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कहानी : सुरमेदानी

“माँ मरी नहीं थी। वो मेरी उन तमाम प्रेमिकाओं में ज़िंदा हुई, जिनसे मैंने प्रेम किया।”

जानते हो बीकानेर में उस रात की आँखें उतनी ही अंधी और आबनूसी थी, जितने कई मनुष्य सब कुछ होते हुए भी ज़िंदगी से नाउम्मीद हो जाते हैं। रात इतनी तो साँय-साँय।।। साँय-साँय अकेली गाती पगलाती हवा, खिड़कियों के शीशे पर धड्-धड्-धड् गुम्मे की मार से खंडित होती गिरती-पड़ती-उठती, फिर उड़-उड़ जाती।

“क्या बहुत ज़्यादा अकेली हो हवा? क्या ज़्यादा सुरापान कर आई हो?” उसका हाथ पकड़ इत्मिनान से बिठा प्यार से यही कहने की इच्छा थी मेरी। पर एक अकेला दूसरे अकेले को क्या मरहम दे पाता? बाहर बालकनी में रखी बाल्टी भी उसी मयकशी में हवा की दिशा पर गरड्ड्ड्।।। गरड्ड्ड।।। गरड्ड्ड।।। करती अकेली पर रसीले सुंदर नृत्य में डूब, मनभर मगन रही पूरी रात।

ओह! कितना बजा होगा? रात दो चालीस से ठीक पहले मैंने यही सोचा। जब घबराकर अपने पैरों के तलवों, अंगुलियों, गोल ठोस एडियों को अंगारों पर जलते देखा। फिर लाल कोयले की संगत में अपनी आवाज़ को फतह-फतह-फतह की हुँकार जगाते, बड़बड़ता उठ बैठा था।

यों बीकानेर के गाँव कतरियासर मैं क्यों जाता, उस कच्चे गाँव से क्या परिचय था मेरा। हाँ जोधपुर की तरफ़ आवक-जावक पगतलियों की रेखाओं में वहाँ जन्म लेने के साथ ही खिंचकर आई थी। मालूम कहाँ था बरसों से सुनी हुई लालगढ़ की उस्ता कला देखने की तीखी इच्छा वहाँ पहुँचकर एक घिन, ऊबकाई के साथ ख़त्म होगी। ऊँट के चमड़े पर सोने की मीनाकारी और मुनव्वर किसी मासूम की धड़कन-साँस को हमेशा के लिए दबा अपनी शान-शौकत के टीले को चमकाती रही होगी।

तो ये सोचकर ऐसी घृणा मन में आई कि उसने विरक्ति का हाथ पकड़ा और पूरी तरह मुँह मोड़कर वहाँ से चला गया। फिर तीन सौ किलोमीटर दूर हल्ला पाड़ती, टेर लगाती रेगिस्तान की बजरी और रुंखड़ों की छाती पर दौड़ती बस में जा बैठा। ठीक उतरा कतरियासर।

वो मुझे वहीं मिली। उसके चौंक पड़े माथे के सलों के ठीक नीचे गालों के गड्ढों में, मैंने ख़ुद को ढूँढ़ना चाहा पर सब ख़ाली था। उसे पानी भर स्टील का गिलास दिया और ख़ुद बोतल से ही पानी पीकर फिर आहिस्ता-आहिस्ता कहने लगा—”जबकि वो फूल ही था, ठीक-ठीक फूल ही था, जो प्रेम की चमड़ी में चुभता था और माँ को ख़ुश करने का भ्रम देता था। जानती हो बरसों पहले उस फूल में छिपा, छिला ये वाक्य टंगा था—माँ का प्रेमिका होना। मेरी माँ प्रेमिका थी। जानती हो फूल में छुपे इसी वाक्य ने छि!।।। थू!।।। के साथ गर्भ धारण किया था। इसी घृणा में मुँह टेढ़ा करना, फिर इसी घृणा में इस वाक्य को घोर, अनैतिक घोषित कर प्रेम जैसी ज़बान को तीखी ब्लेड से काट देना जैसा पुण्यकर्म, क्या कुछ और भी हो सकता था भला मेरे पिता के घर में?”

ये बोलने के बाद बहुत देर तक मेरी आँखें बंद रहीं। कुछ देर पहले विक्स में डूबी उसकी अंगुलियाँ मेरे माथे के दर्द पर घूम रही थी। ये सुनने के बाद वो अंगुलियाँ घूमना भूलकर थम गई। कमरा नीलगिरी के तेल, मेंथॉल और कपूर से महक रहा था। लंबे समय बाद मैंने आँखें खोली, और उन्हें पास ही रखी नीली विक्स की डिब्बी पर रख दिया। अब वहाँ था दो चुप एक कमरा।

जब यह पता न था कि जसनाथीजी के धोरे में जागते अग्नि नृत्य, ख़ुद के भीतर वाले सारे नियंत्रण, सिद्धि-रहस्य और कीर्तनियों के राग-रागिनियों वाली रतजगी सौंध मुझे इतना खींच डालेंगे। दुर्गम सत्य के साढ़े पाँच सौ बरसों में लिपटाकर उस बीकानेरी खेड़े ने मुझे अपनी ओर इतना बुलाया कि वहाँ से लौटकर भी कभी न लौट पाया।

फिर हर रात की तरह नींद में ‘फतह-फतह-फतह’ चिल्लाता रहा। उस रात भी हवा की साँय-साँय में लिपटे हुए उस तांत्रिक पहर त्रियामा में अपने ही जले, फफोले उगे पैरों को देखने की ओर दौड़ पड़ा।

अब साधु होकर भी ठीक थोड़ी देर पहले यही पैर अपराजिता-सी बैंगनी किसी नाज़नीन के साथ समुद्र की लहर में बस पैर डुबाने को दो इंच दूरी पर था। इतनी भावनात्मक उथल-पुथल? या तो लेखक में हो सकती है या समुद्र की गहराई में। पर ना मैं समुद्र था, ना ही लेखक।

मुझे दुनिया अब साधु कहती थी, जिसके सपने में आती थी कई स्त्रियाँ।

स्वप्न-विज्ञान और समुद्र-शास्त्र ऐसे उथल-पुथल वाले को भीतर से ख़ूब भीषण टूटा हुआ मनुष्य मानते हैं। पर नज़र तो दौड़ाओं, टूटा हुआ कौन नहीं है यहाँ संसार में। बोलो?

नाक ने झट्ट साँस लेना रोका, पलकें झट्ट खुली। झट्ट से अँधेरे ने मुझे हड़बडाहट में ढूँढ़ा। झट्ट मैंने ऐड़ी, तलवों और अंगुलियाँ को ढूँढ़ा—सहलाया। सब अपनी जगह सही बंदोबस्त में था। रात की साँस भी ठीक अपनी ही जगह थी। जहाँ ईश्वर ने उसे रख छोड़ा था, पर अब मेरी नींद कभी रस्सी पर लटककर, कभी खूँटी पर टंगकर, कभी बाल्टी में भीगकर, कभी पंखे पर घूमकर, कभी ओढ़ी चादर के अदेखे छेदों से निकलकर भागती रही।

कतरियासर में सिर्फ़ मेरा शरीर था। आत्मा बरस हुए कहीं एक जगह नहीं रह पाई और अब नींद भी अपनी जगह पर नहीं थी। कुछ समय से मैंने रात नींद में बड़बड़ना भी शुरू कर दिया था।  ये उसी ने बताया जो अधूरे दो सालों से ठीक इसी घर में रहती थी पर अब नहीं रहती।

“काश! कोई एक रात तो आए नींद।” मेरी बड़बड़ बाहर आई।

“काश तो एक अ-समझदार प्यास है संसार की, जो सारी नदियों का पानी पीकर भी प्यासी रही।” माँ से कई बार सुना था। फिर माँ याद आई। अड़तीस साल का बेटा कहने लगा, “ओ माँ! मुझे सुलाओ,  ढूँढ़ों ना टोटका कोई। ये गद्दार नींद आ भी जाए अब।”

तिनके-सी हल्की चुभती रोती आवाज़ ज़बान पर आई। मैंने मुठ्ठी बंद कर दायाँ हाथ गदेले पर मारा। रुई दबी और बन आए गड्ढे में उस पुरानी अंतिम शाम की उन बातों को सुनता रहा, जो मैंने जो दो साल साथ रही स्त्री से की थी। जिसे अग्नि ने पत्नी कहा था।

“नफ़रत कैसे कर सकती हो तुम काँटों से, जिसने अपने रंग न्यौछावर कर दिए अमलतास, गुलाब, कचनार पर। जो काँटे मोगरे, केवेड़े, चमेली को अपनी मधुगंध देकर फिर माँग न पाए। उनसे नफ़रत है तुम्हें? अपनी सारी नाजुकता शिमुल, नलिन, मधुमालती को बाँट—जो ‘उफ्फ’ तक न बोल पाए। ये काँटे बिचारे।।। आज वही काँटे, बुरे, बदरंग, गंधहीन हो गए?”

उसने चावल से भरी, ऊपर उठी चम्मच थाली में वापस रख दी।

“अपने दुख को कोसना ग़लत जीवन जीना है।” बोलते हुए मेरी नज़र उस निवाले पर थी, जिसे उसने जल्दी से निगल डाला। गले की हड्डी ऊपर आई, नीचे बैठी। मैंने उसकी गले की हड्डी और नसों को ध्यान से देखा। उस वक़्त से ये जाना कि डर का कोई जेंडर नहीं होता। 

फिर आँखों की साँस रोके गहरे रंग से वो मुझे सुनती रही—”फूल झूठा सब्जबाग़ हैं, काँटे सच्चाई की मजबूत सड़क। हर लड़की को काँटों से नहीं फूल से डरना चाहिए।”

ये अंहकार कैसे रखूँ कि मैंने उसे आज़ाद किया। जबकि मैं जानता था कि अन्य पुरुष के प्रेम ने उसे आज़ाद किया था। 

मुझे साँस लेने में तकलीफ़ होने लगी, पूरा दम लगाकर लंबी-लंबी साँस खींची। कुछ देर बाद भभका उफ़ना। उफ्फ।।। की ध्वनि के साथ दो आँसू, साँस पकड़कर बाहर आए। मैंने सिर झुका लिया। आँखों का गीला नमक लंबी धार में बहता हुआ—नाक, गाल ,होंठ, ठुड्डी, गले को छूता हुआ अब मेरी गोद में माँ बनकर सो रहा था। ‘माँ’ मेरे मुँह से नरमाई लिए ये शब्द छूटा। आँसू तेज़ हो गए। उसने बच्चे की तरह मुझे गोद में दबा लिया। उस पूरी शाम और रात मैं अपनी पत्नी की गोद में रोता रहा। जब तक वो सुबह हमेशा के लिए चली न गई और मैं फिर अकेला हो गया।

~

रात के तीन से ऊपर बज चुके थे। हाथ, पीछे लगे स्वीच पर गया। लाइट जली। यूँ ख़ुद से कहता रहा—”माइग्रेन की दवा कहाँ रखी है।”

“हाँ, शायद कल वाली पेंट की जेब में रह गई?”

“या शायद कार के ग्लो बॉक्स में हो?”

बड़बड़ाते हुए मेरा हाथ रात साढ़े तीन बजे अलमारी की दराज़ में टहल रहा था दवा ढूँढ़ता। मेरी ज़बान ज़्यादा गीली होकर फटे होठ की दरारों में इधर-से-उधर चल रही थी। कुछ देर दायाँ हाथ गाल पर बिछाकर बहुत देर तक अभी-अभी जलाई रोशनी को देखता रहा। मैं अब कोने रखी कुर्सी की गद्दी में भर चुका था, गद्दी से थोड़ी रुई बाहर देख रही थी। सिलाई कई दिनों से उधड़ी पड़ी थी। मैंने रुई को भीतर भेजा फिर वहीं कुछ ज़्यादा धँस गया।

वही वाला पर्स खोल लिया। जो कई बार खोला है। आँखें उस पर डाल दी। झुका रहा वहीं। माँ की तस्वीर थी। झीनी प्लास्टिक की पन्नी पॉकेट के पीछे। देर तक देखता रहा। फिर बायाँ हाथ गाल पर टिक गया और दायाँ टेबल पर पड़ा रहा। अक्सर किसी पुरानी तस्वीर और देखने वाली आँखों के बीच में बीते हुए बरसों का फासला एक बूँद में भर जाता है। इस वक़्त वही फासला बूँद होकर टप्प-सी नरम आवाज़ में तस्वीर पर ढुल पड़ा।

माँ की लंबी चोटी और कान को छूता हुआ बालों पर लगा फूल। दोनों भोंहों के बीच आधा इंच ऊपर हाथ से लगी वही गोल उदास लाल टिकुली। नाक पर सुनहरी पंच पत्तियों में बैठा उदास मोती का लोंग दमक रहा था।

‘माँ’—रुलाई-सा शब्द ज़बान से ढुलका। पर्स बंद हुआ। अब दोनों पैरों के बीच हाथों को फँसा उन्हें क्रॉस कर छूटी खुली अंगुलियाँ से जांघों को नीचे बेचैन हो टपटपाने लगा। शायद कुल चालीस सैंकड़ बाद मैंने फिर पर्स खोला। ‘माँ’ मैंने अंदर फिर बोला और काँपते-काँपते लगातार माँ की तस्वीर देखता रहा। उसमें चिपका कटघरा देखता रहा, उसमें लगा कीचड़ देखता रहा, बैसाखियों पर बैठी नैतिकता देखता रहा, माँ के प्रेम को मापता-तौलता इंचटेप और तराजू देखता रहा, तस्वीर में ‘बेशर्म औरत’ गढ़ी तख्ती देखता रहा।

वो कैसा तो सुरमे से नहाया गहरा निशिथकाल का पहर था। उसी पहर के एक अनजान टुकड़े में अचानक माँ मर गई। उसी पहर के किसी अनजान टुकड़े में रोते-रोते मैं अचनाक बड़ा हो गया। इतना बड़ा कि सुबह अपनी ओढ़ने वाली चादर ख़ुद समेटने लगा, अपने जूते की लेस वाली टाइट गाँठ बाँधना सीख गया, बिना नाम पूछे सब्ज़ियों को खाने लगा और मिर्च लगने के बाद पानी-पानी चिल्लाना छोड़, सिर झुकाकर नाक मसलते हुए बहता पानी पोछने लगा।

माँ के मरने वाले दिन मैं भी मर जाना चाहता था, पर पहले उस बुरे लकड़हारे को मारकर जो अक्सर माँ की कही कहानी में ऐसे आता—

“लकड़हारे बहुत बुरे होते हैं।”

“क्यों माँ?”

“उनके कारण चिड़िया के घोंसले बर्बाद होते हैं।”

तो क्या कहानी के उसी बुरे लकड़हारे ने माँ को जलाने के लिए लकड़ियाँ काटी थी?

दुनिया में नौ साल का कौन छोटा-सा बच्चा देख सकता है जलती हुई लड़कियों पर अपनी माँ को सोया हुआ? दौड़कर मैं आग में जलती माँ को बचाने भागा पर किसी गोद ने मुझे कसकर पकड़ लिया। उसी गोद में ऊपर-नीचे मसमसाते, मैंने पीछे खड़े पिता की आँखें देखी। मैं डर गया। वो किसी पिता की आँखें नहीं थी। वो किसी पुरुष की आँखें भी नहीं थी। ना वो किसी मनुष्य की आँखें थी, वो दुनिया की सबसे डरावनी आँखें दिख रही थी। तब मैं बिना आग में जले ही मर गया, उस क्षण और किसी ने मुझे बिना मरे, मरते हुए नहीं देखा। ना कोई ये जान पाया कि जब मैं यह पंक्ति लिख रहा था, “तब मैं बिना आग में जले ही मर गया था।”

इसे लिखने के कई बरस पहले ही ठीक उसी श्मशान में मेरा फिर से जन्म हुआ। मरने और फिर से ज़िंदा होने के बीच की ख़ाली जगह में हुआ मेरा पुनर्जन्म। कोई भी नहीं देख पाया। कोई ये भी नहीं देख पाया कि मैं आज भी वहीं उसी शमशान में खड़ा हूँ। जहाँ माँ जल रही थी, जहाँ पिता की आँखों में पिता नहीं थे, जहाँ मरने और ज़िंदा होने के बीच की जगह में एक नौ साल का बच्चा वहीं रह गया।

~

फूलों वाला बचपन था मेरा। जब माँ ज़िंदा थी।

“माँ तुम इतने फूलों के नाम कैसे जानती हो?”

“क्योंकि फूल मेरे प्यारे दोस्त हैं।”

मैं फिर पूछता, जब चमेली और मोगरे के फूल का अंतर न कर पाता।

“माँ तुम इन दोनों फूलों को कैसे पहचान लेती हो। ये दोनों तो सफ़ेद हैं ना। क्या तुम जादूगर हो?”

“क्योंकि मैं इन्हें प्यार करती हूँ ढेर-सारा।”

माँ हँसती। उनके साथ चोटी में लगा फूल भी हँसता। हँसते-हँसते वो मेरे पेट और बग़लों को गुदगुदाती देर तक।

मैं फिर माँ के बालों में इधर-उधर आठ-दस फूल लगाते हुए कहता।

“माँ सारे फूल सुंदर लगते हैं, पर तुम सबसे सुंदर हो।”

माँ क्या उत्तर देती थी इस बात पर। अब याद नहीं है, लेकिन उनके चेहरे पर बनी दोनों आँखें प्रेम की विशाल कथाएँ थी, जो हँसती हुई उदास पड़ जाती। इतना मुझे अपनी नासमझ उम्र से माँ के मरने तक की उम्र में भी याद रहा। मुझे हमेशा लगता उन प्रेमिल आँखों से कोई चमकता सितारा ग़ायब था। कभी-कभी ‘खाली स्थान भरो’ जैसा निर्देश कुछ मुझे माँ की आँखों में लिखा दिखता तब।

भगवान ने माँ के साथ मुझे केवल नौ बरस दिए। छुटपन में ही मुझे धीरे-धीरे लगने लगा कि माँ की आँखों में सीमेंट जमी है। तभी उसमें कोई फूल नहीं उगता। तब भी उन सीमेंट भरी आँखों में अक्सर किसी फूल के बीज को ढूँढ़ने की कोशिश करता, पर वो दिखता नहीं था। वो बीज था तो। हाँ पक्का था। छिपा-दबा कहीं।

हथिनी कुंड वाले बाग़ की ओर अक्सर छुट्टी के दिन या किसी रविवार को मैं, माँ के साथ जाता। वहीं बाग़ के पीछे हथनियों के सूंड जैसी लंबी-लंबी चट्टानों से घिरी तलाई में एक बावड़ी थी। सुप्ती, सूखी रेगिस्तानी सेवण घास और धामण घास के झुंडों से घिरी पुरानी ‘बादल बावड़ी’। उसमें नीचे उतरती गहरी कई सौ सीढ़ियाँ थी। उनके किनारे गहरे कुंड की ओर जाते खुले लंबे खोर, महराबों, बेलबूटों, झरोखों, कलात्मक चित्रों, दशावतारों, वरांडों, छतरियों, चबूतरों और जीर्ण हो रहे स्तंभों पर पौराणिक देवी-देविताओं की नक़्क़ाशियों में कई पुरानी शताब्दियाँ छूटी हुई थीं। पानी और बावड़ियों की कितनी ही भव्य और अनोखी कथाएँ माँ मुझे हमेशा सुनाती। किसी पत्थर की छतरी के नीचे हम शाम तक बैठते। जहाँ बाजरे की खीच, सोगरा, केर, कुमटिया, सांगरी की साग, बेसन के गट्टे भी मेरे मुँह में घुलते हुए ये कहानियाँ सुनते जाते।

“माँ ना ज़रूर पानी की साइंटिस्ट हैं या रानी, तभी तो पानी की हज़ार कहानियाँ उन्हें पता हैं।” मैं हर बार कहानी के बाद यही सोचता रहता।

वहीं तलाई में दूर-दूर तक फैले खड़े बीर, फोग, खेजड़ी, जलखरा, पीलू, रोहिड़ा, बोरड़ी के पेड़ माँ मुझे हमेशा छुआती। फिर उनके नाम-गुण की कहानियाँ सुनाती। मैं सोचता—“क्या माँ पेड़ों की भी रानी है? वो इतना सब कैसे जानती है?” अगली बार जब हम वहाँ आते तो वो पेड़ों के नाम-गुण पूछती। मैं कई बार ग़लत उत्तर देकर यही कहता—“भूल गया माँ।”

वो दंड़ में मुझसे सरगम सुनती और एक आलाप मेरे साथ गाती। मधुरस-सी उनकी आवाज़ के साथ पेड़, तिनके, सूखे पत्ते, चट्टानें, सूखी बावड़ी, छतरियाँ, वहाँ खड़े स्तंभ, झरोखे, पत्थर गढ़े चित्र सब गाते से लगते मुझे। माँ देर तक गाती रहती। तब यों लगता था कि माँ संगीत से बनी है। मैं लगातार उनको देखता-सुनता, साथ टूटा-फूटा जोड़ता ख़ुश-ख़ुश गाता।

माँ गोल बालियाँ पहनती थी। उसके बीच में लाल नगीना जड़ा अर्धफूल में पड़ा था। वो सूखी बावड़ी के पास ज़मीन पर पड़ा टूटा फूल-सा दिखता मुझे। माँ की लंबी चोटी में पूरे दिन ठहरने वाला फूल मुझे कभी मुस्कराता हुआ नहीं दिखा। बादल बावड़ी के महाराबों के पास जब माँ अपनी चप्पलें खोलती, साड़ी खोंसती तो सूखी घास पर पड़ते उनके पैर मुझे मुरझाए फूलों की तरह लगते। जब कभी माँ साड़ी पहनती तो उनकी गोल नाभी, संसार के सबसे सुंदर दुखी फूल की तरह मुझे देखती रहती। मैं दौड़कर माँ का पेट चूमता, पर मैं पेट नहीं उस दुखी फूल को चूमना चाहता था ताकि उसके दुख दूर हो जाएँ। जब तक छोटा था यही समझता रहा माँ फूलों का उदास गुच्छा हैं।

कभी-कभी किसी रात माँ मेरे पास नहीं होती, तब वो पिता के कमरे में उनकी फ़ाइलें, पन्ने, काग़ज़, दस्तावेज़ जमाने-जँचाने में लगी रहती। वो पिता का पढ़ने वाला कमरा था। उसी कमरे में वो रातभर काम करती, तब मुझे अकेले सोना होता। माँ को लगता कि मैं सो गया हूँ तो वे चुपचाप चली जातीं। पर उन्हें पता नहीं था कि पूरी रात कई-कई बार मैं दरवाज़े की झिर्री से माँ के लौटने का सुबह तक इंतज़ार करता।

दूसरी सुबह माँ के बाल खुले होते। वो धुले-खुले-गीले घुँघराले लंबे बाल मुझे फूलों का झरना लगता। पर वो फूलों का झरना उस सुबह और दिनों की अपेक्षा ज़्यादा ही उदासी ओढ़े क्यों रहता था? जान न पाता। फिर मैं माँ के खुले बालों को सूँघता। ख़ुश करने की कोशिश करता। अपने मुँह पर लंबे बालों को गिराकर उनसे खेल करता। मैं उस पूरे-पूरे दिन सोचता—“काश माँ पिताजी के उस पढ़ने वाले में कभी ना जाए, कभी ना जाए।”

उस बादल बवाड़ी के आस-पास सर्दियों में उड़ते सुंदर गर्दन, लंबी टांगों वाले क्रौंच पक्षियों को देखती माँ कभी-कभी अकेले बैठी कोई लोकगीत गाती रहती—“।।।पाँखों पै लिखूं थारै ओलमो।।।” उस गीत में क्रोंच पक्षियों का एक प्रेमी जोड़ा होता, ख़ूब प्रेम होता, फिर किसी एक प्रेमी क्रौंच पक्षी की मृत्यु होती, प्रेम-प्रतीक्षा में पीड़ित लोकगीत का दुख भरा आख्यान माँ गाती रहती। उस गीत में अकेले रह गए क्रौंच का खाना-पीना छोड़ देने वाला अंत होता और माँ अपनी साड़ी के पल्ले से अपनी आँखें पोंछती रहती। उनको लगता में खेल रहा हूँ, गाने की तरफ़ मेरा ध्यान नहीं। पर वो कहाँ जान पाती कि पूरा मन उन पर, उस लोकगीत पर रहता। सिर्फ़ शरीर खेलता। तब उस समय गीत की मुझे कितनी समझ पड़ती थी याद नहीं। पर गाते हुए उनकी आँखें देखता, उस लोकगीत के साथ ही मुझे माँ की आँखें कभी दुखी फूल, कभी मुरझाते फूल, कभी मरते फूल जैसी दिखने लगती थी। शाम घर लौटते तक भी मैं उनकी आँखों में दो सुंदर प्रेमी क्रौंच पक्षियों की पीड़ा पाता। कुछ देर बाद जैसे-जैसे घर पास आता, माँ की आँखों में बहुत कुछ रुखा, रसहीन ओघ पनपने लगता, जैसे वो घर नहीं आना चाहती हों।

घर?

हाँ, तो वही घर। जिसके कुछ दूरी पर बारहवीं शताब्दी में खोदी गई सूखी पड़ी ‘बादल बावड़ी’ थी। वही घर जिसका लंबा गलियारा अट्ठारह मार्बल के दहाड़ते शेरों के मस्तक से जुड़े ख़ूब ऊँचे पिलरों पर खड़ा था। वही घर जहाँ इतने कमरे थे कि मुझ बच्चे की अंगुलियाँ गिन भी न पाती। बलुआ पत्थर से जुड़ा चौड़ा विशाल आँगनवाला वही घर, बचपन से जिसका फैलाव मेरी छोटी आँखों से कभी ख़त्म होता नहीं दिखता था मुझे। वहीं बीच खड़े सफ़ेद मार्बल से काटे गए कमल की पंखुड़ियों में खड़े फव्वारे और बेलबूटों, नक़्क़ाशियों से भरे चौक और ऊँची दीवारों वाला घर। वही घर जिसमें दुनियाभर के इतने उदास फूल थे कि हँसने को तरसते थे, जिनको माली ज़बरदस्ती भरपूर पानी खिलाते-पिलाते दिखते। पर भी फिर उदासी क्यों? तुम पूछोगे कितना बड़ा घर? मैं कहूँगा नहीं, पहले सोचूँगा, फिर दुखी होऊँगा, फिर कहूँगा—“उतना बड़ा घर, जितना कि नहीं होना चाहिए था, जहाँ सब खो जाए।”

बिल्कुल ऐसा ही रसहीन, सूखा ओघ मैंने उस शाम उसकी आँखों में देखा था। जिसे अग्नि ने मेरी पत्नी कहा था। जैसा माँ की आँखों में मुझे हथिनी कुंड से घर लौटते समय दिखता था। अभी मेरे हाथों ने बाहर रस्सी पर सूखे कपड़ों की गाँठ पलंग पर धड़ाम गिराए ही थे कि मेरी कोहनी पर पहले से लगी चोट दीवार से रगड़ खा गई। सेफ्रोमाइसिन लगाते हुए दूर से ही लगा उसकी आँखों में माँ की आँखें बैठ गई हैं। तब दाल-चावल खाते हुए, मैं काँटों से उन फूलों पर आया जो माँ के भाग्य में आकर केवल प्रेम का भ्रम प्रकट करते थे। दरअस्ल वे फूल, काँटे थे।

“जाना है?” मैंने पत्नी की रसहीन आँखों से पूछा। रसहीन आँखों ने कोई उत्तर नहीं दिया।

“हमारा प्रेम, फूल होने का भ्रम है।” स्टील के गिलास में पानी देते हुए, मैंने हँसी से कहा।

वो सिर्फ़ मुझे देखती रही। कुछ देर बाद मैंने फिर कहा—“फूल झूठा सब्जबाग़ हैं, काँटे सच्चाई की मजबूत सड़क। हर लड़की को काँटों से नहीं फूल से डरना चाहिए।”

उसके बाद हम दोनों ने अमीर ख़ुसरो की रुबाइयों पर ढेर बातें की, सर्दी इस साल कितनी ज़्यादा पड़ेगी, आने वाले वीक नेटफ़्लिक्स पर कौन-सी न्यू सीरीज़ आएगी, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस कैसे सब कुछ नकली और बर्बाद कर देगा, पिंक पास्ता में चुकंदर का रस कितना डाला जाए और अंत में अमेरिका का वीजा मिलना अब कितना मुश्किल हो गया है, पर रुककर हमारी अंतिम बात भी यहीं ख़त्म हुई।

यही वो एक घंटा था जिसमें ना मैंने उससे पूछा—“मैं क्यों नहीं?”

ना उसने मुझे बताया—“तुम क्यों नहीं?”

“इसकी माँ को इसके ही पिता ने तो।”

नौ की उम्र से जो आवाज़ें भीतर पेटियों मे बंद थी, वे ताले तोड़ने की कोशिश करने लगी; पर मैंने उस कोशिश को नाकाम कर दिया।

दुनिया भर की प्रेम कहानियाँ पढ़ते हुए हमारी आँखें डूबती हैं। गाल लाल होते हैं। अपने प्रेमी-प्रेमिका याद आते हैं। क्षण, दृश्य वही अच्छे लगते हैं—जो केवल सुनहरे हैं, चमकीले हैं। सच की ज़बान “मेरा यहाँ क्या काम” कहती कंबल ओढ़ तसल्ली से मुँह ढाप सो लेती है। पाठक के कान... “बाँहों में चले आओ, हमसे सनम क्या पर्दा”, प्रेम गाती प्रेमिका की दूर से ही सही मीठी पदचाप व अदाओं पर पुष्पवर्षा करते हैं।

पर असल ज़िंदगी में पूछो ना, मन का खुला प्रेम करती औरतें कैसी होती हैं?
आवाज़ें आती हैं—“बेहया हैं!”

“हाँ…हाँ…बेहया हैं!”

मन का प्रेम करती ऐसी औरतें बहते मवाद पर इत्र छिटककर नाक को बेवक़ूफ़ बनाने का यत्न है।

मैंने कई-कई स्त्रियों से प्रेम किया और उस प्रेम में, उनके बचपन को मैं बच्चा होकर सुनता रहा। मेरी पहली प्रेमिका को ऊँचे स्टूल, ऊँची कुर्सी, ऊँची दीवार पर बैठने से डर लगता था—कहती यूँ थी कि आठ की उम्र में ऊपर से गिरकर उसके सामने के तीन दाँत टूट गए थे जो बारह की उम्र में आए। तब बड़ों के लिए ‘बेचारी’ शब्द होकर तरस खाने का टारगेट बनी वो और चिढ़ाते हुए दोस्तों के लिए ‘बोकली बुढ़िया’ की मौज रही वो।

सीधे हाथ में छह अंगुलियों वाली एक प्रेमिका थी। वो बेहतरीन जादू जानती थी। दुनिया की महान् जादूगर बनना चाहती थी, पर क्या मैं अपनी प्रेमिका के बारे में यही दो बातें जानता था? नहीं? पर ये दोनों शब्द ‘डर’ और ‘जादूगर’ परस्पर विरोधी और विलोम हैं। मैंने ये जानने की कोशिश नहीं की? फिर एक रात उसका बचपन मेरी छाती पर आँसू बनकर बहता रहा। अब मैं हर स्त्री का डर जानता था।

वो मेरी एक प्रेमिका क्यों पर्स में ढेर सारी सौंफ रख बार-बार मुठ्ठी भर-भर चबाती, घड़ी को कलाई पर लटकती-सी इतनी ढीली बाँधती कि घड़ी बाहर को अब भागी तब भागी। जाने के सारे रास्ते खुले रहें, कोई बंधन नहीं हो। क्यों वो नूडल्स भी हाथ से खाती थी, जबकि जापानी चॉपस्टिक से खाने की कलानेरी से वो भरी थी। उस प्रेमिका की जीवन में अपनी खींची लकीरें थी, उन्हीं पर वो चलती थी। मैंने उससे कई बार कहा—“तुम्हारी अपनी बनाई लकीरें मेरी भी फ़ेवरेट लकीरें हैं।” तब वो हाथ हिला घड़ी डुलाने लगती।

क्यों मेरी कोई प्रेमिका सड़क क्रॉस करने में इतना ख़ौफ़ खाती थी बचपन से? क्यों कोई कपड़ों और पैर के साइज से एक नंबर बड़ा साइज़ पहनती? माथे पर लगी चोट के निशान की कहानी का बचपन क्या है? क्यों कोई सगा बनता रिश्तेदार को देखकर लाल रस्सियाँ उग आती हैं उसकी आँखों में? क्यों किसी प्रेमिका ने बचपन में अपनी गुडियाँ के जो नाम रखे थे, उन्हें वे कभी नहीं भूल पाती। इन स्त्रियों को सुनते हुए, बचपन की उस सूखी बादल बावड़ी में जल भरने लगा था।

दुनिया की तमाम प्रेमिकाओं के पास इतनी बातें हैं, इतनी कहानियाँ हैं, बचपन है; पर सुनने वाले कहाँ हैं? कौन हैं? कितने हैं?  मुझे लगता है कि धरती पर जितनी हवा नहीं, उतनी स्त्रियों के पास कहानियाँ हैं, बताने को बातें हैं।

जितनी प्रेमिकाएँ मेरे जीवन में आईं, मैं बस उनकी आँखों को देखता रहा, वहाँ जमी सीमेंट को हटाता रहा। फूल उगते रहे, मैं और वे अपना-अपना बचपन ज़िंदा करते रहे। प्रेमिकाएँ जाती रहीं-आती रहीं और मेरी माँ उन प्रेमिकाओं में ज़िंदा होती रहीं। मैंने माँ को कभी मरने नहीं दिया।

उन प्रेमिकाओं, उन स्त्रियों के बारे में सबकुछ जानना मुझे उतना ही ज़रूरी लगता था, जितना ये जानना कि क्यों कोई प्रेम से रिक्त माँ, पिता के अलावा किसी ओर से प्रेम नहीं कर सकती थी? माँ का प्रेमिका होना? माँ को प्रेमिका बनते देखना? प्रेम और माँ? क्यों ये दो विरोधी शब्द हैं?

एक दिन स्कूल से लौटते, जूते-मोजे फेंकते, बस्ता किनारे पटकते, निक्कर से बेल्ट निकालते और बोतल में बचा पानी क्यारी को पिलाते मुझसे सुरों की शहद लड़ियाँ टकराई—“सा-सा, रे- रे, ग-ग, म-म ,प-प ध-ध...”। कान खड़ेकर दौड़ा भीतर। वो आवाज़ वाला कमरा सबसे पीछे था। ठीक दौड़ वहीं रुकी। आँखों की झाँक हुई आह! कैसा सुरमेदानी के गहरे नीलेपन में लिपटी हुई आवाज़ थी। मैंने उन गाती आँखों को देखा जिसे सुनते हुए माँ मुस्करा रही थीं। मैंने दौड़कर पीछे से दोनों हाथ उनके गले में झूला दिए, अपने गाल उनके खुले बालों से टिका दिए। पूरा कमरा संगीत से खिलखिल करता था। वो गाती हुई सुरमेदार आँखें थी। वहीं से आता संगीत अब रोज़ खिलखिलाता हुआ घर की आँख में हिलमिलाने लगा था।

कैसा सूफ़ीपन था उस संगीत टीचर में, तसनीम अंदाज़, पीछे लंबी खजूर चोटी और सूरमे की गहरी लंबी लकीर आँख से बाहर तक ऊँची उठी हुई, महक में केवड़ा-सी, कमलगट्टे के बीजों-सा रंग, सूर्यसुता-सा तेज़ और कुशाघास-सी हरिता। माँ उनसे संगीत सीखने लगी थी। मैं रोज़ स्कूल से आकर उन्हें झाँककर देखता। वो हँसती आँख उठाकर मुझे देखती मुस्कुराती। मैं शरमाता फिर वो माँ को देखने लग जाती और मैं माँ के गले में झूल जाता। स्वर्ग में बहती नदी-सा कलकल खिलने लगा था सब ओर। माँ की आँखों में कुछ बदल रहा था। दिखने से अधिक महसूस होने लगा मुझे।

बाहर बरामदे में रखी संगीत टीचर की सिलिकेट ग्लास की डिज़ाइनदार चप्पलें और अँगूठे पर दो कथ्थई रंग के कशीदा से काढ़े फूल और उसमें सजावट करता गोल कट ग्लास का टुकड़ा, मुझे रोज़ स्कूल से लौटने पर दिखने लगा। दो मिनट चप्पलें देखना, उन पर पड़ती धूप का चिलका एंगल बनाकर अपनी आँखों में लेकर आँखें मचमचाना फिर तेज़ी से अंदर दौड़ जाना। ये अब मुझमें शामिल होने लगा।

कैसी ख़ुश दिखती थीं माँ उन दिनों। प्रेम से भरी हुई।

“ये क्या है माँ?” शाम एक सुनहरी-सी चीज़ उनकी हथेली की पकड़ में थी।

“सुरमेदानी”

“मतलब”

“ये आँखों को सुंदर रखती हैं।”

“ख़ुश भी?”

“हाँ”

माँ संगीत वाले कमरे की एक ताख पर सुरमेदानी रखकर चली गईं। मैं देर तक उस सुनहरी चीज़ को छूता रहा।

अब माँ सुरमा रोज़ लगाती। ठीक वैसा, जैसा संगीत की टीचर लगाती थी। मैंने देखा उनके आँखों में बसे फूलों की उदासी दफ़्न हो रही थी। मैं ख़ुश था और उस सुरमेदानी से चुपचाप बात करता जब कोई नहीं देखता। अब सुरमेदानी वाला कमरा मुझे खिले फूल की तरह लगने लगा। सुबह स्कूल की प्रार्थना में, शाम घर की पूजा में भगवान से यही कहता कि—“हे भगवान! संगीत टीचर कभी हमारे घर से ना जाए।” अक्सर संगीत टीचर माँ से सटकर बैठती। वो दोनों साथ आलाप लगाती। माँ की हथेली, उनकी हथेली पर होती और उनकी लंबी चोटी का फूल टीचर के बालों को छूता रहता।

अब मेरे हाथ उन दोनों के गले में झूलने लगते, तब माँ मुझे खींचकर गोद में दबा लेती और ख़ूब प्यार करती। मैं गोद में लेटा उनकी आँखों का सुरमा देखता रहता।

माँ के मरने के बाद मेरी पूरी कोशिश थी कि मेरी हँसी ना लौटे। मैं दोस्तों के साथ ना खेलूँ। नए खिलौनों की ज़िद ना करूँ। अपना जीवन बदसूरत कर दूँ, दूसरों से “बेचारा लड़का”—सुनता रहूँ और इन इच्छाओं के चलते मैं अपनी सारी संवेदनाओं को उस उजाड़-बीहड़ों, धवस्त-कनखड़ों, नफ़रती जंगलों में लेकर गया—जहाँ किसी का पत्थर से सर फूट जाने पर मैं ख़ुश होता, कुत्ता भौंकता हुआ किसी बच्चे की टाँग काट लेता तो ठहाका लगाता, कीचड़ में लिथपिथ सुअरों की ढूँ-ढूँ सुनकर उनकी लड़ाई का मज़ा लेता, टट्टी भरी खुली नालियों में पत्थर फेंकता हुआ छींटे उछालता चलता, गंदी गालियाँ सुनने उन झुग्गियों की ओर जाता जो स्कूल के पीछे थीं। गिरने से छिले हुए घुटने, कक्षा में लड़कों से रोज़ होने वाले झगड़ों में गहरे नाख़ुनों की ख़ूनी रगीटों का दर्द व माँ की गालियाँ इकट्ठा करता रहा। आवारा, अधम, बेहद नीच बनते हुए मैंने अपने जीवन को बद् से बद्तर किया।

इतना बदतर कि उम्र सत्रह तक आते-आते मैं चमड़ियों की लपक में पड़कर गंदी अँधेरी कोठरियों के दरवाज़ें खटखटाने लगा। कितने ही उजालों में मैंने छिपकर औरतों की छातियाँ देखीं, कभी आँखें तिरछी कर उनके उभारों की कल्पनाओं तक गया, कभी भीड़ वाली बस में तो कभी पुराने ठसा-ठस भरे बाज़ारों में आते-जाते जानबूझकर औरतों को छूता रहा। तो कभी रुपये देकर उनकी सहमतियों से। पिता पर लाल आँखें बिछाता हुआ, चाक़ू से तीखी आवाज़ का गला छिलता हुआ मैं घर से कई बार भागता रहा, लौटता रहा ।बढ़ी हुई दाढ़ी और पीले दांतों के साथ। लंबी बढ़ती उम्र के कई बरस तक मैं ख़ुद को बरबाद करने का आनंद उठाता रहा।

एक अँधेरे में वो कोई अँधेरी स्त्री ही थी। जिसने एक रात चमड़ी से बाहर होकर मेरे गाल पर गिरती बूँद को पोंछते हुए कहा था—“जब यही बूँद अंतिम दिन माँ होकर तुमसे पूछेगी—ज़िंदा दिखना नहीं था, ज़िंदा रहना भी था। क्या जवाब दोगे? उस अँधेरी स्त्री के आगे मेरा बचपन फूटकर रो पड़ा। तब अपने भीतर के सारे नियंत्रण वाले सिद्धि रहस्यों से जुड़ता हुआ अवचेतन मन के पाठों में अपनी किस हज़ारवीं परत को छू आया कि अपने भीतर लौटकर फिर कभी बाहर न लौट पाया।

वो माँ के साथ मेरी अंतिम रात थी।

जब सोने से पहले माँ ने मुझे गुलर के फूल की कहानी सुनाई—“कभी नहीं दिखता ऐसा फूल है ये,  कुबेर का वास है इसके पेड़ में, धनदेव की घोर आराधना बसी है डंठल-डालियों-पातों में।” कहानी के अंत में यही पूछा मैंने—“तो हम क्यों नहीं उगा लेते अपने आँगन में गुलेर माँ?”

“पर प्रेम नहीं देता। इसलिए पुराणों में घर-आंगन से दूर रखने की सलाह देते हैं गुणीजन। फिर धन का नहीं, जीवन प्रेम का मोहताज है।”

क्या ही समझ पड़ी थी माँ की बात? फिर उस रात सपने में गुलेर के पेड़ मेरे पीछे दौड़ते रहे मुझे पकड़ने। मैं चिल्लाता जाता था—“तुम में प्रेम नहीं, तुममें प्रेम नहीं।” चिल्लाते-चिल्लाते मेरी आँख खुली, मैंने माँ से चिपटना चाहा पर माँ नहीं थी बिस्तर पर। मैंने आँख रगड़ी। डरा। देर बैठा रहा। खिसका। किनारे आया। पैर लटकाए । उतरा और घसीटते हुए कमरे के दरवाज़े तक आया। वो बाहर से बंद था। नीचे झिर्री से झाँका। पिता के पढ़ने वाले कमरे की लाइट जल रही थी। माँ वहीं होगी सोचता हुआ। मैं झिर्री से झाँकता रहा बहुत लंबे तक। बस माँ के पैर दिख जाते। नहीं दिखे। माँ-माँ चिल्लाने की सोची, पर चुप रहा कुछ देर बाद घसीटता-सा बिस्तर पर लौट आया और माँ के तकिए को अपने मुँह पर रखकर सो गया।

ये तेज़ आवाज़ें थी।

लगा गूलर के पेड़ मेरे पीछे दौड़ ही रहे हैं। पक्का चीखने की आवाज़ें हैं ये उनकी—“पकड़ो, बाँधों।” मैंने माँ के तकिए को खींचा। चिपटाया। पैर दोनों आपस में फँसाकर डर से मोड़ लिए। चीखें तेज़ होने लगीं। मैं जाग गया और तकिया मुँह पर डाल लिया।

ध्अअडड्ड्ड्ड्ड्... दरवाज़ा खुला। रोशनी कमरे में एक आवाज़ में शामिल हो कूद पड़ी—“उठो! कितनी सुबह हो गई।”

“माँ कहाँ है?”

“उठो”

“तुम क्यों आईं? उनको बुलाओ।”

अब उल्टा पड़ा मेरा पेट गद्दे पर था। मुँह तकिए पर दबा जाता था। दोनों हाथ नीचे को फैले जांघ छूते जाते थे। मैंने घुटने मोड़े, पैर हवा में हिलाने लगा।
“जाओ ना माँ को बुलाओ।” मेरी जिद चालू रही।

वो स्त्री सफ़ाईवाली थी। कुछ बोलती न थी। मैं पूछता जाता था। वो जवाब न देती थी। फिर उसकी आवाज़ आई—“ग्यारह बजे हैं बाहर चलो।”

“माँ कहाँ हैं?”

“बाहर चलो।”

“पर माँ?” बार-बार कहता, मैं दरवाज़े से बाहर था। आँख रगड़ी। इतने लोग? घर भरा पड़ा था। सारी आँखें मुझे देखने लगी। मैं दौड़कर आगे भागा। “माँ कहाँ हैं?”

संगीत वाले कमरे के बाहर ख़ूब सारी स्त्रियाँ थीं। झाँका। अंदर भी स्त्रियाँ थी। माँ कहाँ हैं? मैं मुड़ा। पर पूरा नहीं। लगा माँ वहीं थी। अब मैं वहीं चौखट पर खड़ा उसी कमरे के फ़र्श को घूर रहा था। गरदन झुकी थी। उसी सुरमेदानी वाले कमरे में माँ ज़मीन पर लेटी हुई थी। वो माँ थी? लेटी हुई माँ? हाँ वो मेरी ही माँ थी। लाल रंग की चमकीली चुंदड़ी उनके गले तक ढकी थी, चारों ओर ख़ूब सारी हल्दी बिखरी पड़ी थी। नाक और कान में सफ़ेद रुई बैठी थी। मैंने तो पहले कभी माँ को ऐसा न देखा था, जो मुझे देखकर भी आँखें न खोले, आवाज़ न दे। क्या इसे ही माँ का मरना कहते हैं?

जो भीड़ बनकर आए थे उनकी शक्लें बेचारी होकर मुझे अपने पास बुलाने लगी। कमरे की खिड़की के पास वाली दीवार से चिपटा एक नौ साल का बच्चा अंगुलियों को आगे मोड़ता, पीछे को मोड़ता, आँखें फैलाए माँ को देखता रहा। बिना पलक झपकाए वहीं से माँ की बंद आँखें देखता रहा और सुनता रहा—

“शोखी चढ़ी थी”

“जवानी इठला री थी, बच्चा तो देख लेती”

“बेचारा बच्चा”

“कौन संगीत मास्टरनी?”

“ठस्से की मौज रही।”

“दोनों औरत जात?” 

“आदमी से छुपता?”

“ यही कमरा था”

“ ओह!”

“पती ने?”

“ख़बर लगी तो”

“बेचारा बच्चा”

“कजरौटा ढुल पड़ा है माथे अब”

“हाँ! कर लो अब”

कई होठ अंदर दबते, आँखों की पुतलियाँ ऊपर-नीचे-दाएँ-बायँ उठती, मुँह टेढ़े होते, हाथ दबते, कई रुमाल, कई साड़ी के पल्ले आँखों पर ज़बदरस्ती रगड़ खाते, फिर धीरे-धीरे ऐसे ही कई अ-सुने, अ-समझे शब्दों ने मेरे कानों में ढेरियाँ लगा दी।

इन्हीं शब्दों की ढेरियों के बीच होती हुई ,लाल कपड़े में ढकी माँ जा रही थी। माँ को मैंने कभी ख़ुश नहीं देखा था। मेरी माँ उदास माँ थी। उनकी फूल वाली आँखें उदास थी। उनके फूल वाले पैर उदास थे। उनकी फूल वाली हँसी उदास थी। घर के सारे फूल उदास थे। उस दिन से मुझे फूलों से नफ़रत होने लगी, माँ ने फूलों से इतना प्रेम किया पर एक भी फूल उनकी उदासी को दूर न कर सका। तुम सारे नकली फूल हो।

वे माँ को ले जा रहे थे। मैंने जाने से पहले वो चुभता फूल उनकी चोटी से हटा दिया था। अब क्या? यही कि उनकी आँखों में हमेशा से जमी सीमेंट नीचे उतरकर पूरे शरीर को जमा चुकी थी। हिलडुल भी अब ख़त्म। उदासी भी अब ख़त्म।

और प्रेम?

माँ चली गई थी।

लकड़ियाँ जल गई थी।

लेकिन मेरे लिए माँ कभी नहीं मरी।

वो मेरी हर प्रेमिका में ज़िंदा रही।

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