क्राइम मास्टर गोगो, श्री निर्मल वर्मा और मैं
मयंक जैन परिच्छा
16 मई 2025

हिंदी में एक ऐसे लेखक हुए, जिन्होंने लाखों भूले-भटके किशोरों-युवाओं का जीवन तबाह किया। इंटरनेट पर फैले इनके कोट्स नशीली उदासी का व्यापार करते हैं। हिंदी के ‘क्राइम मास्टर गोगो’—प्रचंड अवसाद और निराशा में रत मनुष्यरूपी देव, जिन्होंने हिंदी को ग्लोबल बनाया...
आप समझ ही गए होंगे कि यहाँ किसकी बात हो रही है!
निर्मल वर्मा।
आज उनकी याद आई।
क्यों?
किसी लेखक की याद क्यों ही आएगी? ये सारे काम साहित्य और राजनीति के ज्ञाताओं पर छोड़ देना चाहिए। हम अल्पज्ञानी बकलोल हैं। हम बस फ़ायदे या फ़ोकासी के लिए ही किसी को याद करते हैं।
हद है! हमसे सेंस की उम्मीद न रखें।
इंटरनेट की जनता हरदम रोस्ट-मोड में ही रहती है।
निर्मल वर्मा की याद किसी कैफ़े में अकेले बैठे, की-बोर्ड पीटते हुए आई। जब एक गोरी मैडम आकर मेरी बाज़ू वाली टेबल पर बैठ गईं। यह अनुभव आम-सा है, किसी के साथ भी हो सकता, पर लेखक की भौचक टुच्चई यहीं शुरू होती है, क्योंकि उसको ये सब बहुत विशेष लगता है।
कैफ़े में टेबल पर बैठे हुए सुंदर लड़की और कहानी के प्रमुख पात्र की बातचीत—हिंदी कहानी का काफ़ी प्रचलित टेम्पलेट हो गया है। कुछ नहीं तो दो लोगों को कैफ़े में बात करने बिठा दो। इसको हिंदी में ‘कैफ़े दर्शन’ कह सकते हैं। यह ग्लोबलाइज़ेशन की देन है, जो हर साहित्य की तरह हिंदी में भी अब बहुतायत में मौजूद है। अँग्रेज़ी में कहें तो यूˈबिक्विटस् फेनोमेनन, जो सर्वत्र मौजूद है।
वैसे भी हिंदी के लेखक के पास गिना-चुना अपना पुराना जीवन ही एकमात्र अनुभव होता है, जिसको वह कैफ़े में प्रस्फुटित करता है। नया अनुभव कहाँ से लाए, क्या ही नया पढ़ लेगा और जी लेगा? लेखक वाली एस्पिरेशन केवल दूसरी नौकरियों में लिप्त फ़्री में लिखने वाले ही बना पा रहे हैं। लेखन से रोज़ी चलाने वाला बस अपनी क़िस्मत को रोता है।
हिंदी लेखक या तो किसी ऑफ़िस में कोई घिसा-पिटा काम करता है, फिर शाम में किसी कैफ़े में बैठा साहित्य सप्लाई करता है, या फिर पहले से अमीर होता है और साहित्य-समाज की दुर्दशा पर निबंध बघारता है। किताबें उसकी फिर भी नहीं बिकतीं। हिंदी में ग़रीब लेखक नहीं होते, होते होंगे पहले। अब होंगे तो कोई नहीं छापेगा। अगर कोई रंगा-बिल्ला टाइप होगा भी तो पड़ा रहेगा कोने में, कोई नहीं पूछेगा—जब तक अँग्रेज़ी का कोई अनुवादक आकर उसके बुत को छू न ले, तब तक उस पापी का उद्धार संभव नहीं।
या फिर यह कर सकते हो कि सोशल मीडिया से पॉपुलर हो जाओ और डींगे हाँको। या फिर मेरी तरह टुच्चई करो। अगर इन सबमें से नहीं हो तो आप नए किस्म के ‘चटक चमन’ हो। तुम्हारा कुछ नहीं होना!
ख़ैर, कहानी पर आते हैं।
मेरा मन हुआ इन गोरी मैडम से थोड़ा बतियाया जाए।
पर क्या बात करें?
...तो बस्ते में मौजूद मिलान कुंदेरा की किताब ‘द अनबेयरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग’ अपनी टेबल पर रख ली। सोचा, शायद मैडम ने पढ़ी होगी—हम अक्सर अपनी सहजता से कई चीज़ें मान लेते हैं। मैंने भी मान ली।
मुझे लगा, अगर पढ़ी होगी, तो बात छेड़ने का बहाना मिल जाएगा और निर्मल वर्मा जी का ज़िक्र भी आ जाएगा, लेकिन मैडम सैली रूनी की ‘इंटेरमेजो’ पढ़ने लगीं।
मैंने सैली रूनी को न तो पढ़ा, न ही मैं उनके बारे में कोई बात कर सकता था। हाँ, जो दोस्त नहीं पढ़ते या कम पढ़ते हैं—उनके सामने मैं सैली रूनी क्या मार्सेल प्रूस्त, जीन-जैक्स रूसो, शेक्सपियर, अरस्तू, कामू, दोस्तोयवस्की, फ़ॉकनर, जे.एस. मिल, सोनटैग, आइंस्टीन, बार्थ न जाने कौन-कौन से लेखकों और वैज्ञानिकों पर घंटों ज्ञान-पुंज बरसा सकता हूँ; पर यहाँ गोरी मैम के सामने कैसे बात करें? हम ठहरे देसी लल्लू। थोड़ा भी फ़ैंसी आदमी हो तो बात करने में कुलकुली मचती है। यह तो ठहरीं विदेशी स्त्री। बिना बात के बदनामी का डर रहता है। जैसे—हैलो भी बोल दिया, तो मैडम कैंसल कर देंगी और हमें जेल हो जाएगी। तो चुपचाप बैठे रहे।
पाँच मिनट बाद मैडम ख़ुद ही उस किताब को निहारने लगीं। अब हम जोश में आ गए।
हम बोले, “आपने पढ़ा है इनको?” (अँग्रेज़ी में बतियाने लगे)
मैडम बोलीं, “मैंने इसे चेक भाषा में ही पढ़ा है।”
मेरी बाँछें (शरीर में जहाँ भी होती हैं वहाँ) खिल गईं। सोचा, ज्ञान-दान करने का उत्तम अवसर आ गया पार्थ!
मैंने कहा, “आपको पता है, कुंदेरा अँग्रेज़ी और फ़्रेंच से पहले हिंदी में अनूदित हो चुके थे?”
मैडम अत्यंत भावविभोर हो गईं। शायद उन्हें लगा कि मैं कोई महान् साहित्यकार हूँ, इस कैफ़े में बैठा दुनिया को अपने शब्दों में ढाल रहा हूँ।
मैडम बोलीं, “बहुत सुंदर, मुझे पता नहीं था। किसने किया है।”
मैंने कहा, “निर्मल वर्मा—एक ऐसे लेखक, जिन्होंने जीवन की उदासी को रोमांचक बनाया।”
मैडम मेरी तरफ़ आश्चर्य से देखते हुए कहने लगीं, “बड़ी रोचक बात लगी, थोड़ा मुझे इस बारे में समझाओ। मैं इतना साहित्य नहीं पढ़ती।”
मैंने बिना संदर्भ दिए एक और आकस्मिक लाइन दी, “आपको पता है, निर्मल वर्मा से प्रेरणा पाए लेखक और पाठक सुबह-शाम और दुपहर, जब मन आए दिल्ली के मंडी हाउस या किसी कैफ़े में चले जाते हैं या फिर दिन भर की बीनी गई उदासी को बुनकर कोई पुलओवर बना लेते हैं और उसे पहनकर अगली सुबह शिमला निकल जाते हैं।”
“मुझे कुछ समझ नहीं आया, पर सुनकर अच्छा लग रहा है...” मैडम ने शायद मेरे ज़बरदस्ती के ज्ञान के प्रवाह को शांत करने के उद्देश्य से यह लाइन दी।
पर अब मैं साहित्यकार के साथ-साथ एक प्राध्यापक भी बन गया था, जिसको मेन्सप्लैनिंग में मज़ा आता हो। साहित्य-वाहित्य गया तेल लेने! अब बात है, फ़ोकासी मारने की। अगर साहित्य की दुनिया में फ़ेल भी हुए तो क्या?
कुछ चार किताबें लिख मारेंगे जो कोई पढ़े, न पढ़े हमें क्या?
फिर अपने या अपने दोस्त के नाम पर कोई अवार्ड रखवा लेंगे।
पाठक तो मूर्ख होते ही हैं।
मैंने कहा, “वाह! क्या निमित्त है। एक अजनबी से मुलाक़ात, वो भी शिमला के एक कैफ़े में। आख़िर मैं भी निर्मल वर्मा को पसंद करने वाले उन्हीं पाठकों में से हूँ, जो उदासी का पुलओवर पहनकर शिमला आया।”
वह हँस दीं, “हाँ, कैफ़े का ज़िक्र तो मुराकामी के संसार में भी बहुत है। शायद उदासी की परिधि का हर लेखक अपने आपको अकेले किसी कैफ़े में पाता है। अच्छे फ़ैन हैं आप।”
“वाह”—मेरे मुँह से निकला। फिर मैंने पूछा, “आप प्राग गई होंगी। पता है, निर्मल वर्मा को पढ़ना, जैसे ओल्ड टाउन स्क्वेर से चार्ल्स ब्रिज तक पैदल आने जैसा है।”
मैडम ने मेरी ओर देखा और बोलीं, “वाक़ई बहुत ही अच्छे लेखक मालूम होते हैं। मैंने प्रूस्त के बारे में ऐसी बातें सुनी थीं। मेरी एक दोस्त, वियतनाम में छह महीने की छुट्टी पर सिर्फ़ प्रूस्त को पढ़ने के उद्देश्य से गई है। काश मैं भी इतनी रुचि रखती, लेकिन मुझे घूमना पसंद है। साहित्य का मुझे इतना पता नहीं। हाँ! मुझे मुराकामी और बनाना युशीमोतो ऐसा अनुभव कराते हैं।”
भाग्यवश मैंने दोनों ही लेखकों को पढ़ा था।
मैंने कहा, “जितना आप पढ़ती हैं, वह भी एक गंभीर पाठक हो जाने की अर्हता के पार ही है। मुझे भी बनाना की युवाओं के भावना-संसार की गहन समझ और मुराकामी का अपना एक सुंदर-सा, भारी-सा संसार बहुत भाता है।”
बात को आगे बढ़ाते हुए, मैंने मैडम से पूछा वो शिमला में क्या कर रही हैं? तो मैडम ने बताया कि उनके दादाजी यहाँ म्यूजिक सिखाते थे, और उनके पिता की पहली पत्नी भारतीय हैं, जिसकी वजह से उनके कुछ सौतेले भाई-बहन यहाँ रहते हैं। इसलिए उनका भारत में आना-जाना अक्सर रहता है।
तभी एक बच्चे-सी शक्ल का, गंभीर और कुछ उदास-सा चेहरा मुझे अंदर आता हुआ दिखा। वह आदमी उन्हीं गोरी मैडम के पास आकर बैठ गया।
गोरी मैडम ने मुझे उससे मिलाया। उसका नाम पॉवेल था, वो स्लोवेनिया से था। मुझे देखकर भावहीन रहा और बीयर पीने लगा। मुझे लगा यह इसके चेहरे का निश्चित भाव है, जो कभी बदलेगा नहीं। ज़्यादा बकलोली करूँगा तो ये ढिशुम-ढिशुम भी कर सकता है, बिल्कुल निर्मल वर्मा जी की तरह।
गोरी मैम के चेहरे पर उदासी नहीं थी, पर पॉवेल के पास थी। इस बात से याद आया कि निर्मल वर्मा ने भी सुख और दुख में अंतर किए बिना, अपने साहित्य संसार को उदासी में ही देखा।
मैं उदास नहीं था, ख़ुश था। चाय और मैगी के टंच फ़ोटो आ गए थे, जिसको एस्थेटिक तरीक़े से सोशल मीडिया पर डालकर निर्मल वर्मा का कोट पेल दूँगा। लोग मुझे उदास यात्री समझेंगे जो जीवन जीने के लिए घूम रहा है और लिख रहा है।
मैं उठकर मॉल रोड आया तो प्रेमी युगल और देश-भर से आए यात्रियों के शोर से शहर भरा हुआ था। प्रेमी युगलों की चुहल देखने में मुझे उकताहट हो रही थी। यह इस बात का द्योतक था कि मैं कितना गंभीर साहित्य पढ़ता हूँ।
मैं जानता हूँ कि दिखने वाला सीधा-साधा प्रेम लोकप्रिय साहित्य की उल्टी होती है। असली साहित्यकार आम जीवन की क्रिंज़ से परे हर वाक्य में गौण-पाठ्य ढूँढ़ता है।
बहरहाल, न ही मेरे लिए उस गोरी मैडम से मिलना रोमांचक अनुभव था, न ही शिमला में घूमना। सच तो यह था कि मैं भी एक गुमराह युवक हूँ, जिसको निर्मल वर्मा ने तबाह कर दिया। क्या करूँ फिर मैं?
यात्राएँ हमेशा इतनी रोमांचक नहीं होती। हमेशा क्या कम ही होती हैं। ख़ासकर अब!
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