भक्तिकाल

लगभग 1318 ई. से 1643 ई. के दरमियान भक्ति-साहित्य की दो धाराएँ विकसित हुईं—एक सगुण धारा, जिसमें रामभक्ति और कृष्णभक्ति की सरस गाथाएँ हैं; दूसरी निर्गुण धारा, जिसमें ज्ञानमार्गी संतों और प्रेममार्गी सूफ़ी-संतों की महान परंपरा है। भारत के सांस्कृतिक और साहित्यिक इतिहास में भक्तिकाल को ‘लोकजागरण’ का स्वर्णयुग माना गया है।

योग साधक

अपने युग के आत्मज्ञानी जैन संत। पदों में कबीर का तीखा अंदाज और मीरा की मिठास दोनों एक साथ समाहित।

भक्ति परंपरा के संत कवि। ‘अजगर करे ना चाकरी...’ जैसी उक्ति के लिए स्मरणीय।

1540 -1648 अलवर

भक्तिकाल। संत गद्दन चिश्ती के शिष्य। लालदासी संप्रदाय के प्रवर्तक। मेवात क्षेत्र में धार्मिक पुनर्जागरण के पुरोधा।

1519 -1559 खंडवा

मनरंगीर के शिष्य। स्वानुभूति के बल पर आध्यात्मिक आदर्श का निरूपण करने वाले संत कवि।

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