन है—स्त्री या पुरुष?”
जयशंकर प्रसाद मुस्कुराए। वह मुस्कान वैसी थी, जैसी किसी साधक के होंठों पर ध्यानावस्था में उतर आती है—न संयम की, न उपहास की; बस एक आत्मीय मौन की। फिर उन्होंने धीरे से कहा, “उसने मेरे सामने परदा नहीं उठाया कभी।”
यह एक वाक्य मात्र नहीं था—यह जयशंकर प्रसाद के संपूर्ण प्रेम-दर्शन का सार था।
उनके लिए प्रेम किसी देह का विषय नहीं था, वह एक चेतना थी—जो रूप बदलती रहती है, किंतु अपनी उपस्थिति नहीं खोती।
उनका प्रेम, जैसे कामायनी की इड़ा और मनु के संवादों में बहता है—वह दार्शनिक भी है, और भावनात्मक भी। उसमें स्पर्श से अधिक संवेदना है, मिलन से अधिक प्रतीक्षा। उनके शब्दों में प्रेम का रूप कभी पार्थिव नहीं हुआ, वह सदैव किसी अदृश्य पारलौकिक राग में घुला रहा।
उस मित्र को शायद उत्तर न मिला हो, पर कवि ने जो कहा, उसमें अनगिनत उत्तर छिपे थे। जयशंकर प्रसाद के लिए प्रेम वह शक्ति थी, जो उन्हें ‘नारी’ में सौंदर्य और सृजन, और ‘पुरुष’ में बल और संयम के रूप में दिखती थी।
उन्होंने अपने युग से पहले ही यह पहचान लिया था कि प्रेम का कोई लिंग नहीं होता—वह तो आत्मा की प्रवृत्ति है, देह की नहीं।
उनकी कविताओं में नारी कभी किसी पुरुष की परछाईं नहीं, बल्कि स्वयं एक पूर्ण अस्तित्व है—“लाज से लाल कमल-सी मुख-रचना”, या “अलसाई सी आँखों में सावन की बदली”—ये केवल रूप-वर्णन नहीं, बल्कि एक आत्मा के प्रस्फुटन के प्रतीक हैं।
वे स्त्री को देखते नहीं, अनुभव करते हैं।
और यही कारण है कि जब किसी ने यह पूछा कि “प्रिय स्त्री है या पुरुष?”, तो कवि को लगा मानो प्रश्न बहुत छोटा है—उस गहन अनुभूति की तुलना में, जिसे उन्होंने भीतर जी लिया था।
जयशंकर प्रसाद के यहाँ प्रेम एक दर्शन है, जहाँ प्रिय की पहचान महत्वहीन हो जाती है। जैसे कोई साधक ध्यान में बैठा हो और कहे—“मैं ईश्वर को नहीं जानता, पर उसकी उपस्थिति हर क्षण महसूस करता हूँ।” उसी तरह प्रसाद का प्रिय भी किसी नाम, किसी रूप, किसी देह का नहीं था—वह एक अनुभूति थी, जो कविता बनकर उनके भीतर से फूट पड़ती थी।
शायद यही कारण है कि उनकी कविता में प्रेम का रस कभी अस्थायी नहीं लगता। वह किसी चुम्बन, आलिंगन या विरह तक सीमित नहीं; वह उस मौन तक पहुँचता है जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं और केवल भावना बची रहती है।
“उसने मेरे सामने परदा नहीं उठाया”—यह परदा दरअस्ल उनके भीतर के उस रहस्य का था जो कवि और उसके प्रिय के बीच सदैव विद्यमान रहा।
कवि जानता था कि अगर परदा उठ गया, तो रहस्य समाप्त हो जाएगा; और रहस्य के बिना प्रेम का सौंदर्य भी न रहेगा। शायद इसलिए उन्होंने उस अनदेखे प्रिय को कभी देखने का आग्रह नहीं किया—क्योंकि वही अदृश्यता, वही अबोला, उनकी कविताओं को शाश्वत बना गया।
समय बीतता गया, पर वह उत्तर आज भी हिंदी साहित्य की स्मृतियों में गूँजता है—“उसने मेरे सामने परदा नहीं उठाया कभी।”
और जब हम जयशंकर प्रसाद की कविताएँ पढ़ते हैं, तो लगता है जैसे वह परदा अब भी वहीं है—हल्का, सुगंधित, रहस्यमय—और उसके पार कोई प्रिय मुस्कुरा रहा है, जो कभी प्रकट नहीं होता, पर हर शब्द में जीवित है।
वही तो प्रेम है—जो दिखाई नहीं देता, पर कवि के भीतर अनंत तक जलता रहता है।
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