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त्यागराज

1767 - 1847 | तिरुवरुर, तमिलनाडु

त्यागराज के उद्धरण

प्रभु के प्रति सच्ची भक्ति की प्रतिपत्ति ही जीवन में सच्चे पद की प्राप्ति है। वेद, शास्त्र, पुराण आदि का अध्ययन ही अपने में कोई विशेष पद-प्रद नहीं हो सकता जब तक उनके सारभूत तत्त्व को आत्मसात कर लिया जाए। धन-दौलत और धनी राजाओं आदि के साथ मैत्री भी अपने में कोई सम्मान की बात नहीं है। जप-तप आदि से प्राप्त अणिमा आदि सिद्धियों से संसार को सताने में भी कोई गौरव की बात नहीं है।

आपके सहारे के बिना कोई शरीर कैसे चल सकता है? आपके बिना कोई भी पौधा कैसे उग सकता है? आपके बिना कहीं भी पानी कैसे पड़ सकता है? आपके बिना यह त्यागराज आपका गुणगान कैसे कर सकता है?

अनाथ मैं तो नहीं हूँ क्योंकि आप मेरे हैं। पर वास्तव में सनातन वैदिक विद्वानों के मुँह से सुना है कि आप अनाथ हैं, आपका कोई नहीं है।

बुद्धि नहीं आएगी, बुद्धि नहीं आएगी यदि महान संतों की बात नहीं सुनोगे। बुद्धि नहीं आएगी, चाहे अनेक प्रकार की विद्या सीख लो।

राम-भक्ति अपने में एक साम्राज्य के समान है। जो इस साम्राज्य के अधिकारी होते हैं, उनके दर्शन मात्र से ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। परोक्ष रूप से प्राप्त आनंद ही इतना लोकोत्तर है, तो फिर उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कैसी होती है, इसका वर्णन करना मेरे लिए संभव नहीं है। उसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है। कोलाहल से भरा हुआ यह संसार, ये तीनों लोक, ईश्वर की लीला के परिणाम मात्र हैं। इस मायामय संसार का सनातन सत्य केवल राम-भक्ति में पाया जा सकता है।

परख-निरख कर परमात्मा का रूप बार-बार देखो। वह 'हरि' भी कहलाता है और 'हर' भी। नर और सुर भी वह रहता है। अखिलांड भुवन में, जन-मन में, जलथल में, नभ में पवन, प्रकाश, चराचर जगत्, खग, नग, मृग, तरु, लताएँ, सब में वही सगुण-निर्गुण त्यागराज का आराध्य ईश्वर व्याप्त है।

हे राम! तुम्हारा मन बहुत ही निश्चल और निर्मल है। पर मेरे मन में छल, कपट और चंचलता को देकर मुझे छोड़कर कहीं मत जाना।

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