भक्तिकाल

लगभग 1318 ई. से 1643 ई. के दरमियान भक्ति-साहित्य की दो धाराएँ विकसित हुईं—एक सगुण धारा, जिसमें रामभक्ति और कृष्णभक्ति की सरस गाथाएँ हैं; दूसरी निर्गुण धारा, जिसमें ज्ञानमार्गी संतों और प्रेममार्गी सूफ़ी-संतों की महान परंपरा है। भारत के सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास में भक्तिकाल को ‘लोकजागरण’ का स्वर्णयुग माना गया है।

रहस्यवादी कवि

सिक्ख धर्म के आदिगुरु। भावुक और कोमल हृदय के गृहस्थ संत कवि। सर्वेश्वरवादी दर्शन के पक्षधर।

1634 -1780 धरकंधा

मुक्ति पंथ के प्रवर्तक। स्वयं को कबीर का अवतार घोषित करने वाले निर्गुण संत-कवि।

निमाड़ के संत सिंगाजी के शिष्य।

1660 -1778 लखनऊ

रीतिकालीन संधि कवि। सतनामी संप्रदाय से संबद्ध। जगजीवनदास के शिष्य। भाषा में भोजपुरी का पुट।

निर्गुण संत। जनश्रुतियों में कबीर के अवतार। हार्दिक सच्चाई और अंतःसाधना के अत्यंत सरस वर्णन के लिए स्मरणीय।

संत सिंगाजी के शिष्य और संतकवि।

भक्तिकाल के संत कवि। विवाह के दिन संसार से विरक्त हो दादूदयाल से दीक्षा ली। राम-रहीम और केशव-करीम की एकता के गायक।

जसनाथ संप्रदाय से संबद्ध। सच्ची आत्मानुभूति और मर्मबेधिनी वाणी के धनी संतकवि।

'नाथ संप्रदाय' से प्रभावित संत। 'आदिग्रंथ' में संकलित संत कवियों में से एक।

1540 -1648 अलवर

भक्तिकाल। संत गद्दन चिश्ती के शिष्य। लालदासी संप्रदाय के प्रवर्तक। मेवात क्षेत्र में धार्मिक पुनर्जागरण के पुरोधा।

1519 -1559 खंडवा

मनरंगीर के शिष्य। स्वानुभूति के बल पर आध्यात्मिक आदर्श का निरूपण करने वाले संत कवि।

उत्तर भारत में 'निरंजनी संप्रदाय' के संस्थापक। वाणियों में हठयोग और रहस्यवाद की छाप। भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण।

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