Font by Mehr Nastaliq Web

“असली पुरस्कार तो आप लोग हैं”

समादृत कवि-कथाकार विनोद कुमार शुक्ल 59वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए गए हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है। वर्ष 1961 में इस पुरस्कार की स्थापना हुई, यह पुरस्कार भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट लेखकों को दिया जाता है। विनोद कुमार शुक्ल हिंदी भाषा के 12वें साहित्यकार हैं, जिन्हें इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यहाँ प्रस्तुत है—विनोद कुमार शुक्ल से शुभम सिंह की बातचीत। इस संवाद में विनोद कुमार शुक्ल के जादुई रचना-संसार और लेखकीय व्यक्तित्व के कुछ पहलू नए सिरे से खुलते हैं। शुभम सिंह ने यह बातचीत कुछ समय पहले अपने रायपुर-प्रवास के दौरान की।

1 जनवरी 1937 को राजनांदगाँव (अब छत्तीसगढ़) में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल का लेखकीय वितान अत्यंत व्यापक है। जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय से कृषि विज्ञान की पढ़ाई करने के बाद विनोद कुमार शुक्ल ने अध्यापक के रूप में काम करना शुरू किया। गंभीर लेखन के प्रति रुचि उन्हीं दिनों शुरू हुई, साथ ही मुक्तिबोध जैसे कवि के सान्निध्य में लेखन में वैचारिकी के प्रति आग्रह भी आया।

उनका पहला कविता-संग्रह 1971 में ‘लगभग जयहिंद’ नाम से प्रकाशित हुआ। उसके बाद ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’ (1981), ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (1992), ‘अतिरिक्त नहीं’ (2000), ‘कविता से लंबी कविता’ (2001) प्रकाशित हुए।

‘महाविद्यालय’, ‘नौकर की क़मीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ जैसी कथा-कृतियाँ भी विनोद कुमार शुक्ल के नाम हैं। उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी से सम्मानित किया गया। उनके उपन्यास ‘नौकर की क़मीज़’ और कहानी ‘आदमी की औरत’ पर क्रमश: मणि कौल और अमित दत्ता ने फ़िल्म बनाई। अंतरराष्ट्रीय साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें वर्ष 2023 के प्रतिष्ठित पेन/नाबोकोव पुरस्कार (PEN/Nabokov Award) से भी सम्मानित किया गया है। ‘केवल जड़ें हैं’ (कविता-संग्रह) उनकी नवीनतम पुस्तक है।

विनोद कुमार शुक्ल के गद्य में एक कोमलता मौजूद है, लेकिन उस कोमलता में भी एक आग्रह है—यह आग्रह सांप्रदायिकता को ख़त्म करने का है। उन्होंने गुजरात के दंगों पर कविता लिखी जिस विषय पर लिखने से कई लेखक कतराते रहे। आदिवासी समुदाय के जल, जंगल और ज़मीन के ऊपर ख़ूब लिखा और पूँजीवाद के ख़िलाफ़ अपने लेखन से विरोध दर्ज करवाते रहे।

आख़िरकार किस नाक-नक़्शे का आदमी हूँ
जो अपना हिस्सा नहीं छीन पाता

शहर से सोचता हूँ
कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है
जंगल में जंगल नहीं होंगे
तो कहाँ होंगे?
शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे।


समाज में व्याप्त गहरी असमानता की कोख तक विनोद कुमार शुक्ल की निगाह जाती है। उनकी कई कहानियों और कविताओं के किरदार इसका जीवंत उदाहरण हैं। ‘रुपये’, ‘टुकड़ा आदमी’ ये दोनों कहानियाँ इसी विषय को ध्यान में रखकर लिखी गई हैं। एक कविता में वह लिखते हैं— 

सबके हिस्से की हवा वही हवा नहीं है
अपने हिस्से की भूख के साथ 
सब नहीं पाते अपने हिस्से का पूरा भात 
तंदूर में बनती हुई रोटी 
सबके हिस्से की बनती हुई रोटी नहीं है


विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास के किरदार रोज़मर्रा के कामों में मशग़ूल होते हैं, लेकिन उनकी यथार्थ कहानियों में जादू घोलकर, एक जादुई यथार्थवाद का साहित्यिक समुच्चय तैयार होता है, जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’—उपन्यास का नायक रघुवर प्रसाद पेशे से गणित का अध्यापक है और बेहद पारिवारिक भी। उस अध्यापक का जीवन एक छोटे से कमरे तक है, लेकिन रघुवर के जीवन में प्रेम आता है और उसके घर की दीवार में एक खिड़की खुलती है। यह खिड़की बाक़ी दुनिया से अलग है। रघुवर और उसकी पत्नी उस खिड़की से छलाँग लगाते हैं और प्रेम की एक नई दुनिया में शामिल हो जाते हैं। इस तरीक़े की खिड़की को विनोद कुमार शुक्ल की क़लम ही खोल सकती है।

विनोद कुमार शुक्ल की स्त्री-विमर्श के ऊपर भी कई कहानियाँ और कविताएँ हैं। उनकी कहानी ‘आदमी की औरत’ एक ज़रूरी कहानी है, जिसमें पितृसत्ता को चुनौती देती एक स्त्री है—जिसके हाथ पर उसका नाम लिखा है। पूरे मुहल्ले के लोग उस स्त्री को उसके नाम से जानने लगते हैं, यह बात उस स्त्री के पति को अच्छी नहीं लगती। वह चाहता है कि स्त्री को उसके नाम से जाना जाए और वह उसके हाथ पर अंकित नाम को मिटाने के लिए तरह-तरह की तरकीब अपनाता है। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं—“पत्नी का रिश्ता फूल को तोड़कर अपने पास रख लेने का था। पेड़ में खिले फूल जैसा रिश्ता कहीं नहीं दिखता था।” 

विनोद कुमार शुक्ल बाल साहित्य और प्रकृति सौंदर्य से सराबोर रचनाओं के लिए भी जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में एक ठहराव है, जो पाठक को नई दिशा मुहैया कराता है—

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने 
उनके घर चला जाऊँगा
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा।
…  

4 फ़रवरी 2023 की तारीख़ थी। मैं अपने दो दोस्तों (फ़ैज़ान और रेहान) के साथ रायपुर में था। विनोद कुमार शुक्ल के घर का पता नहीं मालूम था और न ही फ़ोन नंबर। बनारस के एक परिचित ने नंबर उपलब्ध कराया। मैंने फ़ोन किया तो शायद विनोद कुमार शुक्ल ने ही फ़ोन उठाया, उधर से मद्धिम आवाज़ आई और फिर फ़ोन कट गया।

थोड़ी देर में उधर से दूसरे नंबर से फ़ोन आया; बेहद प्यारी आवाज़ ने कहा, “मैं विनोद जी का बेटा बोल रहा हूँ। बताइए…

मैं तपाक से बोल पड़ा, “विनोद जी से मिलना था।”
उन्होंने कहा—“कब मिलना चाहते हैं।”
मैंने कहा—“जब वह चाहे।”
उन्होंने कहा—“दादा, (वह अपने पिता को दादा कहते हैं) शाम को ही खाना खाकर सो जाते हैं, आप कोशिश कीजिए तीन बजे तक यहाँ पहुँचने की। मैं आपको पता भेज दे रहा हूँ।”

थोड़ी देर में मेरे पास पता आया जो कुछ यूँ था—

विनोद कुमार शुक्ल
सी–217, शैलेंद्र नगर, रायपुर
(कटोरा तालाब मुख्य मार्ग में बूढ़ी माँ मंदिर के सामने)

मुख्य सड़क पर बूढ़ी माँ मंदिर के सामने की सड़कों पर बोर्ड लगे हैं, जिस बोर्ड में कटोरा तालाब सड़क नंबर 11 लिखा है। उसी सड़क से आना होगा अंदर। दाहिने ओर का सबसे आख़िर घर है। घर के अंदर एक आम का पेड़, घर के बाहर एक ओर मौलश्री के दो पेड़ और दूसरी ओर करंज के पेड़ भी रहते हैं।

जिस लेखक का पता भी कविता की भाषा बोल रहा हो; वह लेखक कितना साहित्य बरतता है, इसका अंदाज़ आप ख़ुद लगा सकते हैं। हम उनके घर पहुँचे। 

एक बुज़ुर्ग जिसकी उम्र अस्सी के पार हो चुकी है, लेकिन जीवन अभी बहुत बचा हुआ है। सफ़ेद बाल, एक धारीदार शर्ट के ऊपर हाफ़ स्वेटर डाले बैठे हैं। पैर में हवाई चप्पल और दीवार पर लटकती पेंटिंग। बातचीत शुरू होती है—

“कैसे हैं आप?”

“ठीक हूँ, तबियत थोड़ी ख़राब रहती है, आपसे पहले भी मुलाक़ात हुई है क्या?”

“जी नहीं, लेकिन पाठक पुराना हूँ”

“तभी तो, अच्छा आप लोग कहाँ से हैं।” (मुस्कुराते हुए)

“बिहार से...”

“बिहार और बिहारी लोगों से मैं बहुत प्रेम करता हूँ, मैंने एक कविता भी लिखी है।”

मुझे बिहारियों से प्रेम हो गया है
एक बिहारी मुझे पूरा बिहार लगता है
जब कोई पत्नी और बच्चे के साथ दिख जाता है
तो ख़ुशी से मैं उसे 
देशवासियो कहकर संबोधित करता हूँ

शुभम : आपने एक कहानी लिखी है—‘रुपये’, आप लिखते है—“काग़ज़ के फटने पर कैसी आवाज़ होती है उसे मालूम था। नोट फटने की आवाज़ वह पहली बार सुन रहा था।” 1964  में कल्पना पत्रिका में यह छपी थी। कितना बदलाव आया है तब और आज के समाज में।

विकुशु : अब दुनिया में पूँजी का बोलबाला ज़्यादा हो गया है। (कुछ याद करने की कोशिश) अब समाज बदल गया है। खाना बाहर से आने लगा है। लोग अपना काम करने से कतराने लगे हैं। पढ़ना कम होता जा रहा है। लिखना और भी मुश्किल।

शुभम : हिंदी साहित्य को कैसे देखते हैं?

विकुशु : मत पूछिए, लगभग सारे प्रगतिशील लेखक मेरे पीछे पड़े थे। ‘लगभग जयहिंद’ में अशोक वाजपेयी ने मुझे छापा। बाद में ‘पहचान’ में अशोक जी ने मेरी एक कविता का शीर्षक ख़ुद दिया और छापा भी—‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’। इसके बाद तो पहल के सत्रहवें अंक में शंभुनाथ जी ने एक लेख ही लिख दिया। उसके बाद तो मेरे ऊपर कई आलोचकों ने शाब्दिक हमला किया।

शुभम : दीवार में एक खिड़की रहती थी, पर कुछ बताइए...

विकुशु : वो ऐसी कहानी है, जिसमें कहानी सड़क से उतरती है और पगडंडी पकड़कर चलने लगती है। जानते हैं, जब मैं स्कूल में पढ़ाता था तो सच में एक हाथी रोज़ सड़क से गुज़रता था। उसी हाथी को मैंने उपन्यास में रख दिया। वो समय अच्छा था। (कुछ देर की चुप्पी) बीता हुआ समय वर्तमान से हमेशा ज़्यादा सुखद होता है।

शुभम : कविता बदली है?

विकुशु : हाँ, लेकिन क्या कहूँ ज़्यादा तो पाठक ही बता सकते हैं।

शुभम : आप अपनी कविता ‘गुज़ारिश’ के बारे में बताएँ?

विकुशु : लाइए यह कविता पढ़ देता हूँ। जो कहना था सब कुछ तो उसी में कह दिया है :

गुज़ारिश एक गुजराती शब्द है
गुजराती मुझे नहीं आती
पर अब ये जानता हूँ कि गुजराती मुझे आती है
वह हत्या करके भाग रहा है, यह एक गुजराती वाक्य है
दया करो, मुझे मत मारो मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं
अभी लड़की ब्याह करना है
और ब्याह के लिए बची लड़की बलात्कार से मर गई
ये एक गुजराती का वाक्य है।

शुभम : बच्चों के लिए भी आपने लिखा है।

विकुशु : मैं जब उनके लिए लिखता हूँ तो बच्चों को बड़ा और ख़ुद को बच्चा मानकर लिखता हूँ (हँसते हुए)।

शुभम : आदिवासी समाज पर आपने लिखा है?

विकुशु : मैं ख़ुद उस समाज का हिस्सा रहा हूँ, वे हमारे लोग हैं। मैंने लिखा, “एक आदिवासी लड़की को बाघ से डर नहीं लगता, महुआ लेकर गीदम के बाज़ार जाने से डर लगता है।

शुभम : पुरस्कारों को लेकर क्या सोचते हैं?

विकुशु : ये एक ज़िम्मेदारी होती है, लेकिन असली पुरस्कार तो आप लोग हैं। परसों पाकिस्तान से फ़ोन आया था, वो ‘नौकर की क़मीज़’ के बारे में बात कर रहे थे। उन्होंने कहा, “आपकी किताब पाकिस्तान में बहुत मशहूर है। हम आपकी अन्य किताबों को भी प्रकाशित करना चाहते हैं।”

शुभम : प्राकृतिक दुनिया को जैसे कि पेड़-पौधे और चिड़िया को आप अपने रचना में हमेशा शामिल करते हैं, क्या वजह है?

विकुशु : मुझे प्रेम है, मैंने ‘पेड़ पर कमरा’ कहानी लिखी। अब देखिए न मेरे घर में दो मौलश्री के पेड़ हैं, ख़ूब हरे-भरे हैं। फूल भी बहुत सुंदर आते हैं। वो पेड़ थोड़ा सड़क की ओर झूल गया है। मेरे घर के सामने वाले महानुभाव ने नगर निगम से कहकर पेड़ को कटवा-छँटवा दिया। नगर निगम से उन्होंने कहा कि इस पेड़ पर बहुत सारी चिड़िया रहती हैं और हमारे घर में आकर बीट कर देती हैं। हम बहुत क्रूर समाज में हैं। बताइए, यह भी कोई कारण है पेड़ काटने का! क्या पेड़ ने किसी को काटा है! हर धनी समाज क्रूर समाज है (यह मानकर चलना) और पृथ्वी का दोहन—जो सबसे ज़्यादा धनी है, वो सबसे ज़्यादा करेगा। छोटा आदमी पहले संतुष्ट रहता था, लेकिन अब छोटे आदमी को भी लालची आदमी बना दिया गया है। वो भी धन और पूँजी के पीछे जा रहा है। फिर समाज में अपराध और अय्याशी का जन्म होता है। अब बताइए कैसे बचाया जाए दुनिया को… मैंने एक कहानी लिखी ‘गोदाम’, उस कहानी में एक आदमी आता है शहर में रहने के लिए, किराए का कमरा ढूँढ़ता है, लेकिन वह चाहता है कि ऐसा घर मिले जहाँ एक पेड़ हो। उसे पूरे शहर में एक भी घर नहीं मिलता। मैं उनसे नहीं कहूँगा जो निर्णय लेते हैं, क्योंकि वे निर्णय ले चुके होते हैं। मेरी यही अपील आप लोगों से है, यह दुनिया बहुत ख़ूबसूरत हो सकती है। नहीं तो यह पृथ्वी नष्ट हो जाएगी।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

07 अगस्त 2025

अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ

श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

10 अगस्त 2025

क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़

Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

08 अगस्त 2025

धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’

यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

17 अगस्त 2025

बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है

• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

22 अगस्त 2025

वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है

प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं

बेला लेटेस्ट