एक कोरोजीवी का ख़ुद को ख़त
अमित कुमार 18 जुलाई 2024
प्रिय ‘मैं’
घड़ी के अश्रांत पाँव मुझे हमेशा रोचक लगे हैं। उनके आगे चलते जाने की प्रतिबद्धता मुझे हैरत और हिम्मत से सराबोर करती है। तुम्हें पता है कि मेरी हमेशा से यह अकारथ इच्छा रही है—जो कि संभवतः ढेर सारी संगत मूवीज़ देखने से विकसित हुई होगी—कि मैं घड़ी के नॉब को पीछे की ओर घुमाऊँ और मेरे समक्ष समय भी उतना ही पीछे चला जाए। हालाँकि यह संभव क़तई नहीं है, लेकिन अप्राप्य के असंभाव्य में अजब आकर्षण होता है।
कुछ दिनों पहले ही किसी भीषण त्रासदी से जूझते मेरे मन में यह विचार आया कि क्यों नहीं मैं सांकेतिक तौर पर अपने विगत-स्वयं को लिखकर उसे आने वाली चुनौतियों के लिए आगाह करूँ और इससे काश कहीं मेरी उक्त मुराद भी आभासी अवस्था में साकार हो जाए!
तुम अभी अपनी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे हो। मुझे तुम्हारे सामर्थ्य के मुताबिक़ की जा रही मेहनत पर ख़ासा गर्व है। तुम्हारी प्रतिभा और परिश्रम मुझे आकार देते हैं। मैं साक्षी रहा हूँ, उन रातों का जिनमें तुम गृह-कार्य करते-करते थके-माँदे टेबल पर ही सर रखे सो गए।
मैंने अपने हाथों से पोंछे हैं, घर की याद-भाप से घनीभूत हुए तुम्हारे आँसू। मैंने लाख मान-मनौवल किए हैं, जब भी तुम टेस्ट में अपने प्रदर्शन को लेकर असंतुष्ट हुए हो और मुझे ही भवनीय को लेकर तुम्हारी आशंकाओं का अचूक अनुमान है।
मैं तुम्हें यह ख़त लिखकर सचेत करना चाहता हूँ कि तुम्हारी बारहवीं के इम्तेहान से कुछ अनंत-गुणित विकराल दस्तक देने वाला है। जिसकी भीषणता के आगे पूरा विश्व विवश नज़र आएगा। हर तरफ़ कुहराम पसरा होगा, निर्धन के पेट और पीठ के बीच की रेखा और पतली हो जाएगी और हर तबके का हर शख़्स किसी न किसी स्वजन के अवसान के ग़म में ज़ार-ओ-क़तार रो रहा होगा।
मैं समझता हूँ, तुम्हें यह पूरा पढ़ने के लिए पानी की बोतल लेकर आराम से किसी सहारे को पकड़ बैठ जाना चाहिए।
एक महामारी फैलने को है, जिसका प्रभाव साँसत संबंधित है। यह वायरस बिल्कुल ही अपूर्व रोग लेकर आएगा, जिसके इलाज के नाम पर हमारे पास महज़ रोकथाम का मार्ग शेष रह जाएगा। चूँकि इस महामारी की गति और क्षति का पैमाना अतिशय प्रचंड है, इसलिए हमारे दैनिक क्रियाकलापों में शीघ्रातिशीघ्र आमूलचूल परिवर्तन दर्ज किए जाएँगे। लॉकडाउन, क्वारंटाइन जैसे शब्द; और मास्क, सेनेटाइजर जैसे उपकरण हमारी दिनचर्या में दनादन दाख़िल होंगे।
त्रासदी के बाहुरूप्य ने अनादि काल से मनुष्य जाति की उबर पाने की क्षमता को प्रखर किया है। हमारी उपलब्धि यह भी रही है कि कुछ भी बुरा घटित होने पर हम अपना रवैया उसी रूप में परिवर्तित करते हैं। बारिश वाले क्षेत्र में घरों की छतों का तिरछा और रेगिस्तान में पहिए वाले घरों का होना इस आचरण की बानगी भर है।
लड़ने और ढलने के गूढ़ ने हमें प्राणियों में श्रेष्ठता की श्लाघा से सुसज्जित किया है। कोरोना, विशाल वैश्विक आपदा के अतिरिक्त हमारे अनुकूलन की कठोर निरीक्षा का भी नाम होगा।
सच कहूँ तो शुरुआती दिनों में कुछ भी समझ नहीं सकने की स्थिति में होने के कारण हर तरफ़ अफ़रातफ़री मची होगी। सामूहिक रूप से जीवन खोने का भय नितांत विध्वस्त रूप धारण कर लेता है। मुझे अब ‘सिमुलेशन एक्सरसाइज’ की महत्ता और आवश्यकता समझ आती है।
राष्ट्रीय स्तर तक की सभी गतिविधियाँ स्तंभित पड़ जाएँगी और हम सब अपने घरों में अपनी ही सुरक्षा के लिए क़ैद कर दिए जाएँगे। जो ख़ौफ़नाक मंज़र सृजित होगा, उसकी परिकल्पना शायद तुम न कर पाओ, देखने से तुम्हें यकीन होगा।
जब निकम्मी सरकार बिना किसी पूर्व सूचना के पूरे देश की अवाम को, जहाँ वे मौजूद हों, वहीं रहने को बाधित कर यातायात के सभी साधन और दुकानें बंद कर दे, तो व्याप्त जमाखोरी और अराजकता का ठीकरा सत्ता के सर फोड़ने से नीचे कुछ भी भद्दा मज़ाक़ होगा। यातायात और रोज़गार के अभाव व व्यग्रता और परिवार-मिलन के दबाव में मज़दूरों का एक बहुत बड़ा हिस्सा पैदल ही बहुत बड़ी दूरी तय करने की सोच अपने घर को निकल पड़ेगा।
अफ़सोस कि उनकी पीठ पर लदकर बड़ी हुईं इमारतों में इतना सामर्थ्य नहीं होगा कि वे उन्हें अपनापन जताकर किसी तरह रोक लें! इन घने स्याह क्षणों में सुविधानुसार लोग या तो ईश्वर से क्षमा-याचना कर रहे होंगे या उसके वजूद को कपोल कल्पना जान खारिज कर रहे होंगे।
हर शख़्स अपनी हरेक साँस बड़े सलीक़े और साध्वस से गिन रहा होगा। कई लोग अपने घरों से दूर काम करने, पढ़ाई करने, इलाज कराने, पर्यटन-सफ़र करने गए होंगे और वही फँस कर वापस घर जाने की दारुण गुहार लगा रहे होंगे। समाज के जिस वर्ग को स्मार्टफोन का विशेषाधिकार मयस्सर होगा, वह ट्विटर पर #SendUsHome के ट्रेंड चला रहा होगा।
वहीं मज़दूर-कामगार वर्ग काम की कमी में खाने के इंतज़ाम से लेकर इस बात तक की चिंता कर रहा होगा कि यदि वह परदेश में ही अपनी जान गँवा बैठे तो उसकी चिता को आग कौन देगा?
ऐसे प्राणघातक दौर में मनुष्यों में मनुष्यता की धारा का फूटना जितना सहज है उतना ही सापेक्ष्य भी। जिन चुनिंदा हाथों में ताक़त और जेबों में दौलत होगी, उनके आगे आने से दरिद्र बंधु-बांधवों की सेवा के मार्फ़त सामूहिक दुःख और भूख में तनिक ह्रास होगा।
मैं यदि तुम्हें कोई संख्या बताऊँ मसलन तीन हज़ार चार सौ पिचहत्तर या छह हज़ार एक सौ अड़तालीस, तो तुम्हारे दिमाग़ में किन संबंधित चीज़ों की छवि उभरेगी? किसी सक्रिय बल्लेबाज द्वारा अब तक बनाए गए रन? या छोटे शहर के किसी कमरे का किराया? या फिर देश के किसी कोने से दूसरे कोने तक की किलोमीटर में दूरी?
अब तुम यह कल्पना करो कि ये संख्याएँ किसी भी निर्जीव वस्तु की गणना का नहीं बल्कि पूरे देश में रोज़ ही सजीव से निर्जीव की श्रेणी में शुमार हो रहे लोगों का बोधक है!
आगामी महामारी में किसी दिन कुछेक कम मौतों की संख्या की आड़ ले सरकारें अपनी कॉलर ऊपर करने लगेंगी और तुम्हें यह बात सालते रहेगी कि कब, कैसे और क्यों हम मनुष्य से आँकड़ों में तब्दील हो गए! तुम्हें यह देख अचंभा होगा कि कैसे पीड़ित लोगों का परिचय उनके डिसिज्ड अथवा रिकवर्ड कैटेगरी में प्लस वन (+1) के अदने चिह्न से संबद्ध होगा।
मुझे स्मरण है कि कैसे महाकवि निराला अपनी अठारह वर्षीया पुत्री सरोज के देहांत से जनित हिलोरती भावनात्मक लहरों को पद्य के पृथुल डोर से बाँध देते हैं। ‘सरोज स्मृति’ के अंतिम अंश में वह ख़ुद के दुख की थाह लेने की चेष्टा करते हैं—
मुझ भाग्यहीन की तू संबल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
अवसाद से लैस पलों में मुझे कुछ लोगों की तमाम मौतों से इतनी जल्दी पार पा जाने की प्रतिभा से कुढ़न होती है, वहीं दूसरे ही पल मैं लाखों सरोज स्मृतियों के असंख्य पन्नों की तेज़ फड़फड़ाहट की कल्पना कर सिहर उठता हूँ। हरेक शोकगीत की भूमिका में मौत का कारण सामान्य होने का ख़याल मुझे अत्यंत असहज करता है।
देखते ही देखते मेरी आँखें क्रोध में ज्वालामुखी-सी लाल हो जाती हैं, जिसके मुख से करुणा का लावा औचक ही फूट पड़ता है। जीवन ऐसी ही तमाम कटु विडंबनाओं का सम्मिश्रण हो चला है; पशु सड़कों पर उन्मुक्त विचरते हैं और हम अपने गवाक्षों की सलाखों के पीछे से उन्हें देख डाह खाते हैं। ‘सामाजिक दूरी’ पद के भीतर कितना बड़ा विरोधाभास विरजता है। जीवन के तपित रेगिस्तान में सर्द मृगतृष्णा-सी प्रतीति देने वाला परिवार का साथ इतनी लंबी अवधि के लिए हासिल हुआ कि अब अखरता है।
जाहिर है कि इतनी शीघ्रता से होते रद्दोबदल को अंगीकार करने हेतु लोगों को जद्दोजहद करनी पड़ेगी। वे पूरे दिन अपने ख़यालों के साथ घर में रह रहे होंगे और उनमें एक अवश्यम्भावी प्रगाढ़ उदासीनता घर कर रही होगी। वर्तमान की सड़क पर खड़े वे ख़ुद को घनघोर तिमिर से घिरे पाएँगे। उन्हें आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा होगा। उन्हें यह सब कुछ अंतहीन कारावास-सा प्रतीत होगा। इसलिए भी वे अतीत के आमोद को स्मरण कर विरक्त महसूस कर रहे होंगे।
लोगों का मानसिक स्वास्थ्य बिल्कुल तेज़ी से अवक्रमित हो रहा होगा। भय और एकाकीपन की प्रतिक्रिया से आत्मघाती भावनाएँ जन्म रही होंगी। गण्य लोग तात्कालिक हालात के मद्देनज़र वक़्त की नज़ाकत समझ एक दूजे के लिए उपलब्ध रहने की पुरज़ोर कोशिश भी करेंगे। वे दूसरों से ज़्यादा ख़ुद सुन रहें होंगे अपने शब्द, जब वे बेहतर दिनों के आने का ढाढ़स बाँध रहे होंगे—क्योंकि उन्हें उम्मीद से ही तो मिलेगा अँजुरी भर ईंधन, जीए जाने को। उम्दा और उद्दाम दिवसों की चाह में बुने ख़यालों के सुर मंगलेश डबराल की कविता से जा लगेंगे—
इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुँधुवाता ख़ाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफ़िर की तरह
गुज़रता रहेगा अँधकार
भावनात्मक पहलुओं के इतर भी कई व्यावहारिक समस्याएँ एक साथ विभिन्न वर्गों के माथे टूट पड़ेंगी। उनमें से एक क़ाबिले ग़ौर तबक़ा विद्यार्थियों और शिक्षकों का होगा। सभी शिक्षण संस्थानों के बंद होने की वजह से बच्चों को पूरा दिन अपने घर पर ही मौजूद रहना होगा। गाहे-बगाहे वे स्कूल जाने को अकुलाते रहेंगे। विकल्प के तौर पर उनके हिस्से आएगा ऑनलाइन एजुकेशन।
कई बच्चे ऐसे होंगे जिनके पास इस प्रक्रिया में संलग्न होने हेतु पर्याप्त संसाधन नहीं होंगे। परोक्ष रूप से उनके शिक्षा के अधिकार पर अंकुश लग रहा होगा। एक लोकोक्ति जो तुम्हारे इतिहास के शिक्षक ने कभी सुनाई थी, “हरे बाँसों को बूढ़े बाँसों के बनिस्बत मोड़ना आसान होता है”—का निहितार्थ तुम्हें इन दुर्दिनों में बख़ूबी समझ आएगा।
हर पीढ़ी की अपनी समेकित साझा सीमाएँ और तजुर्बे हैं, जो उनके अस्तित्व से जुड़े द्योतक हैं। आवश्यकता के मुताबिक़ अनुकूलन हर किसी के लिए अतीव निजी मसला है। तिस पर इतने बड़े मानदंड पर होते बदलाव से ख़ुद को संरेखित करना निश्चित ही भगीरथ प्रयास है। तकनीकी समृद्धि अर्जित करना शिक्षकों के लिए जितना अनिवार्य होगा कमोबेश उतना ही दुःसाध्य भी।
वे जूझ रहे होंगे सामने चमचमाती स्क्रीन से और बहुधा पूछ रहे होंगे यह सवाल कि क्या उनकी आवाज़ उस दीवार के पार जा रही है! जब वे डिस्प्ले पर बेतरतीब बिखरे आइकन्स को समझने की निश्छल कोशिश में तल्लीन होंगे, तकनीक उनके चेहरे की झुर्रियाँ और आँखों के गड्ढे ढाँपने की नाकाम कोशिश कर रहा होगा।
वे महिलाएँ जिन्होंने शादी के बाद शाम में स्कूल जा पढ़ने की ठान कई मुसीबतें मोल ली थीं, उनकी पीठ पर यह ई-व्यवस्था दोहरी मार और मुसीबतों में इज़ाफ़ा है। उन्हें नवीन अध्यायों के अतिरिक्त तकनीकी नियंत्रण से अवगत होकर उसकी उपलब्धता का भी ज़िम्मा लेना होगा।
कला के कई कोर्स जिनमें शिक्षक की शारीरिक उपस्थिति अनिवार्य है, उनके सीखे-सिखाए जाने के स्तर में गिरावट दर्ज की जाएगी। छात्रों की छोर से संचार कौशल में अनिच्छा और अपरदन के आसार नज़र आएँगे। महामारी हर सामाजिक संरचना और संस्था की विविध विधियों के चिथड़े उड़ा देती है।
तुम्हें पता है कि अल्बर्ट आंइस्टीन ने कहा था—“दो चीज़ें अनंत हैं : ब्रह्मांड और मानव मूर्खता; और मैं ब्रह्मांड के बारे में निश्चित नहीं हूँ।” उन्हें शायद इस बात की थाह थी कि मनुष्य की बुद्धिमता से अधिक बेवक़ूफ़ी की थाह नहीं लगाई जा सकती। त्रासदी के दौरान विश्व के विभिन्न हिस्सों में ऐसे लोगों के समूह होंगे जो इस महामारी को किसी राजनैतिक स्टंट के रूप में जनता के समक्ष पेश कर रहे होंगे। उनकी भौगोलिक दूरी को उनकी अज्ञता का सूत्र समेट कर काफ़ी क़रीब ला रहा होगा।
वे इस महामारी को तुच्छ बताने के भरसक यत्न कर रहे होंगे। उनमें से कुछ खो रही जानों (ज़िंदगियों) को गणितीय अंदाज़ में तौल कर आँकड़े प्रस्तुत कर रहे होंगे, जिनमें वे दिखाएँगे कि कैसे सड़क दुर्घटना में अधिक सालाना जानें जाती हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों वक़्त और मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ती जाएगी, वे बड़ी सहूलत से अपने बिलों में दुबके मिलेंगे।
बाज़ार बंद करने की साजिश बाज़ार कदापि नहीं कर सकता। वे लोग विभिन्न चरणों में विभिन्न तरीक़ों से विभिन्न अफ़वाहों को फैला रहे होंगे। अफ़वाहों से याद आया कि घरों में बैठे लोगों का ध्यान मूल सवालों से भटकाने के लिए व्यवस्था सांप्रदायिक तनाव को तूल दे रही होगी। यह तथ्य है कि अब अफ़वाह हमारे परिवेश के स्थायी सच हैं और उनकी ताक़त लोगों में एकत्रित घृणा और जड़ता है।
बीच में रोगियों की दैनिक संख्या में गिरावट आने पर दुकानों के शटर धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे होंगे। अल्पावधि में ही लोगों के भीतर का भय छूमंतर हो चुका होगा। अब वे जान अपनी हथेली में और मास्क अपनी जेबों में लेकर घूम रहे होंगे।
इसी बीच देश के विभिन्न हिस्सों में चुनावी बिगुल बज उठेगा और विभिन्न स्तर पर सरकारें अपनी रैलियों में हज़ारों-हज़ार की भीड़ बड़ी शान से इकट्ठा कर रही होंगी। तभी महामारी (जो कभी गई ही नहीं) की दूसरी लहर देश में दस्तक दे चुकी होगी। इस बार किसी बाघिन-सी वह दो क़दम पीछे ले चार क़दम दहाड़ कर आगे आ रही होगी।
देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की जर्जरता से पर्दा उठ जाएगा। मरीजों के फेफडों में कराहने तक की क्षमता शेष नहीं रह जाएगी। अस्पताल भर चुके होंगे और दवाइयों की कालाबाज़ारी परवान चढ़ रही होगी। छोटे-छोटे स्तर पर कुछ लोग मरीज़ों को बिस्तर और ऑक्सीजन सिलिंडर उपलब्ध कराने में आसमान ज़मीन एक कर रहे होंगे। इस बार हर परिवार किसी न किसी परिजन को खोएगा और भोंकार पार कर रोएगा।
वैश्विक स्तर पर कई संस्थाएँ महामारी के विरुद्ध टीका ढूँढ़ने में जुटी होगी और अंततोगत्वा आंशिक तौर पर उन्हें सफलता भी मिल जाएगी। लोगों में टीके को लेकर शंका होगी पर वह भी जाते-जाते जाते रहेगी। यह बवंडर कुछ दिनों में थमेगा पर बहुत कुछ उजाड़ कर अपने साथ भी ले जाएगा।
यह सब मैं एक साँस में क़तई नहीं लिख पाया हूँ। हर हिस्से को लिखते हुए मेरे भीतर कोई ज्वार उफनने लगता है और मैं सर और क़लम दोनों टेबल पर धँसा देता हूँ।
मैं घर में हूँ। बंद... अपने कॉलेज के असाइनमेंट लिखते-लिखते मेरी उँगलियाँ उकता चुकी हैं। मुझे बाहर जाना है, पर सुरक्षित भी रहना है। मुझे रेल की छुक-छुक मधुर लगने लगी है, मुझे इंद्रधनुष देखने की तलब होती है। शिक्षक की शारीरिक अनुपस्थिति मुझे बेहद खलती है। कॉलेज जाकर, पूरी की जाने वाली सभी योजनाओं पर पानी फिरा पड़ा है और उसके सूखने की आशा दूर की कौड़ी है। स्वयं को किसी संग्राम में जबरन ठिला पाता हूँ, जिसका समापन निकट भविष्य में क़तई दिखाई नहीं देता।
तीसरी लहर आने को है और मैं तैयार नहीं हूँ। मैं कभी भी तैयार नहीं हो सकूँगा। शायद तुम्हें लिख कर मैं वे सारे भाव सहेज लेना चाहता हूँ, जिनकी मुझे इन दिनों अनुभूति होती है। या शायद विक्षिप्त, विकराल, विनाशक दिनों में सुस्थ रहने का मेरे पास यही एकमात्र तरीक़ा बच गया है।
जब आस-पास के उथल-पुथल से तुम्हारे मन में पैने सवाल उठते होंगे और तुम्हारा हौसला जवाब देता होगा, तब तुम विलियम अर्नेस्ट हेंले की कविता के शब्दों में तलाशना अपना संतुलन—
In the fell clutch of circumstance
I have not winced nor cried aloud.
Under the bludgeonings of chance
My head is bloody, but unbowed.
Beyond this place of wrath and tears
Looms but the Horror of the shade,
And yet the menace of the years
Finds and shall find me unafraid.
तुम्हारे भविष्य के लिए शुभेच्छाएँ!
तुम्हारा स्व
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