दिल्ली आना और दिल्ली से जाना एक जैसा नहीं होता है!
संध्या चौरसिया
11 अक्तूबर 2025

सखी दिल्ली,
कैसी हो? मुझे पहचाना? मैं वही लड़की जो पहले रोज़गार के लिए तुमसे पहली बार मिली थी, उस मौसम में जिसके लिए तुम्हें सबसे ज़्यादा कोसा और प्यार किया जाता है। जिस मौसम तुम कोहरे में कुछ धुँधली-सी पड़ जाती हो। मैं वही लड़की जिसपर तुम्हारे भीतर का सूनापन बम विस्फोट-सा फटा था। तीन साल हो गए तुम्हारी संगत छोड़े। लगा था जैसे तुम भी कलकत्ता, बनारस की तरह किसी दिन छूट ही जाओगी, लेकिन अब घर से जब हैदराबाद के लिए निकलती हूँ तो तुम्हारी याद आती है, कहीं से घर के लिए निकलूँ तब भी। जीने का सलीक़ा जो मैंने तुम्हारे साथ रहकर सीखा, वह बनारस की अक्खड़ता और कलकत्ता की रसिकता में नहीं था। तुम महज़ एक शहर नहीं लगी, किसी नाटक की सूत्रधार-सी, जीवन के अनिवार्य किरदार-सी लगी। आज सालों बाद तुम्हें एक पत्र लिख रही हूँ। दिल्ली को दिल्ली के बारे में लिख रही हूँ।
दिल्ली आना और दिल्ली से जाना एक जैसा नहीं था। दिल्ली कविता का कोई जटिल बिंब भी है और व्याकरण का सरल वाक्य भी। दिल्ली का जीवन हड्डी का दर्द भी लगता है और प्रेमी की नटखट चिकोटी भी। दिल्ली आना स्कूल आने जैसा था, बोर्डिंग स्कूल और यहाँ से जाना भी स्कूल के अंतिम दिन जैसा ही था—आख़िरी! इतने शहरों में रहने के बाद हमारा जीवन अब मशीन के उस पुर्ज़े-सा है, जिसे कहीं से निकाल कर कहीं लगा दिया जाता हो। लेकिन मशीनी पुर्ज़ों के भी पुर्ज़े होते हैं। कभी-कभी लगता है जैसे एक मशीन से निकाल कर दूसरे मशीन में अभी फ़िट नहीं किया गया है। पुर्ज़े का भी कोई पुर्ज़ा दिल्ली में छूट गया है। इन दिनों दिल्ली में शिउली के फूल खिले होंगे, लेकिन दिल्ली की याद में फूल याद नहीं आते। दिल्ली को याद करो तो सबसे पहले याद आती है—मेट्रो में महिला डिब्बे की। दिख रही ख़ाली सीट के हाथ से निकल जाने का अफ़सोस नींद से कई बार जगा देता था। सपने भी रमणीय कल्पनाओं की जगह नफ़ा-नुक़सान का गणित बुनने लगे जैसे महीने के अंत में अटेंडेंस शीट पर आपकी हाज़िरी का गणित किया जाता था। कोई इस बात की भी कभी तस्दीक करे कि कंप्यूटर के सामने बैठा व्यक्ति सच में कितना उपस्थित होता है। दफ़्तर में हाज़िर कर्मचारी काम के बीच एक चक्कर बीसियों खुले टैब में से उस एक टैब का लगा लेता है जिसमें गोवा या मनाली में घूमने वाली दस सुंदर जगहों का सिलसिलेवार ढंग से ब्योरा था। गोवा और मनाली पर आर्टिकल लिखने वाला किसी दूसरे दफ़्तर में हाज़िर एक कर्मचारी शायद वेब ब्राउज़ के किसी टैब में सैटेलाइट से अपना गाँव देखता हो। ख़ैर! औपचारिक काम में आत्मीयता के अभाव की शिकायत करना कॉर्पोरेट आचार संहिता के ख़िलाफ़ है, जिसके उद्घोषक हफ़्ते में नब्बे घंटे काम करने को नैतिक बताते हैं। लेकिन इन माया भवनों में सबकुछ क्या सचमुच औपचारिक हो सकता है? इन माया भवनों के औपचारिक संबंधों को अलविदा कहती उस चिठ्ठी का अनौपचारिक जवाब व्हाट्सएप से काग़ज़ पर नहीं उतारा था। दिल्ली में लोगों के पास काग़ज़ हैं, लेकिन चिट्ठी लिख भेजने का समय नहीं। देखो अब खो गया न वो अलविदा—काग़ज़ मेरे पास भी था, पर मैंने भी तो नहीं उतारा। दिल्ली आकर मेरी डायरी कहीं खो गई थी। काग़ज़ है, क़लम है, शैली खो गई! या शायद छूट गई होगी ऑफ़िस डेस्क के कोने में। किसी को मिली भी होगी तो उसने कचरे के डिब्बे में डाल दी होगी। मुझे पी.एफ़ का रुपया नहीं चाहिए, कोई मेरी वह टेढ़ी-मेढ़ी शैली लौटा दे जिसे ख़बरों की सपाटबयानी से भाषाई समीकरण के लिए मुझे भुलवा दिया गया। शैली यूँ खोई कि अब दुख, प्रेम और संशय किसी ख़बर की तरह अभिधा में आते हैं। रुलाई जो पहले पूरी नाटकीयता के साथ आती थी, अब आँखों की किवाड़ के कोने में चुपचाप बैठी रहती थी और बिना दस्तक दिए गालों तक फिसल आने लगी। एक दिन किसी बात पर रोते हुए देखा कि मेट्रो का वह दरवाज़ा बंद हो गया है जिसमें चढ़ना था। अब अगली मेट्रो के आने तक रोने की फ़ुरसत है लेकिन यह क्या? देर हो गई। मुनीर नियाज़ी याद आए लेकिन कहीं ठहर कर दो घड़ी रो लेने से होने वाली देरी का ज़िक्र तो उन्होंने भी नहीं किया। किसी की याद में आँसू बहाना हो और समय पर कहीं पहुँचना हो, तो अक्सर समय पर पहुँचने में देर कर देता हूँ। (मुनीर नियाज़ी से माफ़ी के साथ)
क्या ज़्यादा ज़रूरी है बताओ?
दिल्ली ने कानों में कहा—अगली मेट्रो!
पहले ही बताया कि जिस मौसम तुमसे मिली तुम बर्फ़ की झंझावातों-सी मुझपर टूट पड़ी, जैसे कोई अनजान मुसाफ़िर बिना परिचय के ही आपसे रुष्ट हो जाए। दिल्ली दिलवालों की नहीं है, फिर भी उसमें पैर पसारने की जगह मिल ही जाती है, सो मुझे भी मिली। अशोक नगर का वह कमरा और उसकी सफ़ेद फ़र्श किसी पुराने परिचित की फीकी मुस्कान से भी अधिक ठंडी थी। नए शहर में आना और घर से काम करने की रवायत में क़ैद हो जाना। बताओ दिल्ली महीने भर में कोई जगह घर बन सकती है? सुबह नौ बजे से काम की शुरुआत और दोपहर 3 बजे पानी की पहली घूँट, क्या निर्मम जगह है! लेकिन उस निर्मम जगह में बोगन, अमलतास और बबूल का एक जंगल है। जैसे गर्मी की छुट्टियों में कुछ लोग गाँव जाते थे, ऐसे ही वीकेंड पर आईआईएमसी वाले जेएनयू जाते हैं। मैं आईआईएमसी की नहीं थी, पर इस अनजान शहर में चंद परिचित दोस्त थे जो उसी बोगन और अमलतास के जंगलों में देर दुपहर तक सोते थे और देर रात तक पढ़ते थे। दिल्ली ने सिखाया जीवन का संतुलन! एक तरफ़ कॉर्पोरेट ऑफ़िस की ऊँची, निष्प्राण इमारतें दूसरी तरफ़ लाल ईंटों, नील गाय और प्रकृति, पहाड़ से बनी शहर के भीतर एक दूसरी दुनिया। दोनों का अस्तित्व वहीं उसी शहर में।
घड़ी कच्च से चली, मौसम बीते और ठंडी फ़र्श अच्छी लगने लगी, पर मुईं छत कहर ढाने लगी। पीठ पर कपड़े की एक सूत भी बर्दाश्त नहीं। दिल्ली में हर मौसम अपने चरम रूप में होता है। मौसम की मार और कॉर्पोरेट की निष्क्रियता दोनों बोझिल हुए। मन भाग चला मन की करने, अमलतास और बोगन के जंगलों की ओर। अंतिम अलविदा और छूट गया मेट्रो का चक्कर। दिल्ली में यमुना बहती है, लेकिन सबको अपने हिस्से का कुआँ खोदना होता है। किसी के घर से चार लोटा पानी माँग लो तो हर बूँद जैसे कोई सौदा। जो किसी भी तरह के सामुदायिक परिवेश में बड़े हुए हैं, दिल्ली उनके लिए सच में दूर थी।
एक बताओ तुम क्या कभी गाँव भी थी दिल्ली?
नहीं!
तुम शायद हमेशा से शहर थी। महान् शासकों के सल्तनत की राजधानी।
कभी-कभी तुम्हारे बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि तुम मिथकों की वह राजकुमारी हो जिसे हमेशा लूटा गया, कभी प्यार नहीं किया गया। जिसके लिए युद्ध हुए और हर बार विजेताओं ने उसकी देह पर अपनी मुहर लगाई।
सल्तनत, सत्ता, प्रतिस्पर्धा!
शुरू हुई प्रतिस्पर्धा! अकादमिया में वापस आने की। मेट्रो का कार्ड पर्स में कहीं गुम हो गया और अमलतास-बोगन के जंगलों में दुपहिया साइकल पर साँस फूलने लगी। घड़ी फिर कच्च से चली और ख़ूब सारा पानी बरसने लगा। इसी मौसम कई जोंक आकर चिपक गए। बड़े शहरों के जोंक इंसानी शक्ल के होते हैं। एक दिन पीड़ा हुई तो यह दिल्ली ही थी जिसने कानों में कहा—वे जोंक हैं! वे अपनी प्रवृत्ति कभी नहीं छोड़ते। उन्हें भी बारिश के जाते-जाते नमक डालकर उतार दिया। बोगन के जगलों में मेरे नाम बैनामा किए सात फूल थे। वे फूल मुझसे हिंदी की बारहखड़ी सीखते थे और बदले में मुझे नितांत जड़ और कपटी होने से बचाते थे। शाम इन सात फूलों के साथ बीतने लगी और रात लाइब्रेरी की कुर्सी पर।
अमलतास और बोगन के जंगल में लाल ईंट की दीवार पर नीले रंग से रंगी सावित्रीबाई फुले और फ़ातिमा शेख़ की तस्वीर थी। आधी रात वह तस्वीर चाँद की तरह चमकती थी। एक पथिक को बताती कि दूसरे ग्रह भी हैं, जहाँ स्त्रियों का जीवन संभव है। दिल्ली को याद करते दृश्यों में यही दो इमारतें आँखों के सामने आती हैं। नोएडा सेक्टर 16, फ़िल्मसिटी का दफ़्तर और मुनिरका का जेएनयू। जीवन के अस्थाई रंगों के साथ कोई कुतुब मीनार, जामा मस्जिद और इंडिया गेट भी देख ले ये थोड़ा मुश्किल है। तुमने सिखाया कि स्त्रियाँ दुनिया की तमाम इमारतें अपनी आर्थिक स्वतंत्रता के बल पर देखें तो बेहतर। उसी की होड़ थी। एक रोज़ वो होड़ भी पूरी हुई और दिल्ली ने मुझे छुट्टी दे दी। कहा जाओ! अब अपने बुते पर दुनिया देखने लायक़ हो गई हो। यह वही मौसम था, जिस मौसम मैं पहली बार तुमसे मिली थी। पृथ्वी अपनी धूरी का एक चक्कर लगा चुकी थी। मेरी दुनिया, मेरा काम और मेरा शहर तीनों बदल गए। याद रह गए दिल्ली और उसके दिए तमाम सबक़। दिल्ली मेरे जीवन में उतना ही पहुँची, जितना नदी का पानी नहर बनकर खेतों तक पहुँचता है। फ़सल बड़ी हो जाए तो नहर का रुख़ मोड़ दिया जाता है।
सच! दिल्ली आना और दिल्ली से जाना एक जैसा नहीं होता।
अपनी अना में बरकरार रहना। बाक़ी फिर कभी लिखूँगी।
तुम्हारी,
संध्या
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