Font by Mehr Nastaliq Web

‘द लंचबॉक्स’ : अनिश्चित काल के लिए स्थगित इच्छाओं से भरा जीवन

जीवन देर से शुरू होता है—शायद समय लगाकर उपजे शोक के गहरे कहीं बहुत नीचे धँसने के बाद। जब सुख सरसराहट के साथ गुज़र जाए तो बाद की रिक्तता दुख से ज़्यादा आवाज़ करती है।

साल 2013 में आई फ़िल्म ‘द लंचबॉक्स’ (The Lunchbox) में इला के किरदार का जीवन इसी रिक्तता की झाँकी है। इला यानी अपनी माँ की इकलौती बेटी, एक बेटी की माँ, पत्नी और देशपांडे आंटी की सबसे ज़रूरी पड़ोसी।

कई बार समूचा सुख बिना किसी मानी के आपके जीवन में प्रवेश करता है। यह बिना पूछे आगे के कई सुखों को आपके लिए सुरक्षित कर जाता है। इला के जीवन में—नींबू जितने आकार का, ब्रह्मांड बराबर सुख टिफ़िन में मुंबई की लोकल के सहारे किलोमीटर नापते-नापते पहुँचा। उस सुख ने उसे वह गर्माहट दी कि इला ने आड़े आ रहे वर्तमान पर सवाल दागे—कि यह ही क्यों, और कुछ क्यों नहीं। प्रेम क्यों नहीं। चाह क्यों नहीं। सुख की छाया में इला जब ‘डियर इला’ हुईं तो देशपांडे आंटी से बोलकर ‘साजन’ फ़िल्म के गाने बजवाए।

अगर ज़ेहन को मालूम रहे कि यही क्षण अंतिम हो सकता है तो इंसान प्रेम, दुलार और स्नेह की ताबीज़ बनाकर पहने—लेकिन ऐसा हो कहाँ पाता है!

जीवन पड़ावों में बँटा है—यही पीड़ा, यही सुख है।

इला का जीवन—दिनचर्या के कामों से भरे पूरे दिन में—हमेशा कगार पर रहा। ऐसी जगह जहाँ बहुत कुछ घटने की उधेड़बुन नहीं, सिर्फ़ होने को देखते रहना नियत है। वह जीवन जहाँ टीस है, जहाँ इच्छाएँ अनिश्चित काल के लिए स्थगित ही कर दी गई हैं। इला ने हमें वो कशिश दी है जो ‘चाहने’ और ‘हो जाने’ की दो समानांतर रेखाओं को अनंत पर भी नहीं मिलने देती।

बीच फ़िल्म में एक जगह सीन है :

खाने का डब्बा ऑफ़िस से आ गया है और चिट्ठी भी। इला ने अपने लिए चाय बनाई है। कप में ऊपर तक भरी चाय। वह सहूलत के साथ बच-बचाकर आती हैं। आराम मुद्रा में कुर्सी पर बैठती हैं। मुड़े हुए काग़ज़ को सही करती हैं। चिट्ठी पढ़ते समय चाय हाथ से उठाती हैं लेकिन पीती नहीं हैं। दरअस्ल, चिट्ठी में साजन फ़र्नांडिस ने अपनी मर चुकी पत्नी और उनके पसंदीदा टीवी शोज़ का ज़िक्र किया था।

इला ने अपने शुष्क वर्तमान में किसी दूसरे के अतीत को इतनी ईमानदार तरजीह दी। इला रिल्के के कहे अनुसार अपने साथ सबकुछ होने देती हैं लेकिन एक जगह साजन फ़र्नांडिस के नाम चिट्ठी में लिखती हैं—

“देशपांडे अंकल पंखे को घूरते रहते हैं, हसबैंड फ़ोन को—जैसे और कुछ है ही नहीं। शायद और कुछ है ही नहीं। तो किसलिए जिएँ।”

एक ऐसा जीवन जिसका हर सिरा इतना महीन और धारदार है कि उलझ जाने पर पकड़ने की हिम्मत ही न हो। निरुत्तर होने कि वह स्थिति जो बहुत पुरानी दोस्तियों, रिश्तों के गाँठ सुलझाने की बजाय कैंची से काट देने पर पैदा होती है। आपके पास नहीं है हर ‘क्या हुआ’ का जवाब। आपने ऐसा होना चुना नहीं है। यह मौन पसंदीदा नहीं।

इला उस पूरे जनसमूह की प्रतिनिधि हैं जो जीवित नहीं, लगभग जीवित हैं।

शुक्रिया इला।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों न

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हु

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छो

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो

बेला लेटेस्ट