अपना अपना भाग्य
बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए।
नैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप-से, बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अँधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और