जिसका अपना कोई रहस्य नहीं होता, उसे दूसरों के रहस्यों में बहुत रुचि होती है

सावधानी का केवल एक क्षण होता है, जहाँ आप रुक सकते हैं। 

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अगर मैं आपसे कहूँ कि मानव दौड़ की भाषा ही औसत दर्जे का प्रयास है तो? शब्द,रचनाएँ, साहित्य सब कुछ क्या यह अभिव्यक्ति का सबसे औसत दर्जे का प्रयास है तो?

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भाषा केवल एक आवरण है और जब इसका प्रयोग किया जाता है तो नग्न शरीर की तरह आदिम आत्मा ढक जाती है।

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मानव-भाषा स्वयं एक सीमित रूप थी। यह सुविधा के लिए बनाया गया एक उपकरण था। बहुत हद तक, जो महसूस किया गया और जो कहा गया, उसके बीच एक अंतर था। सदियों पुरानी यह मानवता उस कमी को भरने का कोई रास्ता नहीं खोज पाई।

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विकास की अनगिनत शताब्दियों में हम अनुभवों की जटिलता को व्यक्त नहीं कर पाए हैं। हम सब कुछ सरलीकृत करना चाहते हैं, जो समझ में आए ऐसा।लेकिन क्या हमारे अनुभव इतने सरल हैं?

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जिसका अपना कोई रहस्य नहीं होता, उसे दूसरों के रहस्यों में बहुत रुचि होती है

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मान्यताएँ व्यर्थ हैं, अनुभव सत्य है। 

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दुश्मनी का भी एक रिश्ता होता है।शत्रुता की भी एक माया होती है।

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साहित्य एक मानवीय अनुसंधान है... यह शाश्वत है, क्योंकि मनुष्य चला जाता है; शब्द जीवित रहते हैं!

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विश्वास एक अस्पष्ट शब्द है... इसका कोई मतलब नहीं है।

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वास्तविक संबंध तो अनजान-अपरिचित लोगों से ही संभव है। किसी को नाम, पहचान, जाति, धर्म या राष्ट्रीयता के बिना सिर्फ़ एक इंसान के रूप में देखना; सिर्फ अपरिचित के साथ ही हो सकता है। कोई पहचान न हो तभी सच्ची पहचान खिल सकती है। दो लोगों के बीच कोई लक्ष्य नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, कोई सपना नहीं, कोई अतीत या भविष्य नहीं... बस एक स्मित। उस स्मित में ही बिना आवरण के आदिम अपनापन फैल सकता है। परिचय वास्तव में एक दिखावा है। अत्यधिक निकटता दूरी का एक मार्ग है।

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दोनों छोरों के बीच कुछ भी संभव नहीं है। 

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पीर को समझने के लिए पीर का सटीक कारण जानने की आवश्यकता नहीं है।

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अगर कोई मुझसे पूछे—‘मूर्खता क्या है?’ तब मुझे कहना होगा कि जैसे ब्रह्मांड में एक ब्लैक होल है,वैसे ही जीव में भी मूर्खता (बेतुकापन) है। एक निश्चित रहस्यमय क्षेत्र, जिसके पास जाने पर कोई भी आकर्षित हो जाता है। बाहरी लोग कभी नहीं जान सकते कि अंदर क्या है, और अंदर के लोग उनके अनुभव बताने के लिए कभी वापस नहीं आते।

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जिस प्रकार ब्लैकहोल का प्रवेश-द्वार अज्ञात है, उसी प्रकार असंबद्धता का द्वार भी अज्ञात स्थानों पर स्थित है। और फिर यह व्यक्तिगत है, इसलिए एक को जहाँ से प्रवेश प्राप्य है; वही दूसरे के लिए दीवार हो ऐसा भी संभव है!

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कोई व्यक्ति अपने बारे में जो मानता है, उसकी विश्वसनीयता क्या? हर एक का अपने बारे गठित अभिप्राय अंतिम तो नहीं गिना जा सकता!

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सत्य कभी स्पष्ट वर्तुलाकार नहीं होता, सत्य होता है पतंग की डोर की उलझन जैसा...

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व्यक्ति को सिर्फ वही याद रहता है जो उसके तर्क को सच साबित करने के लिए आवश्यक हो।

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सत्य हमेशा तर्कहीन और असंगत होता है। हम भले ही इसे तार्किक रूप से स्पष्टीकरण के साथ प्रस्तुत करें, लेकिन अपने शुद्धतम रूप में वह बस होता ही है। कोई तर्क नहीं, कोई समझ नहीं जिसे प्रभावित नहीं किया जा सके।

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प्रश्न सबसे अनमोल उपहार है।

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यह सत्य है—इसका प्रमाण किसके पास है 

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तथ्य किसी सबूत पर निर्भर नहीं करता।

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संख्या-बल और सत्य के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है।

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परिपूर्ण होना जीवन का स्वभाव नहीं है।

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जब हमारे पास कहने को कुछ नहीं होता, तब फूल भी हमारी बात बखूबी समझते है।

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हर उपलब्धि की एक क़ीमत होती है... 

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समृद्धि के साथ व्यस्तता भी आती है।

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विचार स्वाभाविक रूप से इंसानों से ज़्यादा परिपक्व होते हैं।

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आधा-अधूरा कहना झूठ बोलना नहीं है, लेकिन आधा न बताना झूठ बोलना ज़रूर है।

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ज़रूरी नहीं कि हर घटना का कोई परिणाम हो।

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इंसानों के अलावा विश्व भी संकेतों की क़ीमत जानता है। बिना स्पर्श के भी स्पर्श का बोध होता है।

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कोलाहल और आनंद... दो ही स्थायी भाव हैं।

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यही तो धारणाओं की प्रकृति है। प्रत्येक परिकल्पना केवल एक संभावना है। हम जो कुछ भी मानते हैं, जो कुछ भी हम जीते हैं—वह निश्चित धारणाओं पर आधारित है, लेकिन जीवन की वैकल्पिक संभावनाएँ भी उतनी ही वास्तविक हैं। इसलिए यदि आप किसी चीज़ पर विश्वास नहीं करते हैं, तो यह महज़ एक रास्ता है जिस पर अमल नहीं किया गया है। सिर्फ़ इसलिए कि एक व्यक्ति हरी पगडंडी पर चलता है इसका मतलब यह नहीं है कि धूल से भरा सूखा रास्ता था ही नहीं! अगर कोई बर्फ़ की चादरों के बीच से रास्ता लेता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि गीली मिट्टी के साथ कोहरा भरा रास्ता था ही नहीं।

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एकमात्र वाक्य जो सत्य के सबसे करीब आता है—वह है—‘मुझे नहीं पता।' इसके बजाय लोग कहते हैं, ‘ऐसा नहीं हो सकता।’

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भौतिक सुखों से दुखी होने के व्यर्थ भाषण वे लोग देते थे जिनके पास सभी भौतिक सुख थे।

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वास्तव कल्पना से अधिक विचित्र है।

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यहाँ प्रस्तुत सभी उद्धरण गुजराती भाषा की सुपरिचित साहित्यिक देवांगी भट्ट के उपन्यास ‘अशेष’ से चुने गए हैं। इनका गुजराती से हिंदी में अनुवाद गुजराती की नई पीढ़ी की लेखिका-अनुवादक भाग्यश्री वाघेला ने किया है।

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