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दक्षिण भारत : कुछ यात्राओं का अंत नहीं होता…


क़रीब तीस साल पहले जब मैं मुंबई में पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्यरत थी, तब एक बार सिटी प्रोफ़ाइल करने के वास्ते बैंगलोर (वर्तमान में बेंगलुरु) और मैसूर जाना हुआ था। मुंबई से बैंगलोर की वह फ़्लाइट तब मेरे जीवन की सबसे पहली फ़्लाइट थी। मुझे याद है कि उस वक़्त जब मैं हवाई जहाज़ में बैठी तब मन ही मन कितना घबरा रही थी कि ऊपर आकाश में इतनी ऊँचाई पर बादलों के बीच पहुँचकर पता नहीं कैसा महसूस होगा। ख़ैर, अब तो पिछले पच्चीस सालों से देश से दूर हूँ और समय-समय की बात है कि अब इतनी अधिक हवाई यात्राओं के बाद हवाई जहाज़ में थकान के अलावा और कुछ महसूस नहीं होता। लेकिन दिल में अभी तक वह पहली हवाई उड़ान का रोमांच बचा हुआ है और तब से दक्षिण भारत से जो रिश्ता जुड़ा वह प्यार भी बरकरार रहा है।

भारत भाषा, कला, साहित्य, सिनेमा, संस्कृति, नृत्य, वस्त्र-परिधान, खान-पान जैसे कई मामलों में इतना विविध है कि अलग-अलग राज्य, अलग-अलग देश जैसे लगते हैं; लेकिन फिर भी भारत में पूर्व-पच्छम, उत्तर-दक्खिन कहीं भी जाओ—‘भारतीयता’ का एक सामूहिक, अदृश्य अनुबंध आपको घेर ही लेता है। कानों में जैसे पंडित भीमसेन जोशी की आवाज़ में अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर आता वह गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गूँजने लगता है। यही है हमारी भारतीयता। भारत में हर एक राज्य का अपना अलग सौंदर्य है, लेकिन दक्षिण भारत में एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा पसंद आई—वह है यहाँ की सादगी। यहाँ जीवन बहुत शांत और सहज महसूस होता है और क़िस्मत से मेरा यहाँ पर बार-बार आना भी होता रहता है। जब साल 2002 में मुंबई साहित्य अकादेमी की ओर से लेखकों को दी जाने वाली ट्रैवेल ग्रांट मिली, तब मुझे अपने साहित्यिक प्रवास के लिए भारत का कोई भी एक राज्य पसंद करने का विकल्प दिया गया था और मैंने ‘केरल’ जाने का फ़ैसला किया। तब वहाँ पर मैंने चर्चित लेखिका कमला दास (जो उस वक़्त कमला सुरैय्या बन चुकी थीं) के घर जाकर उनसे मुलाक़ात की थी। फिर 2003 में त्रिचूर में आयोजित ‘All India Young Writers Meet’ में हिस्सा लेने का आमंत्रण मिला, तब फिर से केरल जाना हुआ था। उस वक़्त एयरपोर्ट से होटल जा रही थी कि तब रास्ते में एक मंदिर के पास से टैक्सी गुज़र रही थी और मैंने देखा कि मंदिर के प्रांगण में बहुत सारे हाथी खड़े हुए थे। त्योहार के लिए सुशोभित होकर क़तार में खड़े हुए त्रिचूर के उन हाथियों का वह दृश्य इतना सुंदर था कि मैं कभी भूला नहीं पाऊँगी। इसके बाद 2005 में शादी के बाद दीपक के साथ केरल में मुन्नार, कुमारकोम जैसी सुंदर जगहों पर घूमना हुआ और फिर एक लंबे अंतराल के बाद 2023 में परिवार के साथ दक्षिण भारत का यह प्रवास तय हुआ।

हैदराबाद के एयरपोर्ट से बाहर निकलकर मैं और मेरे पति दीपक अभी टैक्सी में बैठे ही थे कि ड्राइवर को किसी का फ़ोन आ गया। क़रीब साठ साल की उम्र का वह मुसलमान ड्राइवर होटल तक जाने के पूरे रास्ते दौरान अपने किसी अज़ीज़ से नासा उच्चारण वाली हैदराबादी हिंदी में बातें करता रहा और मैं सुनती रही। हैदराबाद की बिरयानी से भी ज़्यादा मज़ेदार कोई चीज़ है तो वह है हैदराबाद की हिंदी। गुजरातियों, बंगालियों और नेपालियों की हिंदी भी दिल ख़ुश कर देती है, लेकिन सचमुच इतनी प्यारी हिंदी मैंने इससे पहले कभी नहीं सुनी थी। होटल पहुँचाकर मुझसे पैसे लेते वक़्त उसने कहा, ‘थैंक्यू, अम्मा।’ और मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि मैं अब साउथ इंडिया पहुँच चुकी थी! बंगालियों की तरह मेरे वतन कच्छ में भी स्त्रियों को सम्मान से माँ कहकर बुलाने की परंपरा है। कुमारिकाएँ और छोटी बच्चियों को भी माँ का संबोधन होता है, इसलिए उम्र में मुझसे काफ़ी बड़े उस मुसलमान ड्राइवर ने जब मुझे अम्मा कहा तो मन में तुरत ही एक तरह का अपनापन महसूस हुआ।

हैदराबाद में चार मीनार देखने की और पिस्ता हाउस में खाना खाने की इच्छा कई सालों से मन में थी, जो आख़िरकार पूरी हुई। हालाँकि, चार मीनार की जो तस्वीरें मैंने देखी थीं, वे सारी तस्वीरें रात में रोशनी से जगमगाती हुई मस्जिद और बहुत ही चहलक़दमी वाले बाज़ार की थीं लेकिन मैंने दुपहर में जब चार मीनार का नज़ारा देखा तो यहाँ सब कुछ बहुत शांत और सुस्त लगा। ऐसा लगा मानो बॉलीवुड की कोई हीरोइन जिसे मैंने हमेशा बहुत ही ग्लैमरस तस्वीरों में देखी हो उसे मैंने रियलिटी में बिना मेकअप के देख लिया हो। लगता है कि चार मीनार की असल रौनक देखने के लिए और पिस्ता हाउस के हलीम का सही लुत्फ़ उठाने के लिए कभी यहाँ ईद के मौक़े पर आना होगा। हैदराबाद से एक घंटे की फ़्लाइट लेकर हम पांडिचेरी (स्थानीय नाम पुदुच्चेरी) पहुँचे तब सबसे पहले तो वहाँ के एयरपोर्ट से ही मन ख़ुश हो गया। छोटा-सा, सुंदर, स्वच्छ एयरपोर्ट जहाँ पूरे दिन में सिर्फ़ एक ही फ़्लाइट आती-जाती है। यहाँ पर हमारी फ़्लाइट पहुँचने के बाद थोड़ी ही देर में सब कुछ इतना ख़ाली और शांत हो गया जैसे न कोई आया, न कोई गया। पांडिचेरी में समंदर तट, महर्षि अरविंदों आश्रम, प्राचीन गणेश मंदिर, कुछ पुराने गिरिजाघर, व्हाइट टाउन वग़ैरह जगहें देखने जैसी हैं, लेकिन इस शहर का सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ का स्थापत्य।

पांडिचेरी शहर एक समय में फ़्रेंच कॉलोनी रह चुका है, इसलिए यहाँ पर फ़्रेंच प्रभाव आज भी काफ़ी हद तक ज़िंदा है। साल 1954 में जब फ़्रेंच सत्ताधारी भारत से अपनी अंतिम कॉलोनी छोड़कर गए, तब उन्होंने पांडिचेरी में अपने सरकारी आवासों की देखभाल की ज़िम्मेदारी भारत सरकार के हवाले करने के बजाय श्री अरविंदों आश्रम को दी थी। पांडिचेरी में आज भी फ़्रेंच स्थापत्य की सारी इमारतें बहुत अच्छी तरह से सलामत हैं। यहाँ का स्थापत्य दिलचस्प है क्योंकि इस शहर में घर के मध्य में बरामदे वाले परंपरागत तमिल शैली के घर हैं, कई सारे सुंदर फ़्रेंच विला शैली के बंगले हैं और इसके उपरांत फ़्रेंच और तमिल दोनों शैलियों के संयोजन से बनी हुई फ़्रेंको-तमिल स्टाइल के आवास भी हैं। यहाँ का खान-पान भी इसी वजह से दिलचस्प है क्योंकि यहाँ परंपरागत तमिल खाना तो है ही, साथ में कुछ अच्छे फ़्रेंच रेस्तराँ हैं जो ‘बिस्त्रो’ कहलाते हैं और इसके उपरांत फ़्रेंच और तमिल खाने के मिश्रण जैसे फ़्यूज़न फ़ूड वाले आधुनिक कैफ़े भी हैं। भारत में रहते हुए थोड़ा बहुत फ़्रांस में रहने जैसा एहसास चाहिए तो पुदुच्चेरी अच्छी जगह है। यहाँ फ़ैशनेबल व्हाइट टाउन (जो शाब्दिक अर्थ में गोरे, फ़िरंगी लोगों का इलाक़ा है) से थोड़ी ही दूरी पर एक ऐसा भारत भी देखने मिल जाता है जो बहुत ही देहाती और अपना-सा लगता है। व्हाइट टाउन के मशहूर ‘कैफ़े देस आर्ट’ में फ़्रेंच खाना खाने के बाद हम शहर से थोड़े दूर एक समुद्र तट की ओर जा रहे थे, तब रास्ते में टैक्सी में से मैंने एक छोटी-सी दुकान देखी। वह दुकान इतनी मज़ेदार लगी कि मैंने तुरत टैक्सी वहाँ रोक दी। उतरकर देखा तो वह एक दर्ज़ी की दुकान थी लेकिन दुकान तो क्या उसे पुरानी दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के अदाकार शिवाजी गणेशन का मंदिर ही समझ लीजिए। साउथ में फ़िल्मों के सुपरस्टार को भगवान की तरह पूजने की प्रथा वैसे भी बहुत प्रचलित है। इस दुकान में अंदर कोई दिखाई नहीं दिया। दुपहर का वक़्त था तो दर्ज़ी शायद खाना खाने गया होगा लेकिन दुकान तो खुली ही थी। भारतीय गाँवों की यह ख़ासियत कितनी सुंदर है कि दुकानदार इस तरह दुकान खुली छोड़कर खाना खाने चला जा सकता है। कच्छ के गाँवों में भी दुपहर के वक़्त दुकानदार ऐसे ही अपनी दुकानें खुलीं छोड़कर चले जाते हैं। ख़ैर, मैंने दुकान में अंदर झाँककर देखा तो एक कोने में सिलाई मशीन और कुछ कपड़े, धागे, कैंची वग़ैरह सामान पड़ा हुआ था और दुकान के मध्य में एक कुर्सी पर शिवाजी गणेशन की बड़ी तस्वीर रखी हुई थी और उसके आगे एक सुगंधित अगरबत्ती जल रही थी। अंदर दीवारों पर शिवाजी गणेशन की ढेर सारी तस्वीरें दिखाई दीं और बाहर दुकान के बोर्ड की जगह पर भी शिवाजी गणेशन की विविध मुद्राओं वाली बड़ी-बड़ी तस्वीरें रखी गई थीं। इस दुकान को देखकर मुझे ऐसा लगा कि मेरा साउथ में आना सार्थक हो गया। भगवान हो या फ़िल्म कलाकार, किसी के प्रति इतनी आस्था रखना या प्यार जताना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती। इस दुकान के मालिक को तो मैंने देखा नहीं लेकिन उसके इस प्यार के मंदिर जैसी दुकान को देखकर मुझे यक़ीन हो गया कि वह चाहे कैसा भी दिखता हो, लेकिन उसके चेहरे पर किसी के प्रति प्रेम और भरोसे की एक नाज़ुक लकीर तो ज़रूर दिखाई देती होगी।

पांडिचेरी के बाद हम कुछ दिन मादिकेरी में ठहरे। कर्नाटक राज्य में कूर्ग (स्थानीय नाम कोडागू) ज़िले का मुख्यालय मादिकेरी है और यह छोटा शहर चारों ओर पर्वतों, जंगलों, नदियों और झरनों के कुदरती सौंदर्य से समृद्ध है। यहाँ पर ‘राजा की सीट’ पर बैठकर सूर्यास्त देखना एक अविस्मरणीय अनुभव है। मैं कई बार सोचती हूँ कि सूरज हर रोज़ दुनिया में कितनी सारी अलग-अलग जगहों पर कितने विविध सौंदर्य से अस्त होता है, पर उसकी भव्यता कहीं पर भी क़तई कम नहीं होती। कूर्ग में हमने गरम मसालों के पेड़-पौधों का बग़ीचा देखा और कोडागू मसालों से बना खाना खाया, फिर कॉफ़ी का बाग़ान देखा और वहाँ कॉफ़ी के अलावा कॉफ़ी से बनी हुई वाईन भी पी। इलायची हो या कॉफ़ी हो या वाइन—सबकुछ यहाँ सीधे पेड़ों से उतरकर ही आ रहा था। कैलिफ़ोर्निया में जिसे ‘फ़ार्म टू टेबल’ कहते हैं, वैसी ऑर्गेनिक लाइफ़स्टाइल, यानी जैविक जीवनशैली यहाँ इतनी स्वाभाविक लग रही थी कि जैसे जीवन जीने की इसके अलावा और कोई रीत हो ही नहीं सकती। कूर्ग में होममेड वाईन बहुत लोकप्रिय है। लोग अपने घरों में ही विविध फलों और फूलों के फ़्लेवर वाली वाईन बनाते हैं और यह घरेलू बाज़ार प्रवासियों को बहुत आकर्षित करता है। पहाड़ी जगहों की यह बात कितनी सुंदर है कि यहाँ जीवन लगभग स्वयं पर्याप्त रीति से चलता रहता है। एक बार मेरा एक अमरीकी मित्र नेपाल घूमने गया—तब वहाँ की बातें करते हुए उसने एक बात कही थी वह मुझे याद रह गई है। उसने कहा कि हम यहाँ अमरीका में ज़्यादातर तो सुपर मार्केट से प्लास्टिक के पैकेट में रेडीमेड कटी हुई गाजर ख़रीदते हैं, जिसमें पत्तियाँ नहीं होतीं; और अगर पत्तियों वाली ऑर्गेनिक गाजर ख़रीदते हैं—तब उसके साथ जो पत्तियाँ होती हैं, उनको हम निकालकर फेंक देते हैं; लेकिन नेपाल में गाजर के साथ उसकी पत्तियाँ भी शोरबा (एक तरह का सूप) में डालते हैं और वह शोरबा उसको ग़ज़ब का स्वादिष्ट लगा था। सचमुच पहाड़ी लोग, पहाड़ों में जो उपलब्ध होता है उसका पूरी तरह से ऋण स्वीकार करना जानते हैं। मरुस्थल में रहने वाले लोग भी यह ख़ासियत रखते हैं क्योंकि पहले तो इनके पास ज़्यादा कुछ उपलब्ध नहीं होता, इसलिए जो उपलब्ध हो उसके इर्द-गिर्द वे अपने खान-पान की दुनिया तैयार कर लेते हैं। राजस्थान में केर सांगरी तथा बेसन के विविध व्यंजनों की लोकप्रियता इसी व्यवस्था का हिस्सा है।

कूर्ग के बाद ऊटी, एक और पहाड़ी जगह देखने की योजना थी, लेकिन बीच में मैसूर तो रुकना ही था। क़रीब तीस साल पहले देखा हुआ मैसूर अभी तो बिल्कुल नया ही लग रहा था। भारत का यह पहला ऐसा शहर मालूम पड़ा जहाँ पर पैदल चलने वालों की सुविधा का ख़याल रखा जाता हो। इस शहर जैसी चौड़ी और स्वच्छ पगडंडियाँ भारत में और कहीं नहीं देखीं। जिस शहर में पैदल चलना आनंदित करे, वह शहर बहुत जल्दी प्रिय हो जाता है। मुझे इस शहर में इन पगडंडियों पर बैठकर गन्ने का रस पीने में बहुत मज़ा आया। एक जगह तो गन्ने वाले से बातें करते हुए मैं काफ़ी देर तक बैठी रही। उसको अँग्रेज़ी बिल्कुल नहीं आती थी और हिंदी भी ज़्यादा नहीं आती थी, लेकिन फिर भी उसकी कन्नड़ मिश्रित टूटी-फूटी हिंदी के साथ हमारी बातें चलती रहीं। उस वक़्त मुझे यह एहसास हुआ कि बहुत अरसे के बाद मैंने अपने आप को भारत में एक अप्रवासी के तौर पर नहीं, लेकिन अब भी एक संपूर्ण भारतीय के रूप में पाया है। और फिर तो मुझे हिंदी पर भी कुछ ज़्यादा ही प्यार आ गया। भारत में भाषाओं को लेकर बहुत राजनीति चलती रहती है, लेकिन अंततः अभी तो यही एक भाषा थी—हिंदी—जो मुझ गुजराती को एक कन्नड़ गन्ने वाले से मिला रही थी। और इसके साथ-साथ मुझ अप्रवासी भारतीय को अपने अंदरूनी भारतीय से भी मिला रही थी। नॉन रेज़िडेंट इंडियंस जब इंडिया आते हैं, तब अक्सर उन पलों की तलाश में होते हैं—जब वे अपने भीतर के इंडिया से आमना-सामना कर सकें। भारत में बहुधा भाग-दौड़ के बीच ऐसे पल मुश्किल से मिलते हैं, लेकिन जब मिलते हैं—तब इस तरह बहुत सहजता से मिल जाते हैं।

मैसूर कर्नाटक का सांस्कृतिक केंद्र है। इसलिए यहाँ राजमहल, प्राचीन मंदिर वग़ैरह तो देखने लायक़ हैं ही, लेकिन मुझे यहाँ सबसे ज़्यादा अच्छा लगा देवराजा मार्केट में घूमना। बहुत ही जीवंत बाज़ार है यह। 1886 से शुरू हुई इस मार्केट में 1500 से अधिक छोटी-छोटी दुकानें हैं और क़रीब 10-12 हज़ार जितने लोग रोज़ इस बाज़ार में आते-जाते हैं। देवराजा मार्केट में दाख़िल होते ही जैसे कोई अलग ही दुनिया में प्रवेश कर लिया हो ऐसा लगता है। नारियल की दुकानें, केले की दुकानें, केले के पत्तों की दुकानें, फूलों की दुकानें, चावल, चंदन, इमली, तेल, मसाले, सब्ज़ियाँ, साड़ियाँ… हर तरह की चीज़ों का इतना वैविध्य, इतने अनगिनत रंग, इतनी अलग-अलग ख़ुशबू कि इस बाज़ार की संकरी गलियों में घूमना मानो जीवन के एक सर्वांग सुंदर इंद्रिय अनुभव से गुज़रना हो। मैसूर का रेलवे म्यूज़ियम भी एक यादगार अनुभव रहा ख़ास करके वहाँ स्कूल की पिकनिक पर आए हुए बच्चों की वजह से। इस रेल संग्रहालय में अठारहवीं सदी के कुछ इंजन, पुरानी तस्वीरें और महारानी सेलून देखते हुए हम घूम रहे थे, तब अचानक ढेर सारे बच्चों ने एक लंबी शृंखला बनाकर वहाँ प्रवेश किया और उनकी चुलबुली आवाज़ों से पल भर में पूरा माहौल ही बदल गया। इस संग्रहालय के बीचों-बीच बग़ीचे में एक छोटी रेलगाड़ी गोल चक्कर लगाती हुई घूमती है। बच्चों के साथ हम भी उस रेलगाड़ी में सवार हो गए और जैसे ही रेलगाड़ी प्लेटफ़ॉर्म के पास पहुँची, तब वहाँ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे दूसरे बच्चों ने बड़े ज़ोरों से चिल्लाकर हमारा अभिवादन किया। उनका उत्साह देखकर ऐसा लगा जैसे हम सचमुच कहीं पर पहुँच गए थे! बच्चों की दुनिया में खिलौनों के घर होते हैं, खिलौने की चाय होती है, वैसे ही ‘पहुँचना’ भी होता है और वह ‘पहुँचना’ किसी काल्पनिक जगह पर पहुँचने जैसा अकल्पनीय आनंद प्रदान कर सकता है।

मैसूर में एक शाम को हम ग्रीन होटल गए क्योंकि वहाँ का ‘मालगुड़ी कैफ़े’ बहुत सुंदर है। ग्रीन होटल दरअस्ल मैसूर की राजकुमारी के लिए बनाया गया पुराना चित्तरंजन महल है, जो अब एक सुंदर होटल में तब्दील कर दिया गया है। अपने नाम को सार्थक करते हुए इस होटल में पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बहुत सारी ग्रीन तकनीकें इस्तेमाल की गईं हैं। होटल के अंदर के चौक में आँगन की तरह बनाया गया ‘मालगुड़ी कैफ़े’ पूर्णतः महिलाओं के द्वारा संचालित है। मेरे लिए तो ख़ैर मालगुड़ी नाम ही काफ़ी था, क्योंकि हाईस्कूल के दिनों में कच्छ में टीवी पर आर. के. नारायण की कहानियों पर आधारित ‘मालगुड़ी डैज़’ धारावाहिक देखने की बहुत सारी स्मृतियाँ मन में ताज़ा हो रही थीं। अगर दक्षिण भारत से प्यार करना हो तो सबसे बेहतरीन तरीक़ा है कि इस प्रदेश को आर. के. नारायण ने रचा हुआ मालगुड़ी नामक एक काल्पनिक गाँव समझा जाए और इसे उस गाँव में रहते स्वामी नामक एक शरारती बच्चे की आँखों से देखा जाए।

मैसूर से जब सुबह हम टैक्सी में ऊटी जाने के लिए निकले, तब हमारी गाड़ी बांदीपुर के जंगल से होती हुई चली—इसलिए मोर, हिरन और बंदरों को देखते हुए तीन-चार घंटे का रास्ता कब कट गया पता ही नहीं चला। तमिलनाडु के हील स्टेशन ऊटी का स्थानीय नाम ‘उदगमंडलम’ है। हिंदी फ़िल्मों के रोमांटिक गानों की शूटिंग हो या नवविवाहित जोड़ो का हनीमून हो, ऊटी की डिमांड कभी कम नहीं होती। हालाँकि हमको यहाँ चाय के बाग़ान और कुदरती सौंदर्य से भरपूर सरोवरों को देखने के अलावा विशेष तौर पर वे जगहें देखनी थीं जहाँ अँग्रेज़ों के राज के समय की झलक देखने मिले। मेरे पति दीपक को अपने साहित्यिक संशोधन के अंतर्गत ब्रिटिश कॉलोनियल इंडिया का वह हिस्सा देखना था, जो वैसे तो अब इतिहास के पन्नों में सीमित है लेकिन कुछ जगहों पर जिसकी निशानियाँ अभी भी दिख रही हों। ऊटी में किंग्स क्लीफ़ होटल बिल्कुल वैसी ही एक जगह है जो समय के उस दौर में क़ैद हो रखी है। यह हेरिटेज होटल अपने आप में एक संग्रहालय जैसा है। सौ साल से भी पहले यह आवास लेडी मेबीन और लॉर्ड रेजीनाल्द का निवास स्थान हुआ करता था। यहाँ ब्रिटिश राज के दौरान अमीर लोगों की गार्डन पार्टियाँ होती थीं। इस होटल के कमरे, बग़ीचे के कुटीर, ग्लास हाउस वग़ैरह अभी तक वैसे ही रखे हुए हैं जैसे कि अँग्रेज़ कभी यहाँ से गए ही नहीं! सारे कमरों की दीवारों पर एक से एक दिलचस्प तस्वीरें हैं और फ़र्निचर, फ़ायर प्लेस सब कुछ एक गुज़रे हुए समय की गवाही देता है। हम इस होटल के ‘अर्ल्स सीक्रेट’ रेस्तराँ में खाना खाने बैठे तब देखा कि रेस्तराँ के मेन्यू के कवर पर एक अँग्रेज़ शादी के दौरान लिया गया बहुत सुंदर फ़ैमिली फ़ोटो लगा हुआ था। भारत में अँग्रेज़ लोग इस तरह रहने लगे थे, जैसे उन्होंने सोचा ही नहीं था कि कभी उनको यहाँ से रुख़सत भी लेनी पड़ेगी। ब्रिटिश साम्राज्य के अंत के परिप्रेक्ष्य में हमने यहाँ पर ‘ब्रिटिश एम्पायर’ नामक बीयर मँगवाई और फिर ऊटी की वादियों में अस्त हो रहे सूरज को देखते हुए वह बीयर पी। अंततः इस दुनिया की और समग्र जीवन की सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि एक न एक दिन सब कुछ अस्त हो जाता है। दमनकारी ब्रिटिश साम्राज्य हो, ब्रिटिश एम्पायर बीयर की बोतल हो या फिर ऊटी में इस बीयर को पीते हुए सूर्यास्त देख रहे ख़ुद हम ही हों। इससे ज़्यादा राहत क्या हो सकती है कि अंततः सब कुछ अस्त हो जाता है।

ऊटी में अँग्रेज़ों की निशानियाँ वैसे बुक स्टोर, कैफ़े जैसी अनेक जगहों पर देखने मिलती हैं। चर्च हील रोड पर स्थित ‘द चर्च हील बुक शॉप’ और दूसरे भी कुछ पुराने बुक स्टोर यहाँ काफ़ी दिलचस्प हैं, लेकिन इनमें से कुछ दुकानें अब बंद होने लगी हैं। ऊटी में 1829 में बना हुआ ‘होटल सवोय’ भी ब्रिटिश कॉलोनियल आर्किटेक्चर के लिए जाना जाता है। कहते हैं कि मूलतः यह इमारत ब्रिटिश बच्चों के शिक्षण के लिए बनी थी और इसके स्तंभ श्रीरंगपट्टनम के टीपू सुल्तान के महल से लाए गए थे। इस होटल के बग़ीचे में बैठो तो ऐसा लगता है कि अभी भी यहाँ हाई-टी के लिए मशहूर ब्रिटिश गार्डन पार्टियाँ ठीक वैसे ही हो रही हैं और सारी गोरी मेमसाबें दस्ताने पहने हुए हाथों में छोटी छतरियाँ लेकर घूम रही हैं। ‘होटल सवोय’ के अनुसार अँग्रेज़ों के प्रिय ‘जी एन टी’ (जिन और टॉनिक) ड्रिंक का आविष्कार यहाँ ऊटी में ही हुआ था। उस समय ऊटी में रहते हुए, अँग्रेज़ सिपाहियों ने क्विनाइन के अर्क की कड़वाहट कम करने के लिए उसमें नींबू, पानी और शक्कर मिलाकर पीना शुरू किया था। दरअस्ल उनके लिए मलेरिया से बचने के लिए दवा के तौर पर क्विनाइन पीना ज़रूरी था, लेकिन बाद में यह ड्रिंक एक पॉपुलर कॉकटेल बन गया। कहते हैं कि ब्रिटेन के भूतपूर्व मुख्यमंत्री विन्स्टन चर्चिल ने भी एक बार कहा था कि भारत में अँग्रेज़ों की जान बचाने का श्रेय सारे डॉक्टरों से भी अधिक तो जिन और टॉनिक को जाता है।

ख़ैर, ऊटी में बसे हुए अँग्रेज़ों में से कइयों ने यहीं पर आख़िरी साँस ली थी और वे सारे आज भी ऊटी की धरती के अंदर गहरी नींद में सो रहे हैं। इनसे मिलना हो तो यहाँ के सेंट स्टीफ़ंस चर्च जाकर इस चर्च के परिसर का क़ब्रिस्तान देखना चाहिए। यह चर्च सिर्फ़ ऊटी ही नहीं, सारे नीलगिरी ज़िले का सबसे पुराना गिरिजाघर है। साल 1830 में बने इस चर्च के निर्माण के लिए भी ज़्यादातर सामान टीपू सुल्तान के श्रीरंगपट्टनम के महल से लाया गया था। इंटरनेट से पता चला कि उस वक़्त इस चर्च का निर्माण ख़र्च 24,000 रुपये का हुआ था। अब तो इतने भव्य और सुंदर चर्च को देखकर इस रक़म पर यक़ीन ही नहीं होता क्योंकि आज की तारीख़ में इतने पैसों से एक अच्छी खिड़की भी ख़रीदना मुश्किल है। इस चर्च के बिल्कुल पीछे यह क़ब्रिस्तान है, जहाँ पर बहुत सारे अँग्रेज़ अफ़सर और उनके परिवारजनों को दफ़नाया गया है। किसी सुंदर और शांत बग़ीचे जैसे इस क़ब्रिस्तान में छोटी-बड़ी बहुत सारी क़ब्रें हैं और उनके पत्थरों पर वहाँ सो रहे मृतकों के नाम और परिवार का सारा परिचय लिखा हुआ है। ये तमाम लोग कोई बहुत बड़े अफ़सर नहीं थे, पर आम ब्रिटिश नागरिक ही थे जो भारत में अपनी नौकरी कर रहे थे। उनमें से किसी की पत्नी, किसी की बेटी, भाई-बहन वग़ैरह आम परिवार के सदस्यों का यह क़ब्रिस्तान मुझे बहुत दिलचस्प लगा। मैंने इससे पहले दुनिया के कुछ बड़े शहरों में कुछ बड़े क़ब्रिस्तान देखे हुए हैं, लेकिन मुझे कहना होगा कि यह क़ब्रिस्तान उन सबसे बहुत अलग है। अमरीका में न्यू ऑरलियन्स में जो क़ब्रिस्तान देखा था, वह वहाँ पर दफ़नाये गए अश्वेत लोग और ग़ुलामी के इतिहास की वजह से ह्रदय को स्पर्श कर गया था। वहाँ कुछ क़ब्रों पर अश्वेत ग़ुलामों की ज़ंजीरें भी रखी गई थीं। जबकि फ़्रांस में पेरिस की जो सेमिटेरी देखी वह वहाँ पर दफ़नाये गए बहुत ही महत्त्वपूर्ण लेखकों और फ़िल्मी कलाकारों की वजह से बहुत ही ग्लैमरस सेमिटेरी लगी थी। इसके अलावा कुछ महान् हस्तियों के समाधि स्थल भी देखे हुए हैं, लेकिन ऊटी का यह छोटा-सा क़ब्रिस्तान तो सचमुच कुछ और ही है। यहाँ दफ़्न हुए अँग्रेज़ों में से कुछ बहुत अन्यायी और क्रूर रहें होंगे, लेकिन मृत्यु के बाद सब कुछ शांत हो जाता है और समय के चक्र का अपना एक अलग संतुलन शुरू हो जाता है। अच्छा हो या बुरा लेकिन जीवन मात्र की अपनी जो भव्यता होती है, वह यहाँ महसूस हो रही थी और शायद इसीलिए यह क़ब्रिस्तान लगभग अलौकिक लग रहा था।

एक सुंदर वाटिका जैसे इस क़ब्रिस्तान में, हर एक पत्थर पर लिखा हुआ मृतक का परिचय मैं पढ़ती रही और मेरे मन में एक अजीब-सा कुतूहल बढ़ता गया। एक क़ब्र पर लिखा हुआ था, “To the memory of Mary Ann, wife of Andrew Thomson, who died on the 22nd April, 1857.” मैंने देखा कि हर तरफ़ घास-पात से लिपटी हुई इस क़ब्र के क़रीब नाज़ुक, सफ़ेद फूल खिले हुए थे। फिर ऊपर आसमान में नज़र उठाकर देखा तो सूरज निकला हुआ था और पहाड़ी इलाक़े की गुनगुनी धूप में मेरे आस-पास सब कुछ ख़ुशहाल, चमक रहा था। कितना सुहाना था समय का वह एक टुकड़ा, जब मैं एक पुराने पत्थर में सिमटी हुई मेरी एन नामक एक अनजान, अँग्रेज़ स्त्री की स्मृति को देखती वहाँ खड़ी हुई थी। कैसी दिखती थी एंड्रू थोम्सन की पत्नी मेरी एन? क्या उसको सचमुच अपने पति से प्यार था? क्या वह इंग्लैंड से इतनी दूर ऊटी में ख़ुश थी? उसको जब इंग्लैंड के अपने घर की याद आती थी, तब क्या याद आता था? बारिश के दिनों में भीगते हुए ऊटी के पर्वतों को देखते हुए वह क्या सोचा करती थी? क्या उसका कोई भारतीय प्रेमी भी था? उसके गोरे हाथों में पकड़ा हुआ चाय का कप कभी फ़र्श पर गिरकर टूट गया होगा? कभी तेज़ बुख़ार में रात के समय बड़बड़ाते हुए उसने क्या कहा होगा? सचमुच एक आम जीवन से ज़्यादा जटिल और कुछ नहीं होता। और एक आम स्त्री से ज़्यादा रहस्यमय भी और कुछ नहीं होता। भारत में ब्रिटिश शासन का इतिहास जो भी हो, जैसा भी हो लेकिन उस सबसे परे यक़ीनन ही मेरी एन नामक एक आम स्त्री का एक अलग इतिहास हो सकता है।

थोड़ी देर बाद देखा तो इस क़ब्रिस्तान में तीन वृद्ध पुरुष आपस में बातें करते हुए हौले-हौले चले आ रहे थे। जब वे मेरे क़रीब से गुज़रे तो मैंने उनसे नमस्ते कहकर कुछ बातचीत की। पता चला कि इनमें से एक जन ऊटी में ही रहता था और उसके बाक़ी दो दोस्त न्यूयॉर्क से कुछ दिनों के लिए घूमने आए हुए थे। किसी समय वे तीनों एक साथ ऊटी के स्कूल में साथ पढ़ा करते थे। मैं भी अमरीका में रहती हूँ, यह जानकर न्यूयॉर्क वाले ख़ुशी से बहुत दोस्ताना होकर बातें करने लगे। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि इस उम्र में अब ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं रहा इसलिए उनकी इच्छा थी कि मरने से पहले एक बार ऊटी ज़रूर जाना है। इन बचपन के दोस्तों की इस क़ब्रिस्तान से जुड़ी हुई अपनी कुछ अलग यादें थीं। उनका स्कूल यहाँ से बिल्कुल सामने ही था, इसलिए अक्सर वे चर्च के पीछे वाले इस बग़ीचे में छिपकर अपनी गुप्त बातें-शरारतें एक-दूसरे से बाँटा करते थे। इन बूढ़े दोस्तों के चले जाने के बाद मैं सोचती रही कि कितने नसीबों वाली होती हैं वे जगहें, जिन्हें मरने से पहले एक बार देख लेने की ख़्वाहिश की जाती है। इन दोस्तों के लिए वह जगह ऊटी थी, मेरे लिए वह जगह कौन-सी है?

ऊटी का जादू कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दूसरे दिन सुबह हम एक चाय के बाग़ान में गए और वहाँ मिट्टी की कटोरी में ताज़ा इलायची वाली गर्मा-गर्म, ख़ुशबूदार चाय पी। बाग़ान में सुबह-सुबह चाय की पत्तियों पर गिर रही सूर्य की किरणों को देखना एक बहुत ही ताज़गीयुक्त अनुभव था। इससे ज़्यादा हरी, इससे ज़्यादा संतृप्ति की अनुभूति और क्या हो सकती है? मैं उत्सुक थी कि जिस नूतन दिन का आरंभ-प्रारंभ ही इतना शानदार हो, वह दिन आगे और क्या-क्या लेकर आएगा। आगे फिर हुआ नीर दोसा और नारियल की चटनी का स्वादिष्ट नाश्ता और फिर हम पहुँचे रेलवे स्टेशन पर, जहाँ से नीलगिरी माउंटेन ट्रेन में ऊटी से कुन्नूर की यात्रा के लिए निकलना था। यह ट्रेन पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है, इसलिए इसका टिकट मिलना हमेशा मुश्किल रहता है। हमने भी बड़ी जद्दोजहद से इन टिकटों का बुकिंग करवाया था। नीलगिरी पर्वतीय रेलवे एक मीटरगेज रेलवे है, जिसकी शुरुआत ब्रिटिश राज के तहत 1908 में हुई थी। यह रेलवे कुल मिलाकर 16 टनल्स और 31 जितने ब्रिज से होती हुई 326 मीटर की ऊँचाई से शुरू करके 2193 मीटर की ऊँचाई तक जाती है। अब दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की तरह यह रेलवे भी वर्ल्ड हेरिटेज की सूची में शामिल है। हमारी यात्रा तो ऊटी से कुन्नूर तक की लगभग एक घंटे की ही थी, लेकिन फिर भी बहुत यादगार रही। इस ट्रेन के केबिन जैसे सुंदर डिब्बे में हमने हमारी सीट पर जगह ली तभी एक नवविवाहित मुस्लिम युगल ने भी डिब्बे में प्रवेश किया। कितने प्यारे सहयात्री थे वे दोनों! दो दिन पहले ही हैदराबाद में उनकी शादी हुई थी और यह उनका हनीमून था। लड़का तस्वीरें लेते हुए थक नहीं रहा था और लड़की बस शर्माये जा रही थी। उनकी ख़ुशी में हम भी शामिल हो गए और फिर तो बातें और तस्वीरें खींचने में यह छोटी यात्रा एकदम ही जल्दी से ख़त्म हो गई। इस ट्रेन यात्रा के दौरान एक छोटा ब्रिज आता है जहाँ पर दिग्दर्शक डेविड लीन की ‘पैसेज टु इंडिया’ फ़िल्म के एक दृश्य का फ़िल्मांकन किया गया है। मूलतः अँग्रेज़ लेखक इ.एम. फ़ोर्स्टर का यह उपन्यास ‘पैसेज टु इंडिया’ मैंने कॉलेज में अभ्यास के तहत पढ़ा था और तबसे इस उपन्यास ने मन में एक ख़ास जगह बना ली थी। दीपक ने यूट्यूब से फ़िल्म का इस ट्रेन वाला वह सीन ढूँढ़ निकाला जिसमें डॉ. अज़ीज़, अदेला क्वेस्टेड और मिसेज़ मूर शामिल हैं। नीलगिरी ट्रेन में बैठे हुए इसी ट्रेन का फ़िल्म वाला सीन देखना एक बहुत ही विलक्षण अनुभव था। ‘आर्ट विदिन आर्ट’ यानी ‘कला के अंतर्गत कला’ या फिर ‘यात्रा के अंतर्गत यात्रा’ जैसा ही कुछ था वह। ख़ास करके फ़िल्म के इन पात्रों का अभिनय इतना जीवंत लग रहा था कि एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे ये सारे किरदार अभी, इस वक़्त भी इसी ट्रेन में बैठे हुए हैं।

ऊटी सचमुच ही एक ऐसी जगह है जहाँ अँग्रेज़ों की उपस्थिति हर क़दम पर महसूस होती है। ऐसा लगता है जैसे इनके प्रेत अभी भी यहीं कहीं बसे हुए हैं। कुन्नूर स्टेशन के बाहर एक दीवार पर बाघ का एक विशाल चित्र था, वह मेरी स्मृति में जैसे स्थिर हो गया। कुछ वैसे ही ब्रिटिश लोग भी ऊटी की स्मृति में स्थिर हो गए हैं। 1822 में कर्नल जॉन सुलिवान ने ऊटकमंड (ऊटी का उस वक़्त का नाम) की स्थानीय टोडा जनजाति के लोगों से एक रुपया प्रति एकड़ के हिसाब से ज़मीन ख़रीदकर अपने लिए एक भव्य आवास बनवाया था। स्टोन हाउस नामक यह बंगला ऊटी का पहला बंगला था, जिसे स्थानिक लोग ‘काल बंगला’ यानी पत्थर का बंगला कहते थे। इस बंगले के बाहर एक ओक ट्री (शाहबलूत का पेड़) है और यह ओक ट्री आज भी ‘सुलिवान का पेड़’ नाम से जाना जाता है। कुछ साल पहले जब हम शिमला गए थे, तब वहाँ का ऐतिहासिक गेईटी थियेटर देखकर भी कुछ ऐसा ही लगा था, जैसे ये अँग्रेज़ वायसराय और लॉर्ड आज भी इस थियेटर में नाटकों के मंचन करवाते हैं और उनकी गोरी मेमसाहेब वहाँ हाथों में पंखा लेकर थियेटर की गैलरी में बैठे हुए हँसी जा रही हैं। भारत में बड़े शहरों से दूर शिमला, ऊटी जैसे कुछ हिल स्टेशन ऐसे हैं—जहाँ अँग्रेज़ों ने बहुत बड़े पैमाने पर अपना संपूर्ण जीवन बसाया हुआ था। इन छोटी जगहों पर इनकी मौजूदगी ज़्यादा महसूस होती है और लगता है कि इन जगहों की स्मृति से इन्हें बाहर निकाल पाना कभी संभव ही नहीं है।

ऊटी में हमारे अंतिम दिन में वनस्पति उद्यान और गुलाबों का बग़ीचा देखा जहाँ बीस हज़ार से अधिक तरह के विविध गुलाब हैं। प्रिय कवि रिल्के ने गुलाब के लिए बहुत कविताएँ लिखी हैं उसका स्मरण यहाँ स्वाभाविक ही होने लगा।

Rose, did you have to be left
outdoors, exquisite dear?
What is a rose doing here
where fate exhausts itself on us?
Point of no return. You're left
with us now, sharing,
desperately, this life, this life
where you do not belong.

The Roses by Rainer Maria Rilke. (Translated by A. Poulin Jr.)

रिल्के की यह छोटी-सी कविता एक बहुत बड़ा सवाल उठाती है कि दरअस्ल गुलाब जैसे एक भव्य फूल की जगह कहाँ पर है? गुलाब के भाग्य में हमारे साथ जीवन बीताना कब और कैसे तय हुआ? ख़ैर, इन सवालों का तो कोई जवाब नहीं है, पर अब मुझे उन रोमांटिक सवालों की याद आने लगी जो ऊटी के गुलाबों के बीच सलमान ख़ान ने भाग्यश्री से पूछे थे। सूरज बड़जात्या के निर्देशन में सलमान ख़ान और भाग्यश्री की सुपरहिट फ़िल्म ‘मैंने प्यार किया’ का बहुत सारा फ़िल्मांकन ऊटी में हुआ है। जैसे यश चोपड़ा को स्विट्ज़रलैंड पसंद था, वैसे ही सूरज बड़जात्या को ऊटी पसंद है। जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई, तब पूरे भारत के युवा दिलों की धड़कनें बढ़ गई थीं। मुझे याद है कि बड़ौदा के हमारे यूनिवर्सिटी होस्टल के हर कमरे में से इसी फ़िल्म के गाने सुनाई देते थे। अब कितने सालों बाद मैं ऊटी में इस फ़िल्म के शूटिंग लोकेशन देख रही थी, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे फ़िल्म के सारे गाने अब तक मेरी ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं।

हमारी गाड़ी अब वापस मैसूर के रास्ते बैंगलोर (या कहिए कि बेंगलुरु) जा रही थी, लेकिन इस बार हम मुदुमलै नेशनल पार्क के रास्ते से गुज़र रहे थे। गाड़ी की खिड़कियों में से दूर जंगल में खड़े हुए हाथी नज़र आ रहे थे। यही वह जगह है, जहाँ हाथियों की देखभाल कर रहे एक वृद्ध दंपति के जीवन पर आधारित दस्तावेज़ी फ़िल्म ‘एलीफ़ेंट व्हीस्पर्स’ बनाई गई है, जिसे ऑस्कर पुरस्कार प्रदान किया गया है। मेरा मन तो कर रहा था कि गाड़ी को बैंगलोर के बजाय इस जंगल के अंदर ले लिया जाए और कुछ दिन मैं यहाँ हाथियों के कैंप में ही रहूँ; लेकिन अब उतना वक़्त ही कहाँ था? यात्रा के लिए तो वैसे कभी भी पर्याप्त वक़्त होता ही कहाँ है? ख़ैर, देर शाम तक हम बैंगलोर पहुँचे और वहाँ होटल के नज़दीक एक उडुपी रेस्तराँ में डिनर करके सो गए। बैंगलोर के लिए इस बार हमारे पास एक ही दिन था, इसलिए तय किया था कि कोई साइटसीइंग नहीं करनी है बस आराम से दिनभर शहर में ड्रिफ़्ट होते रहेंगे। बिना किसी निश्चित योजना के, बिना किसी आशय से दिन की शुरुआत करना हमेशा रोमांचक होता है क्योंकि दिन के अंत में जब पता चलता है कि दिन कैसे गुज़रा तब ख़याल आता है कि दरअस्ल हमें क्या पसंद है और क्या नापसंद। तो इस तरह बैंगलोर के केंद्र समान महात्मा गांधी रोड पर चलते चलते दिन की शुरुआत की और फिर दिन अपना आकार ख़ुद ही लेता रहा।

जिस शहर में किताबों की दुकानें अच्छी होती हैं, उस शहर के लिए मन में एक तरह का स्वाभाविक सम्मान पैदा हो जाता है। बैंगलोर में चर्च स्ट्रीट पर ब्लॉसम बुक हाउस में हमने काफ़ी वक़्त बिताया। आजकल जब हर जगह किताबों की दुकानें बंद हो रही हैं, तब इस तीन मंज़िला दुकान का होना अमूल्य है। इस स्ट्रीट पर कुछ दूसरे भी बुक स्टोर हैं और यह पूरा इलाक़ा विद्यार्थियों की चहलक़दमी, विविध कैफ़े और पुस्तक प्रेमी मुलाक़ातियों की वजह से भरा हुआ रहता है। यहाँ से फिर हम खाना खाने के लिए कोशी रेस्तराँ में गए जो बैंगलोर का एक बहुत पुराना, ऐतिहासिक रेस्तराँ है। पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर क्वीन एलिज़ाबेथ जैसे लोग यहाँ आ चुके हैं। इस रेस्तराँ ने अभी भी वह 1952 वाला माहौल बरकरार रखा है। मैंने यहाँ दीवार पर लगी हुई सारी पुरानी तस्वीरों का जायज़ा लिया। बैंगलोर वैसे अब बहुत आधुनिक शहर बन गया है और आजकल यहाँ बीयर टेस्टिंग, कॉफ़ी टेस्टिंग वग़ैरह काफ़ी फ़ैशनेबल हो गया है। हमने एक कैफ़े में विविध फ़्लेवर की कॉफ़ी की टेस्टिंग की, जिसमें चिकमंगलूर की कॉफ़ी मुझे बहुत अच्छी लगी। विदेशी प्रवासियों को दक्षिण भारत में साइकिल पर से कॉफ़ी बेचने वाले के पास बैठकर स्टील के गिलास में फ़िल्टर कॉफी पीना मज़ेदार लगता है, लेकिन यहाँ के स्थानीय युवाओं को अब स्टारबक्स जैसे विदेशी कैफ़े ज़्यादा स्टाइलिश लग रहे हैं।

बैंगलोर से दूसरे दिन सुबह में जल्दी ही वाया लंदन होकर अमरीका घर वापसी की लंबी फ़्लाइट लेनी थी, उस ख़याल से ही मन में थकान की अनुभूति मंडराने लगी थी। सुबह में एयरपोर्ट जाते वक़्त रास्ते में किसी साइकिल वाले से एक आख़िरी बार बहुत स्ट्रोंग फ़िल्टर कॉफी ख़रीदकर पी रही थी, तब मन ही मन सोच रही थी कि मैं जब-जब भी यहाँ आई तब मैंने अपने आप को जीवन में एक नये पड़ाव पर पाया है। दक्षिण भारत में युवावस्था में अकेले किए गए प्रवासों से लेकर अब पति के साथ यहाँ निवृत्त जीवन बिताने की संभावना मन में जन्म ले रही थी। इस बार मैसूर की मुलाक़ात के दौरान मैं यह देखने की कोशिश कर रही थी कि क्या निवृत्ति के बाद इस शहर में रहा जा सकता है? बैंगलोर की फ़्लाइट मेरे जीवन की पहली उड़ान थी, लेकिन कुछ यात्राएँ जीवन में वह पहली हवाई यात्रा जैसी होती हैं जो ख़त्म होने के लिए नहीं बनी होतीं। मैं चाहूँगी कि जीवन में बार-बार दक्षिण भारत वापस आने की फ़्लाइट पकड़ती रहूँ।

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