जी. शंकर कुरुप के उद्धरण



यह शरीर केवल एक दीपक है—प्राणों के प्रज्वलित होने के लिए। मिट्टी के इस दीप के प्रति इस प्रकार मुग्ध हो जाना क्या उचित हुआ? लावण्य तो मात्र इंद्रजाल है उस दोप का। हाय, साहसी अनुराग ने आपकी बुद्धि की आँखें मूँद दीं।
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जीवन ही गान है, काल ही ताल है, मन के विशेष भाव ही विभिन्न राग हैं, समूचा विश्व मंडल ही लय है।
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हे मानव! जब से मैंने तुम्हारी भाषा सीखी, तब से वह विश्व-विमोहक भाषा भूल गया जिसमें स्नेह छोड़कर कोई शास्त्र नहीं, आनंद को छोड़कर कोई अर्थ नहीं, रूप को छोड़कर कोई छंद नहीं।
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कुछ लोग मरण का वरण कर के जीवन जीते हैं, कुछ लोग जीते हुए भी मृत होते हैं।
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मैं भी जानती हूँ प्रेम का मूल्य, किंतु जब उसकी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य भाव से तुलना करती हूँ प्रेम-एक तुषार की कणिका-सा बन जाता है और मातृभूमि के प्रति कर्तव्य भाव अमूल्य रत्न-सी दिखाई पड़ता है।
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यह प्यारा जीवन जो आँसू और हँसी का रसायन है, अमूल्य होने पर भी क्षणिक है, जैसे धूप में छोटी-सी ओस की बूँद। इसको व्यर्थ क्यों खोते हो।
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ज्ञान की ज्योति, तू हट जा, हट जा। तूने मेरी सौंदर्य-दर्शक आँखें फोड़ दीं।
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