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सदा रहने वाली चीज़ों की किताब

‘द बुक ऑफ़ एवरलास्टिंग थिंग्स’ लाहौर के विज परिवार के साथ बीसवीं सदी की शुरुआत से शुरू होती है। इसके शुरुआत में ही स्वदेशी आंदोलन का कपड़ा व्यवसायियों पर पड़ने वाला प्रभाव, प्रथम विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिकों की तैनाती के बाद तनावों से गुज़रते भारतीय परिवार के हालात और उस समय के अन्य बदलावों को दर्ज किया गया है। 

पुस्तक का शिल्प क्रमवार कथा कहते जाने का है यानी कथा-सूत्रों को जोड़ने में न तो कोई मशक्कत करनी है और न ही कोई चौंकाने वाले अन्वय सामने आते हैं। इस उपन्यास का मुख्य पात्र समीर विज है और उसकी प्रेम-कहानी ही इस कथा की नाभि-बिंदु है। समीर का जन्म प्रथम विश्वयुद्ध के बाद होता है, तब तक उसका ताया विवेक प्रथम विश्वयुद्ध लड़कर आ चुका होता है और वही आगे चलकर समीर का उस्ताद होता है। विज परिवार के अलावा इस उपन्यास में एक कैलीग्राफ़र परिवार है जिसमें उस्ताद अल्ताफ़ हुसैन ख़ान और उनकी पत्नी और बेटी फ़िरदौस है। 

इस पुस्तक के पहले भाग में इत्र के व्यवसाय संबंधी ब्योरे मिलते हैं और विज परिवार के महत्त्वपूर्ण सदस्य विवेक के बहाने से ख़ुशबुओं का बहुत ही रूमानी वर्णन मिलता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के इत्र कैसे बनते है! स्मृतियों के साथ ख़ुशबुओं का क्या संबंध बन जाता है! हिंदुस्तान में इत्र बनाने का इतिहास कहाँ तक जाता है! बाबर का इत्र के मसले में क्या योगदान है! नूरजहाँ की माँ का इत्र व्यवसाय! कन्नौज, उड़ीसा, श्रीनगर, खाड़ी देश, तुर्की आदि स्थानों की इत्र के मसले में विशिष्टता! इस तरह के ब्योरों से पुस्तक का पहला भाग समृद्ध है। 

इत्र और इन्हीं ख़ुशबुओं के बहाने ही इस कथा के दो मुख्य पात्रों समीर और फ़िरदौस के संयोगों की शुरुआत तब होती है, जब दोनों कैशोर्य में भी नहीं पहुँचे होते हैं। फ़िरदौस अपने पिता के साथ उसके समीर की पारिवारिक इत्र की दुकान में आती है और वहीं दोनों एक दूसरे को देखते हैं। फ़िरदौस के चले, जाने के बाद समीर विवेक से पूछता है, “जिस गंध को हम पहले जान चुके हैं, क्या उसे फिर से बनाया जा सकता है? मेरा मतलब किसी की गंध, कोई इंसानी गंध?” विवेक उसे इत्र और उसके बहाने जीवन की अनेक मार्मिकताओं के बारे में बताता ही रहता है। एक बार उसने समीर से कहा, “यादों के बिना इत्र, रूह के बिना देह की तरह है”, “इत्र बनाने की कला का मसला ताल्लुकात और यादगारों से जुड़ता है। यह रसायनशास्त्र और काव्य का मेल है।”  एक तरफ इस उपन्यास में अल्ताफ़ खान और फ़िरदौस की कथा चलती है—जिसमें खत्ताशी, नक़्क़ाशी और कातिबों से जुड़े ब्योरे आते हैं तो दूसरी तरफ़ विज परिवार के समीर की इत्र को लेकर विकसित होती समझ और विवेक के साथ उसके संवादों के ब्योरे। विवेक की बातों में कुछ बहुत बड़ा खो देने और उससे उपजने वाली दार्शनिकता होती है जिसे वह इत्र के साथ संबद्ध करता रहता है। 

यह कहानी समीर और फ़िरदौस के मिलने, उनके साथ-साथ कैलीग्राफ़ी सीखने, प्रेम में पड़ने और भारत विभाजन की विभीषिका झेलने वाले लाहौर शहर में दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से बिछड़ने और समीर के लाहौर से चले जाने की है। वह लाहौर में हो रहे साम्प्रदायिक दंगों में अपना घर, अपनी दुकान अपने परिजन, सब कुछ गँवाता है और फिर फ़िरदौस के घर बदहवास स्थिति में पहुँचता है, जहाँ हिंदू होने की वजह से उसका प्यार भी उससे दूर कर दिया जाता है। 

उस्ताद अल्ताफ़ खान समीर के लिए दुखी तो होते हैं, लेकिन वह कहते हैं, “तुम हिंदू हो बेटा, और ज़ोर देकर कहते हैं—हम मुस्लिम हैं, बेटा।” बेटा! एक शब्द जोकि इस समय अपनी परिभाषा खो चुका था।

समीर लाहौर से दिल्ली, वहाँ से मुंबई और फिर अंततः पेरिस पहुँचता है। इस अकेलेपन में समीर 20 की उम्र में था, लेकिन यह कथा उसके नब्बे पार कर जाने तक चलती है। इतनी लंबी ज़िंदगी, जिसमें सब कुछ खो देने के दर्द को, “भूलना फिर भी मुश्किल है, लेकिन जिसे याद करना और ज़्यादा मुश्किल है।” 

यह कथा लगभग सवा सौ साल को समेटे हुए है और इस तरह लगभग छह पीढ़ियों का इतिहास। इस दौरान आते रहने वाले तमाम पात्रों और उनके बीच संबंधों के सातत्य का खुलासा अंततः उस पुस्तक की योजना के रूप में होता है, जिसका नाम होने वाला था—‘द बुक ऑफ़ एवरलास्टिंग थिंग्स’। अंत में, फ़िरदौस का नाती, जिसका नाम समीर ख़ान था, समीर विज को पेरिस में मिलता है, जहाँ वह अपनी नातिन के साथ इत्र का कारोबार करता है। दोनों समीर फ़िरदौस नाम की एक डोर से बँधे हुए थे, जहाँ प्रतीक के रूप इत्र की शीशियाँ उस ख़ुशबू को भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी महफ़ूज़ रखती चली गईं जिसकी दरकार प्रेम और मनुष्यता को होती है। इस वाक्य की सम्मति में समीर विज के ताया विवेक का यह कथन ग़ौरतलब है, “एक बहुत ताक़तवर गंध एक पनाहगाह की तरह है।”

यहाँ सिर्फ़ परिस्थितियाँ हैं और उनसे लड़ता-भागता-जूझता मनुष्य। यहाँ लेखक कभी निर्णायक नहीं होता। यहाँ अपनी अपनी परिस्थितियों का निबाह करते हुए पात्र ही पात्र हैं और उनकी ज़िंदगियों के बहाने स्थानों, रोचक तथ्यों और इतिहास की उपस्थिति भी। लाहौर की गलियों, बाज़ारों, व्यवसायों और इमारतों के ब्यौरे इस उपन्यास में बहुत संजीदगी से मिलते हैं। जब पहचानों को एकरैखिक और रूढ़ पहचानों में बदल देने की क़वायद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पूँजी, राजसत्ता, धर्मंसत्ता और बौद्धिक समूहों द्वारा ज़ोर-शोर से चलाई जा रही है तो ऐसे समय में, दो समुदायों के बीच प्रेम, पीढ़ीगत संबंधों और साझा दुःख को उपन्यास का विषय बनाना बेहद हस्तक्षेपकारी है। 

इस उपन्यास को तैयार करने में न सिर्फ़ बहुत सारे शोध की आवश्यकता पड़ी होगी, बल्कि उसे फ़िक्शन की कसौटी पर ढालने के लिए एक शिल्पी भी ज़रूरी था जिसमें लेखिका आँचल मल्होत्रा पूरी तरह सफल हैं।

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