व्यंग्य : कुत्ते और कुत्ते
श्रीलाल शुक्ल
03 सितम्बर 2025

बाज़ार में आजकल हिंदुस्तानी-अँग्रेज़ी में लिखी हुई बहुत-सी किताबें आ गई हैं जो कुत्तों के—असली कुत्तों के—बारे में हैं। ‘डॉग केयर बाई ए डाग-लवर’, ‘शेफ़र्ड डाग्स ऑफ़ जर्मनी, बाई ए डॉग-लवर’, ‘ऑफ़ डाग्स ऐंड बिचेज़, बाई ए डॉग-लवर’, आदि।
डॉग-लवर का असली नाम जी. प्रसाद है, जिसका असली रूप घिर्राऊ प्रसाद है। वे सीधे-सादे, भोले-भाले आदमी हैं। ‘वक़्त से जगे और वक़्त से सोए; वक़्त से हँसे और वक़्त से रोए।’ कभी गोश्त नहीं खाया, कभी शराब नहीं पी। रोज़ दो घंटे पूजा करते हैं, एक ज्योतिषी स्थायी तौर पर पाले हुए हैं, साल में दो-चार महीने के लिए एक बाबा भी पाल लेते हैं, आधुनिकता के नाम पर उन्हें अँग्रेज़ी बोलनेवाली बीवी, एक अच्छे दर्ज़ी का संपर्क, मोटे शीशे का चश्मा और बवासीर भर मिला है।
वे, पता नहीं क्यों और कैसे, इन्कम-टैक्स के महकमे के ऊँचे अफ़सर हैं। इस सबके साथ, और इस सबके पहले (या इतिहास की दृष्टि से, इस सबके बाद) वे कुत्तों के विशेषज्ञ हैं।
उनके पुराने साथी जानते हैं कि आज से दस साल पहले वे सिर्फ़ अपने दफ़्तर की बात करते थे; या अपने ससुर की, जो रेलवे में ऊँचे ओहदे पर हैं और जिनका वक़्त ज़्यादातर लोगों को झाड़ने में ख़र्च होता है। (“डैडी को आप जानते नहीं, रेलवे बोर्डवालों को वहीं खड़े-खड़े झाड़ दिया!”) पर उसके बाद वे अचानक कुत्तों की बात करने लगे और ‘डॉग-लवर’ बन बैठे।
बात कुछ इस तरह से शुरू हुई—उनके बँगले में कुछ दिनों से एक पड़ोसी का कुत्ता आने लगा था। प्रारंभिक अवस्था में बहुत प्यारा लगता था। पता नहीं क्यों, पड़ोसी ने उसे अपनी दासता से छूट दे दी थी। इसीलिए ताज़े-ताज़े स्वतंत्र हुए बहुत-से देशों की तरह उसकी हालत बिगड़ रही थी। बिगड़ती हालत के सबूत में वह एक पैर से लँगड़ाने लगा था। बाद में, तस्वीर मुकम्मल करने के लिए, उसके जिस्म पर एकाध ऐसे धब्बे प्रकट होने लगे शायद कुसंग से या भुखमरी से—जिन्हें यदि वह कोई विकासशील देश होता तो अंतरराष्ट्रीय जगत में दिखाकर बाहर से गेहूँ जरूर माँग सकता था। पर सिर्फ़ कूँ-कूँ करके कोई कुत्ता एक देश नहीं बन सकता, जैसे कि कोई देश दिन-रात निकम्मेपन और कूँ-कूँ करने का अभ्यास करके भी कुत्ता नहीं हो सकता। अतः यह कुत्ता, पड़ोसी के घर से श्री जी. प्रसाद के बँगले में आकर नियमित रूप से कूँ-कूँ करने और उनकी लॉन पर प्लेग से चूहे की तरह कई गोल-गोल चक्कर लगाने के बावजूद, उनके यहाँ से रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं खींच सका। कुत्ते और मि. प्रसाद के बीच ‘अपरिचित का विंध्याचल’ खड़ा रहा, उपेक्षा का ब्रह्मपुत्र लहराता रहा। ऐसी उपेक्षा किसी विकसित और विकासशील देशों के बीच होती तो एक अंतरराष्ट्रीय तनाव का कारण बन सकती थी।
धीरे-धीरे उसके धब्बों में इज़ाफ़ा होने लगा, बाल झडने लगे, लँगडापन बढ़ने लगा। फिर भी उसकी ओर श्री जी. प्रसाद मुख़ातिब नहीं हुए। तभी अचानक एक दिन एक नौजवान व्यापारी ने उनके अपरिचय के विंध्याचल में सुरंग लगा दी।
यह नौजवान व्यापारी अपने बाप की तरह गद्दा-मसनद, ‘श्री लक्ष्मी जी सदा सहाय’, पेंचदार पगड़ी, गौ-ब्राह्मण की सेवा और भंग-ठंडाई के वातावरण की उपज तो ज़रूर था, पर ‘माडरेन’ हो जाने की वजह से उसके घर पर कुत्तों को छूकर नहाने की मजबूरी न थी। उसके दफ़्तर में मेज़-कुर्सियाँ, शीशे की दीवारें, इंटर-कॉम आदि का प्रवेश हो चुका था और उसे मालूम था कि अफ़सरों के यहाँ फूल-पौधों, पिछली रात क्लब में सुनी गई क़व्वालियों, बाबा-बेबी की अँग्रेजी कविताओं, क़ब्ज़ियत की दवाओं, पपलू और फ़्लश के दाँव-पेंचों, फ़ौज से कम क़ीमत पर उड़ाई गई स्कॉच व्हिस्की की बोतलों, “ज़माना बड़ा ख़राब लगा है” और “ईमानदार की मौत है” की तोतारटंत आवृत्तियों और बँगले की पालतू बिल्लियों और कुत्तों की बात करने से उसे घर का आदमी शुमार किया जाएगा। अतः श्री प्रसाद इस नौजवान व्यापारी से मिलने के लिए जब बँगले से निकलकर लॉन की तरफ़ आए तो उन्होंने उसे इस कुत्ते को पुचकारते हुए पाया। उसके बाद जब पारस्परिक्त अभिवादन और “ज़माना बड़ा ख़राब लगा है” और “ईमानदार की मौत है” का आदान-प्रदान हो चुका और दोनों लॉन में पड़ी हुई कुर्सियों पर बैठ गए, तो नौजवान व्यापारी ने अपनी बात रोक कर कुत्ते को फिर पुचकारा और कहा कि यह पेडिग्रीवाला कुत्ता है। श्री प्रसाद ने कुत्ते को पहली बार ग़ौर से देखा और उनका जी घिना गया; जवाब में उन्होंने बताया कि डैडी—यानी ससुर—के यहाँ बहुत बड़े-बड़े कुत्ते पले हैं और उनके बँगले पर तख़्ती लगी है कि कुत्तों से होशियार रहो। नौजवान व्यापारी चुटकियाँ बजा-बजाकर कुत्ते को रिझाता रहा। पर वह इस प्रोत्साहन से लाभान्वित होने से इनकार करता रहा। आख़िर में नौजवान व्यापारी ने कहा कि यह बीमार मालूम होता है, इसे अस्पताल ले जाना पड़ेगा, और आपको एतिराज़ न हो तो मैं ख़ुद मोटर पर ले जाकर इसे डॉ. हाफ़िज़ को दिखा दूँ, क्योंकि शहर में इस वक़्त वही कुत्तों की बीमारी के एक्सपर्ट हैं और मि. टंडन, हजेला, शुक्ला, मिश्रा, वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी के और मेरे कुत्तों का वही इलाज करते हैं।
जवाब में मि. प्रसाद ने भूमिका के तौर पर कहा कि डैडी के कुत्ते बड़े तगड़े हैं और कभी बीमार नहीं पड़ते। इसके बाद उन पर सचाई का दौरा पड़ गया। उन्होंने फूहड़पन से कहा, “आप इस कुत्ते को जितना चाहें, प्यार करें, पर यह कुत्ता मेरा नहीं है।”
सट्टेबाज़ी चेहरे की मांसपेशियों को क़ाबू में रखने की आदत डलवा देती है। व्यापारी के मन को धक्का लगा पर उसने पहले की तरह उत्साह से कहा कि यह आपके बँगले में रहता है तो चाहे आपका हो या किसी और का, इसे बँगले की हैसियत से ही रहना पड़ेगा।
इसके बाद कुत्ते का क़ायदे से इलाज शुरू हो गया। देखते-देखते वह विकासशील देशों की तरह पनपने लगा। बाहरी लोग आ-आकर उसे सेहत के सर्टिफ़िकेट देने लगे। यहाँ तक कि मि. प्रसाद ने कुछ दिन बाद कुत्ते को अपना लिया, बच्चों ने उससे खेलना शुरू कर दिया और व्यापारियों के गुट में कुत्ता एक ऐसे मज़मून के रूप में शुमार कर लिया गया जिस पर उनसे, “ज़माना ख़राब लगा है” और “ईमानदार की मौत है” के बाद, अगर डैडी का ज़िक्र न आ गया, तो बात की जा सकती थी।
पर एक दिन वह कुत्ता मि. प्रसाद के बँगले के सामने ही एक व्यापारी की मोटर से कुचलकर मर गया। उस व्यापारी का व्यापर तो पुराना था, पर अमीरी नई थी। इसलिए वह ख़राब तस्वीरें और ग़लत गानों के रिकार्ड ख़रीदता, ज़रूरत से ज़्यादा शानदार कपड़े पहनता, बिना किसी घनिष्ठता के ऊँचे अफ़सरों और नेताओं को शुरू के नाम से पुकारता, ठीक से खेलना न जानते हुए भी रोज़ ब्रिज खेलता, बहुत जल्दी नशे में आ जाने के बावजूद मनमानी शराब पीता और ठीक से चलाना न जानते हुए भी अपनी मोटर ख़ुद चलाता। इसलिए जिस वक़्त वह अपनी मोटर पीछे की ओर चलाते हुए श्री जी. प्रसाद के बँगले से निकला, उसी वक़्त यह कुत्ता गाड़ी की चपेट में आ गया और आते ही ‘हैपी हंटिंग ग्राउंड्स’ में पहुँच गया।
मि. प्रसाद को स्वाभाविक था कि दुख हो। वही व्यापारी के लिए भी स्वाभाविक था; यह भी स्वाभाविक था कि व्यापारी किसी भी नुक़सान को पूरा न होने वाला नुक़सान न माने। इसलिए उसने एक वैसा ही, बल्कि उससे भी उम्दा कुत्ता ख़रीदा और उसे मि. प्रसाद के सामने क्षमा-याचना के साथ, मुआवज़े के तौर पर, पेश किया। उन्होंने उसे भले आदमी की तरह स्वीकार किया।
उधर शहर के व्यापारियों में इस दुर्घटना की ख़बर फैल गई थी। इसलिए दूसरे एक व्यापारी ने आकर उन्हें बताया कि मेरी कुतिया ने अमुक वंश के पिल्लों को जन्म दिया है और उनमें से एक पिल्ला आपका है। दूसरे व्यापारी की कुतिया ने चमुक वंश के पिल्लों को जन्म दिया था। तीसरे, चौथे, पाँचे, छठे और सातवें व्यापारी की कुतिया ने क्रमशः तमुक, दमुक, बमुक, लमुक और हमुक वंश के पिल्ले पैदा किए थे। अतः उन सभी व्यापारियों ने उन्हें एक या दो या तीन पिल्ले पेश किए और वे उन्हें अपनी स्वाभाविक उदारता से स्वीकार करते गए।
दान लेने से दान देने का जोश बढ़ा। जब उनके पास दर्जनों कुत्ते हो गए तो वे उन्हें अपने दोस्तों में—ख़ासतौर से दूसरे शहरों के दोस्तों में बाँटने लगे। दूर-दूर ट्रंक-कॉल करके वे अपने दोस्तों को बताने लगे कि भाई साहब मेरे पास एक अमुक पिडिमी का कुत्ता आया है और ज़रूरत हो तो आपके पास भेज दूँ। इस तरह इस शहर से श्री जी. प्रसाद की मार्फ़त कुत्ता-निर्यात का काम शुरू हुआ और यह शोहरत होने लगी कि वे ‘डॉग लवर’ हैं। कभी-कभी यह भी होने लगा कि श्री प्रसाद के दोस्त से उसके किसी अपने दोस्त ने कहा कि भई, बच्चे पीछे पड़े हैं, मुझे एक पेकिबीज़ चाहिए और श्री प्रसाद के दोस्त ने कहा कि आज ही मैं उसको ट्रंक-कॉल करूँगा और फिर श्री प्रसाद ने उस व्यापारी से, जिसकी कुतिया अब हर दूसरे महीने पिल्ले पैदा करने लगी थी, दो पिल्ले मँगाकर उसके घर उसके दोस्त के पास भेजने के लिए भेज दिए।
धीरे-धीरे कुत्ते के बारे में समझने-बूझने का शौक़ भी पैदा हुआ और एक दिन शहर का एक मशहूर बुक-सेलर आया और कुत्तों के साहित्य से संबंधित दस-बारह किताबें उन्हें पकड़ा गया। दूसरे बुक-सेलर को श्री प्रसाद की किताबों के सेट में कुछ कमी खटकी और उसने उसमें बीस-पच्चीस किताबें और जोड़ दीं। तीसरे ने कुत्तों के बारे में तीन-चार विलायती पत्रिकाएँ मँगाने का इंतज़ाम कर दिया। फिर फ़ोटोग्राफ़ी के सामान के एक दुकानदार ने उन्हें कई क़िस्म के कुत्तों के कई फ़ोटो दिए, अंत में एक पब्लिशर ने इन सब प्रयासों का समन्वय और सामंजस्य यानी ‘कोआर्डिनेशन और डब-टेलिंग’ की। पब्लिशर इन्कम-टैक्स के मामलों में उलझकर उसी अनुपात से देश में कुत्ता-साहित्य की कमी का अनुभव कर रहा था।
उसने निवेदन किया कि मि. प्रसाद, आप कुत्तों पर दो-एक किताबें लिखकर मुझे दीजिए। इससे देश की एक भारी कमी पूरी हो जाएगी।
उन्होंने एतिराज़ किया। बोले कि मैं सरकारी काम, पूजा-पाठ, गिरिस्ती, ज्योतिष और स्वामी सत्यानंद में फँसा रहता हूँ। डैडी भी लंबी छुट्टी लेकर आने वाले हैं। पर पब्लिशर ने ज़िद पकड़ ली। कहने लगा कि अँग्रेज़ अफ़सरों ने यहाँ की चिडियों और पेड़-पौधों पर हज़ारों किताबें लिखी हैं। उसने आश्वासन दिया कि आपकी अँग्रेज़ी बहुत उम्दा है और आपको सिर्फ़ किसी स्टेनोग्राफर को बोलते चले जाना है और मिस लिली, जो दो साल पहले मिस मसूरी चुनी गई थीं, हमारे यहाँ स्टेनोग्राफर हैं और मैं उन्हें इस काम के लिए छोड़ दूँगा। पर वे यही कहते रहे कि हमें फ़ुरसत नहीं है। तब उसने कहा कि स्टेनोग्राफर के अलावा मैं फ़लाँ डिग्री कॉलिज के फ़लाँ लेक्चरर को भी अपनी ख़िदमत में लगा दूँगा और वे जैसे ‘एक ग्रेजुएट’ के नाम से कुंजियाँ लिखते हैं, वैसे ही ‘डॉग-लवर’ के नाम से वे आपकी किताबें भी लिख देंगे। इस तरह मजबूर किए जाने पर वे मजबूर हो गए और देखते-देखते ‘ऑफ़ डॉग्स ऐंड बिचेज़, बाई ए डॉग-लवर’ छपकर बाज़ार में आ गई।
मि. प्रसाद का कुत्ता-कैरियर यहाँ से सुगठित हुआ। एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी, चौथी, पाँचवी किताब छपती चली गई और वे नौकरी-पेशे के बाहर भी कुत्ता-विशेषज्ञ मान लिए गए। उन्हें सभा-सोसायटियों में व्याख्यान देने को बुलाया जाने लगा।
पर उन्हें भाषण देने में हिचक होती थी। वास्तव में अभी तक उन्होंने कोई ग़ैर-सरकारी भाषण दिया ही न था। इसके लिए मिस लिली और एक ग्रैजुएट से काम नहीं चलता था। पर अचानक इसी को भाग्य कहते हैं—एक दिन वे बेसाख़्ता बोलने लगे। हुआ यह था कि उनके पड़ोसी ने उनका अपमान कर दिया। पड़ोसी रेलवे का एक बड़ा अफ़सर था और डैडी के रिश्ते से इनके यहाँ उसका काफ़ी आना-जाना था। उसके यहाँ कई एक बिल्लियाँ पली थीं। वह पहले भी मि. प्रसाद के कुत्तों का मज़ाक़ उड़ा चुका था। एक दिन क्लब में, जब मि. प्रसाद कोकाकोला पी रहे थे और वह व्हिस्की पी रहा था, बात कुत्तों और बिल्लियों पर चल निकली। उसने मि. प्रसाद पर सीधे हमला किया और कहा कि कुत्ते पालने वाले ख़ुद कुत्ते हो जाते हैं और कोई प्यारी चीज़ होती है तो बिल्ली होती है।
मि. प्रसाद को अब तक कुत्तों से सचमुच का प्रेम हो गया था। वे ग़ुस्से में कुर्सी से उठ खड़े हुए। वे अपने पड़ोसी के बारे में उसी तरह जानते थे, जैसे कि हर समझदार को अपने पड़ोसी के बारे में जानना चाहिए। उस जानकारी का पूरा उपयोग करके और पड़ोसी को अपने ससुर का हमउम्र होने के कारण आदर के साथ संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “जनाब, बहस कुत्तों और बिल्लियों की नहीं, सिद्धांत की है। पहले सैद्धांतिक स्तर पर देख लिया जाए कि हमारी रुचियाँ, यानी हॉबीज़, के पीछे कौन-सी प्रेरक शक्तियाँ काम कर रही हैं। प्रायः होता यह है कि हमें जो चीज़ यूँ ही मिल जाती है और मिलती रहती है, उसी में हमारी रुचि पैदा हो जाती है। रुचियों के विकास का इस दृष्टि से भी अध्ययन होना चाहिए। विकासशील देश में आपने देखा होगा, ज़रूरी चीज़ों को छोड़कर इसी तरह ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें बनने लगती हैं। हमारे यहाँ कैमरों, ट्रांजिस्टरों, टेप-रिकार्डरों, रेफ़्रिजरेटरों की भरमार क्यों है? इसलिए कि शुरू-शुरू में यहाँ के लोग यूरोप-अमेरिका या जापान गए और ये चीज़ें फोकट में या कम दाम पर ले आए। बाद में इन्हीं चीज़ों के इर्द-गिर्द हमारी रुचियों का विकास हुआ।”
अचानक उन्हें लगा कि लोग चुप होकर सुन रहे हैं और वह व्याख्यान दे रहे हैं। वह हिचके, पर एक बार फिर हिम्मत करके कहने लगे “...यही थ्योरी कुत्तों और बिल्लियों पर भी लागू होती है। यह एक संयोग की बात थी कि शुरू-शुरू में मेरे यहाँ एक कुत्ता आ गया था और विलायत जाने के पहले मि. हार्टन ने अपनी बिल्लियाँ आपको दे दी थीं; यह न भूलिए कि वे बिल्लियाँ मेरे यहाँ भी आ सकती थीं और यह कुत्ता आपके यहाँ जा सकता था। इसलिए हमें कुत्तों और बिल्लियों के बारे में प्रतिबद्ध होकर बात न करनी चाहिए। अस्ल बात हॉबीज़ के, रुचियों के विकास की थ्योरी को लेकर चली थी, जिसके बारे में...”
पड़ोसी तो यही समझा कि कोकाकोला पीकर भी उन्हें नशा हो गया है, पर उसी के दूसरे दिन वे रोटरी-क्लब में ‘डॉग-केयर’ पर भाषण देने के लिए बुलाए गए। कुत्ता-विशेषज्ञ की हैसियत से अब उन्हें काफ़ी बड़े पैमाने पर स्वीकार कर लिया गया। उनको कुत्ता-प्रदर्शनियों के उद्घाटन के लिए और उनकी बीवी को पुरस्कार-वितरण के लिए बुलाया जाने लगा। वे जहाँ-जहाँ तबादले पर गए, वहाँ-वहाँ उनकी अध्यक्षता में कुत्ता-कल्याण-समितियाँ बनाई गईं। सफलता की इन मंज़िलों को पार करके आख़िर में उन्हें यह आध्यात्मिक अनुभव हुआ कि उनके भी जीवन का एक अर्थ है और उस अर्थ का नाम कुत्ता है।
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संचयिता : श्रीलाल शुक्ल (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2008) से साभार।
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