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लाला हरदयाल

1886 - 1939 | नई दिल्ली, दिल्ली

लाला हरदयाल के उद्धरण

हमारी आँखें हैं, इस कारण अंधों के प्रति हमारा कुछ कर्तव्य है। हम अपनी आँखें दिन में एक बार, सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार कुछ देर के लिए उन्हें उधार दे दें।

निस्संदेह मैं तो हिंदू युवकों को वीरों और हुतात्माओं के उस गौरवमय पागलखाने में प्रविष्ट कराना चाहता हूँ जहाँ त्याग को लाभ, ग़रीबी को अमीरी और मृत्यु को जीवन समझा जाता है। मैं तो ऐसे पक्के और पवित्र पागलपन का प्रचार करता हूँ। पागल! हाँ, मैं पागल हूँ। मैं ख़ुश हूँ कि मैं पागल हूँ।

समस्त अत्याचारी सरकारें एक दूसरे का उपकार करने के लिए सदा तैयार रहती ही हैं।

कृपया सदैव मुझे प्रेमपूर्वक पत्र लिखिए क्योंकि मैं 'मित्रविहीन निर्जन प्रदेश' में हूँ, अकेला हूँ और जो मुझसे प्रेम करते हैं, उनके पत्र मुझे वरदान तुल्य हैं।

इतिहास का खेल न्यारा है। सदा नए चमत्कार होते रहते हैं। नए गुल भी खिलते रहते हैं। संभव और असंभव ये दोनों शब्द इतिहास में निरर्थक हैं।

मैं अब अपने आदर्श से हटकर जीने की अपेक्षा के समीप मरना अधिक पसंद करूँगा।

क्षणिक साहित्य की अपेक्षा पत्रिका अधिक उपयोगी होती है। पत्रिका तो किसी दल की एक संस्था ही होती है।

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