नीत्शे के नीत्शे होने की कहानी
मयंक जैन परिच्छा 14 नवम्बर 2024
“किधर है नीत्शे?”
यह सवाल सुबह से नीत्शे के घर में गूँजता रहता। उसके पिता बोहरे जी, जिनका असली नाम लक्ष्मण नारायण शर्मा है—और जो गाँव के पुजारी और ज्योतिषाचार्य हैं—जो सुबह-सुबह अपने बेटे के घर से भाग जाने से परेशान रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं यह कोई नया बखेड़ा न खड़ा कर दे, लेकिन नीत्शे पिताजी के सोने के बाद घर आ जाता और जागने से पहले निकल जाता।
नीत्शे—गली-गली घूम-घूम बीड़ियाँ ढूँढता रहता। उनको पीकर ख़ुश होता, और ग़लती से पापा दिख जाएँ तो भाग जाता। भूख लगती तो अपने ही घर में चोरों की तरह आता और रोटी और प्याज़ उठाकर भाग लेता।
नीत्शे अपने घर में सब्ज़ी नहीं खाता था। सब्जी तो केवल पापा के लिए बनती थी, दूसरों के खेतों से चुरा कर फूट, आम, खरबूजा—सब खाता। उसके पिताजी को कढ़ी-चावल बहुत पसंद है, जब भी माँ कढ़ी-चावल बनाती, वह उस वक़्त घर के आस-पास होता। माँ जानबूझकर कढ़ाई में कुछ छोड़ देती ताकि जब भी नीत्शे आए, खा जाए।
नीत्शे को उसका गाँव भी ख़ूब मानता था, इसलिए खाने-पीने की तो कोई कमी न होती। घर के बाहर उसने हर सब्ज़ी, हर पकवान चख लिया था। लेकिन नीत्शे के पिताजी का मानना था, इंसान को अपनी मेहनत का खाना चाहिए, फ़्री का खाने से आदमी निकम्मा हो जाता है, उन्होंने भी 18 वर्ष की उम्र तक कोई सब्ज़ी नहीं चखी तो उनके बच्चों को भी नहीं खाना चाहिए।
नीत्शे उनकी बात नहीं मानता था। नीत्शे को भी पता था, अगर उसने सब्ज़ी खाई और उसके पिताजी को पता चला तो फिर उसका क्या हश्र होना है—कुटाई। और पापा की कुटाई कितनी भयानक होती है, उसको इस बात का इल्म है।
वह पिछले तीन महीने से पापा से नहीं मिला। किसी भी मंदिर में सो जाता और हर कोई उसको बुला लेता, आख़िर था वह पूरा ज्ञानी—गीता, विष्णु पुराण, सुंदरकांड सब कंठस्थ थे। उसकी पूजा-विधि और ज्योतिष का ज्ञान दूर-दूर के गावों में प्रचलित था—14 साल के बच्चे से क्या ही उम्मीद करेंगे? कुछ पुराने लोग तो उसे भगवान का अवतार तक कहते थे।
लेकिन नीत्शे चाहता क्या था? बस वह अपने पिता से नहीं मिलना चाहता था। उसमें अपने क्या मूल्य थे? उसको भी नहीं पता था शायद। उसने अपने अंदर किसी भी तरह की चेतन संवेदना और सामाजिक नैतिकता से ख़ुद को बचाए रखा था। उसकी मौलिकता ही उसकी नैतिकता थी। एक अक्खड़, अपने आप में मुग्ध एक अबोध बालक, नीत्शे बस एक आम बच्चा ही मालूम होता है, जो बोलचाल की भाषा में शायद उद्दंड और अधिक चंचल ही कहा जाएगा।
नीत्शे के, नीत्शे होने की कहानी भी अजीब थी। एक बार उसके गाँव में एक नाटक मंडली आई और नीत्शे ने उनके समान में से एक नकली मूँछ ढूँढ ली, जिसने उसके छोटे से मुँह को पूरा ढक लिया। उसने वो मूँछ किसी ऐसी गोंद से चिपका ली कि वो बस चिपकी रह गई। कई घंटों तक तो कोई उसे पहचाना ही नहीं। फिर जाकर जब लोगों ने ग़ौर से देखा तो समझे, यह उनका अपना केशव है जो कुछ दिनों में नीत्शे नाम से प्रचलित हुआ है। इस वृत्तांत से पहले नीत्शे को लोग केशव नाम से ही जानते थे।
पता नहीं कैसे अख़बारों में एक सनसनीख़ेज़ फ़ेक न्यूज़ छपी, “जर्मनी के दार्शनिक फ़ेड्रिक नीत्शे का हुआ पुनर्जन्म।” तब से लेकर नीत्शे, केशव से नीत्शे हो गया।
यद्यपि नीत्शे ख़ुद से जाकर किसी से भी इतनी बात करना पसंद नहीं करता था, लेकिन अभी वह गाँव के मंदिर के बाहर कुँए के पास बैठे धाकड़ साहब जो गाँव के मुखिया हैं—उनसे बात कर रहा है। कहता है—“इस वर्ष आप अपनी बिटिया का बियाह मत करिए, अच्छा योग नहीं है, उसको दसवीं की परीक्षा देने दीजिए।”
धाकड़ साहब ध्यान से उसकी बातें सुनते और कहते आपके पिताजी तो कहते थे कि पौष के बाद लगन का बढ़िया योग है और दसवीं करके क्या ही करेगी वह। अच्छा लड़का है, बढ़िया घर है, शादी हो जाएगी इस साल तो मुझे चैन मिलेगा। लड़कियों की शादी जल्दी कर देनी चाहिए, तुम अभी बच्चे हो, तुम नहीं समझते कि ज़माना कैसा है। जवान बेटी घर हो तो हमेशा डर लगा रहता है।
“तो मान लीजिए उनकी बात और कर लीजिए, फिर न कहना कि शादी में कोई विघ्न आया”
धाकड़ साहब थोड़े परेशान हो उठे, बोहरे जी को पाँच हज़ार दिए, तब उन्होंने हवन किया और बोला कि अब लगन का उचित योग है और नीत्शे कहता है कि योग नहीं है? कैसा धर्मसंकट है?
“पैसे और हवन से भगवान ख़ुश नहीं होते धाकड़ साहब, फिर तो सारे पापी मंदिर में दान करते जाएँगे और पुण्य कमाते जाएँगे।” नीत्शे थोड़ा समझाते हुए बोला।
“तो आप क्या चाहते हैं? हम आपके पिताजी की बात न मानें?” धाकड़ साहब थोड़ा संशय में बोले।
“जी आप जो चाहें वो करें, हम तो कुछ कह ही नहीं रहे।”—नीत्शे ने झिड़क कर बोला।
नीत्शे की कहने भर की देर थी बस, किसी की मजाल जो उसकी बात टाल दे, उसने पिछले बरस पूरे गाँव को बोला था टमाटर मत लगाओ कौडियों के भाव बिकेंगे और वही हुआ। कुछ लोग मानते थे कि नीत्शे के पास कोई दैवीय शक्ति है, लेकिन नीत्शे को उस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, कि उसके पास क्या है क्या नहीं। उसको बस अपने आप से मतलब है, खाने को समय पर खाना मिल जाए और पीने को बीड़ी।
नीत्शे को पता था कि धाकड़ साहब उनकी बेटी की शादी इसलिए करना चाहते थे क्योंकि वो सामने वाले हाकम-धाकड़ के बेटे अंकुर से प्रेम करती है और धाकड़ साहब को यह बात पसंद नहीं—वह इसी गाँव में अपनी बेटी को बियाहना नहीं चाहते। वह अपनी बेटी के लिए कोई शहर का लड़का ढूँढ लाए हैं, उसी से वह अपनी बेटी की शादी करना चाहते हैं।
भले लड़का जात बिरादरी का क्यूँ ना हो, लड़की अपनी मर्ज़ी से बियाह करे तो परिवार अक्सर डर जाता है, अपनी परवरिश पर संदेह करने लगता है। आख़िर ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई लड़की अपनी मर्ज़ी से अपना पति ढूँढ ले। लड़की की मर्ज़ी पर पहला हक़ उसके परिवार और माँ-बाप का होता है और शादी के बाद उसके पति और सास-ससुर का।
नीत्शे को उन दोनों से कोई भावनात्मक सहानुभूति नहीं है। बस क्योंकि अंकुर ने उसे एक बीड़ी का पूरा बंडल दिया था, जो उसने गुड के साथ चाव से पिया, नीत्शे उसका कर्ज़ उतारना चाहता है—नीत्शे उसूलों का पक्का था। उसको लगा शादी टलवाकर अपना फ़र्ज़ अदा किया है, इससे दोनों को अपनी ज़िंदगी में निर्णय लेने का वक़्त मिलेगा। बाक़ी किसी और बात की नीत्शे परवाह नहीं करता।
कुँए के पास से नीत्शे उठकर जब हरिया काका की दुकान पर पहुँचा तो उसको लोगों ने घेर लिया, बोले क्या पंडित जी, धाकड़ साहब की बेटी के विवाह के योग नहीं? यह बात कुछ ही वक़्त के अंतराल में यहाँ कैसे पहुँची, ये समझ से परे था, पर बात का फैलना किसी भी गाँव में एक बहुत आम बात है।
“पंडित जी किसको बोलते हो?”—नीत्शे ग़ुस्से में बोला।
“आपको?” एक मूँछ वाला व्यक्ति हँसते हुए बोला।
“हम पंडित नहीं हैं, वह तो हमारे पिताजी हैं, हम नीत्शे हैं, एक हाड़-मांस के बने इंसान, तुम्हें दिखते नहीं।”
“तो यज्ञों का ज्ञान, सुंदरकांड, पूजा-पाठ ये कैसे आया, ये सब तो पंडित ही करते हैं।”
“जो मानना है मान लो, हमें क्या!”—नीत्शे ने हँस कर कहा। आगे कहा, “हम तो मानते हैं, भगवान मर चुके हैं, वह ज़िंदा है ही नहीं, और हमारे ही हाथों उनकी हत्या हुई है, अब बस उनकी छाया है।”
“हमने हत्या कर दी? भगवान को हम कैसे मार सकते हैं भला, वह तो सर्व शक्तिमान है”—उसी मूँछ वाले व्यक्ति ने आश्चर्य से कहा।
“हाँ! भगवान मर चुका है और हम सभी हत्यारे हैं। अब सोचो बिना भगवान हम कैसे रहेंगे? हमारे पास अब तक जो कुछ भी था, वह सबसे पवित्र और शक्तिशाली था; भगवान के मरने के बाद वह हमारे हथियारों के तले लहूलुहान हो गया। हमारे ख़ून से सने हाथ कौन साफ़ करेगा? हमारे पास ख़ुद को साफ़ करने के लिए कौन-सा पानी, साबुन, सर्फ़ है?”
हरिया काका बोले, “ऐसे न कहो नीत्शे बेटा, गाँव आप पर काफ़ी विश्वास करता है और ऐसे ज्ञान की बातें तो कोई पंडित ही कर सकता है। आप हमें भगवान का हत्यारा क्यूँ कहते हो”
“बीड़ी दो तो बताऊँ”—नीत्शे एक शैतानी हँसी ओढ़ के बोला।
“आप 14 साल के हैं, आप बीड़ी पियोगे तो जल्दी मर जाओगे, बच्चों को धूम्रपान नहीं करना चाहिए” हरिया काका बोले।
“तो मैं क्या करूँ, जवाब जानना है तो बीड़ी दो”—नीत्शे कुछ गुस्से में बोला।
वहीं खड़े शंभू ने अपनी एक बीड़ी जला कर नीत्शे को दी।
और फिर नीत्शे बोला, “हम जिस समाज में रहते हैं और जैसा हमारा विश्वास है उसके अनुसार—हमारा भगवान के बिना कोई अस्तित्व नहीं, तभी लोग उससे डरते हैं। अगर मैं कह दूँ कि भगवान नहीं होता तो सब पाप की राह चल देंगे। हर इंसान में एक हैवान छुपा है। ऐसा क्यूँ है? आप अच्छे इंसान भगवान के डर से क्यूँ बनना चाहते हो? क्या आप ऐसे ही अच्छे इंसान नहीं बन सकते?”
“भगवान की हत्या हमने कर दी है, इससे मेरा मतलब यही है कि हमने भगवान को मंदिरों, रीतियों में, रिवाजों में बांध दिया है, और हम उसके रक्षक बन गए हैं। ये सब उस सर्व शक्तिमान की हत्या नहीं तो क्या है? हम उसको अपने स्वार्थ के लिए, बस एक डर से पूजते हैं और उसके नाम पर हिंसा करते हैं। ये नफ़रत, ये द्वेष कहाँ से आया? क्यूँ हम हिंसा प्रधान होते जा रहे हैं?”
“…और रही बात पंडित की तो, भगवान श्री कृष्ण कहते हैं—शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान), निस्पृही जैसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है, और हमको लगता है कि आप हमारे पिताजी को भी ग़लत ही ब्राह्मण मानते हो। क्योंकि उनमें ये गुण तो हमें नहीं दिखते और हम तो ठहरे एक बीड़ीबाज़”
सारे लोग ताली बजाने लगे और नीत्शे अपनी बीड़ी पीने लगा।
हरिया काका थोड़े सोच कर बोले, तो ब्राह्मण तो कोई है ही नहीं ऐसे इस गाँव में? यह तो कोई बात नहीं हुई।
“आप जो मानना चाहें मान लें, न मानना चाहें न मानें। भगवान आपके विश्वास और आस्था से कोई मतलब नहीं रखता। हाँ! अगर आप में कोई आस्था है तो वह शुद्ध होनी चाहिए, सारे स्वार्थों से परे। आप केवल भौतिक सुख की चाह या पाप के डर से भगवान की भक्ति करेंगे तो इससे बेहतर होगा कि आप सिर्फ़ भोगी रहें और कर्म करते रहें।” नीत्शे ने झिड़की में कहा।
इतनी भीड़ के बीच नीत्शे का ध्यान नहीं गया कि उसके पिताजी भी उस भीड़ का हिस्सा हैं। जब वह उसके पास बढ़े तो नीत्शे ने अपनी बीड़ी फेंक दी और कान हाथों से ढाककर बोला ये लोग मुझे ज़बरदस्ती बीड़ी पिला रहे हैं, मैं बीड़ी नहीं पीता, जैसे पिताजी उसके इस मासूम जवाब से शांत हो जाएँगे और उससे कुछ नहीं कहेंगे, बल्कि लोगों को डाँटेंगे कि आप मेरे बच्चे को क्या सिखा रहे हैं।
उन्होंने एक लट्ठ उठाया और नीत्शे को कूटने लगे, “धर्मग्रथों का ज्ञान नहीं दुनिया को अनर्गल सिखाता रहता है—पापी, निर्लज, कैसी औलाद है तू”
लोग उनको रोकने की कोशिश करते रहे लेकिन वह रुके नहीं।
बहुत कूटने के बाद जब पिताजी उसको ले जाने लगे तो नीत्शे रोने लगा, बोला—“ऐसे ही आप पंडित कहलाए, क्यूँ कहलवाते हो अपने आप को पंडित? क्या यही आपका ज्ञान है? इंसानियत नाम की चीज़ नहीं, ऐसे कौन अपने बच्चे को मारता है!”
उसके पिताजी बोले, “पहले तू चल धाकड़ साहब के पास, उनसे जाके बोल कि तूने उनको अनर्गल कुछ भी बक दिया। ऐसे अपने बाप का अपमान कौन करता है, तू पूत नहीं कपूत है, तू कंस है।”
इस बात पर नीत्शे ने कहा, “यह तो हम नहीं कहेंगे, अनर्गल तो आप बक रहे हैं, उनकी बेटी का बियाह का योग नहीं है इस वर्ष। तो हम झूठ क्यूँ बोलें।”
बोहरे जी ने एक और थप्पड़ नीत्शे में दे मारा, और बोले “मैंने उनको बियाह का उत्तम योग बताया है, पिछले 30 सालों से कर रहा हूँ, अपने पिताजी से सीखा, तूने दो बातें मुझसे और अपने दादा से क्या सीख लीं तो प्रकांड पंडित हो गया। ऐसे कैसे योग नहीं है? देव उठ गए हैं शादियों का सीजन आ गया, तू बकता है कि योग नहीं है?”
“मैं कोई पंडित नहीं, मैं यथार्थ कहता हूँ और यथार्थ यही है कि उनकी बेटी का इस वर्ष बियाह का योग नहीं, उसकी दसवीं की परीक्षा हैं। आप नए ज़माने में जीते हो, उसको परीक्षा देने दो, और मुझे बीड़ी पीने दो।”
इस बात पर बोहरे जी और ग़ुस्से में आ गए, कि नीत्शे ने उन्हीं के सामने बीड़ी पीने की ज़ुर्रत कैसे की, उन्होंने उसे ज़ोर से धक्का मारा और बोले।
“तू इंसान नहीं दैत्य है, रावण का वंशज साले मेरे घर में कैसे जन्मा, तुझे यह गाँव सम्मान देता है तो उस सम्मान की कद्र कर, यूँ बीड़ी पीते नसेड़ियों की तरह घूमेगा तो कोई नहीं पूछेगा तुझे, थोड़ा इंसान बन। तू सही कहता है तू पंडित नहीं है, पंडित होता तो थोड़ा ज्ञान होता, ज्ञान के आड़ में बहुत गहन अंधकार न होता, आज से मेरे घर में क़दम मत रखना वरना टाँगे तोड़ दूँगा।”
भीड़ बोहरे जी को समझाने लगी, नीत्शे ने अपनी बीड़ी फेंक, जेब में रखे गुड़ की भेली को खाने लगा।
“आप इतना क्यों मार रहे हैं इस बच्चे को? आपका बेटा नटखट है, लेकिन आप भी जानते हैं कि नीत्शे की कही बात कई दफ़े एकदम सच होती है। आप इसके ज्ञान का अपमान कर रहे हैं। सारा गाँव नीत्शे की बात मानता है। और यह बात सरपंच साहब पर छोड़ दो कि उनको अपनी बेटी की शादी कब करनी है, वैसे भी उनकी बेटी इसी वर्ष 18 की हुई है, इतनी भी क्या जल्दी? और एक वर्ष में क्या ही हो जाएगा”
बोहरे जी ने दुखी स्वर में अपना तर्क रखा, “भाई लोगों मुझे तो बल्कि ख़ुशी होगी अगर यह ज्योतिष के अनुसार सही चीज़ें बताए, नीत्शे का ज्योतिष का ज्ञान कुछ नहीं, दो चार मंत्र याद होने से कोई ज्ञानी थोड़ी हो जाता है, यह मेरा नाम डुबाने पर तुला है, यह नास्तिक है, इसकी भगवान पर कोई आस्था नहीं, तभी तो नीत्शे कहलाया। इसका नाम ही एक ऐसे विद्वान के नाम पर है जिसने भगवान की सत्ता को ठुकराया। कोई इसका असली नाम नहीं लेता, क्यूँ? इसका नाम तो केशव है ना? एक बार एक शहर का कोई अनजान आदमी इसको नीत्शे क्या बोल गया, सब इसको नीत्शे ही बोलते हैं। यह पश्चिम से आया, अज्ञानी और अहंकारी किसी असुर का अवतार है।”
हरिया काका क्रोधित हो गए, बोले, “वो तो मज़ाक़ करता है, आख़िर कोई जिसको वेद, शास्त्रों का ज्ञान हो वो बिना आस्था कैसे होगा और है तो बच्चा ही? बोल दिया मज़ाक़ में तो नास्तिक थोड़े हो गए। बोहरे जी आप तो कम-से-कम बच्चों की भाषा मत कहिए और आप अपने ही बच्चे को असुर का अवतार कह रहे हैं, आपको ज़रा भी अहसास है इस बात का?”
बोहरे जी बोले, “वही तो मैं कह रहा हूँ, है तो बच्चा ही, तो लोग इसकी बात क्यों मानते हैं, मेरी क्यों नहीं? असुर का अवतार कहना तो मेरे क्रोध में निकले शब्द हैं। पर गाँव वालों को भी समझना होगा, कि नीत्शे केवल एक बच्चा है”
अब बात बोहरे जी के आत्मसम्मान पर आ गई, आख़िर इतने वर्षों से जो काम कर रहे थे वह अब उन्हीं के बेटे के कारनामों की वजह से चुनौती पा रहा था।
धाकड़ साहब को बुलाया गया, उनसे पूछा गया कि वह क्या चाहते हैं? धाकड़ साहब दुविधा में थे, और बोहरे जी इस चिंता में कि कहीं वह उनके दिए पाँच हज़ार न माँग लें, आख़िर उनकी रोज़ी—लोगों को मूहूर्त बताना और उनको पूजा विधान में मदद करने से ही चलती है।
धाकड़ साहब थोड़ा सोचकर बोले कि, “हम सोच रहे हैं कि गुड़िया की दसवीं की परीक्षा के बाद ही उसका बियाह करें, एक वर्ष में क्या ही फ़र्क़ पड़ जाएगा। और नीत्शे कह रहे हैं तो उन्होंने कुछ सोच-समझ के ही कहा होगा। उनकी बात हम कैसे टाल सकते हैं, इस बहाने गुड़िया की पढ़ाई भी हो जाएगी और उसकी उम्र भी पक्की हो जाएगी।”
बोहरे जी ग़ुस्से में आ गए और कान पकड़कर नीत्शे को वहाँ से ले गए और नीत्शे बेचारा रोए जाए।
घर पर जब नीत्शे की माँ ने बाप और बेटे को एक साथ देखा तो हक्का-बक्का रह गई, वह समझ तो गई थी कि आज नीत्शे की कुटाई हुई है, लेकिन सिर्फ़ इतना बोल सकी कि, “बेटा तू ठीक है।”
“कारनामे देखो अपने सपूत के, बाप की रोज़ी छीनने पर तुला हुआ है, पता नहीं किस असुर को जना है हमने” पिता ने ग़ुस्से में कहा।
“क्यूँ करता है तू अपने पिताजी को परेशान, तुझे कितना लाड़ करते हैं और तू बिगड़ रहा है”, माँ ने नीत्शे से कहा, बात को आगे बढ़ाते हुए अपने पति को कहती हैं, “जाने दीजिए न, पूरा गाँव लाड़ करता है इसको, बहुत प्यारा है हमारा बच्चा, क्यूँ मार रहे हो। कितना ज्ञानी है। कल पड़ोस वाली अम्मा इसके लिए हलवा लेके आईं, और बोलीं कि साक्षात् भगवान का अवतार है हमारा केशव।”
नीत्शे में जैसे नई ऊर्जा आ गई और बोला, “मम्मी रोटी दे दे बढ़िया घी लगी।”
यह सुन पिता ने उसकी तरफ़ देखा, और बोले, “तू ही इसे बस इस नाम से बुलाती है। यह भगवान का नहीं किसी असुर का अवतार है। मेरे पिछले जन्मों के पाप का नतीजा। सारे गाँव में बीड़ी पीते हुए घूमता है, कल दारू भी पिएगा। कौन रोकेगा इसको?”
बीड़ी की बात पर माँ एकदम चौंक गई और उसने भी नीत्शे के दो थप्पड़ लगा दिए थे। नीत्शे को माँ के हाथ के गरमा-गरम थप्पड़ों की उम्मीद नहीं थी। नीत्शे कुछ नहीं बोला, किचन से जाकर खाना खाकर फिर से भाग गया।
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नीत्शे दो दिन से घर नहीं आया। पिताजी देखते रहे पर वह कहीं नहीं मिला। गाँव में सुनने में आया था कि पकड़ हो रही है, रामबाबू गड़रिया नाम का कुख्यात डाकू लोगों को पकड़ रहा है और फ़िरौती माँग रहा है। रामबाबू और उसके गिरोह का डर पिछले एक दशक से गाँव में रहा है।
पुलिस ने उस पर पाँच लाख का इनाम रखा था, और ख़बर यह थी कि उसका गिरोह गाँव के आस-पास ही है। इस बात से बोहरे जी के घर में भी चिंता बिपरी हुई थी। एक तो नीत्शे घर नहीं आता, दुनिया जहान में घूमता रहता है और दूसरा गाँव में एक नई बला आन पड़ी।
नीत्शे की माँ ने उसके पिताजी से कहा “क्यूँ डर रहे हो। नीत्शे कुछ सुझा देगा।”
“वही तो डर है उस बीड़ीख़ोर के मनचले हथकडों से, कि कहीं कोई नया बखेड़ा ना खड़ा कर दे”, पिताजी ने कहा।
“ऐसे मत कहो! और लल्ला बीड़ी पीता है? आपने पहले बताया नहीं?”
“क्या बताता? उसने पूरे गाँव में नाक कटा रखी है” पिताजी ने कहा।
“मैं बात करूँगी लल्ला से, आप भी तो उसके पीछे पड़े रहते हैं”
धाकड़ साहब ने एक मीटिंग बुलाई जिसमें नीत्शे को भी निमंत्रण था। बोहरे जी जानते थे कि अगर वह वहाँ गए तो नीत्शे नहीं आएगा, इसीलिए उन्होंने ख़बर पहुँचाई कि नीत्शे को बोला जाए कि उसके पिताजी वहाँ नहीं होंगे।
शाम को महफ़िल सज चुकी थी। सब लोग हरिया काका की दुकान पर बैठे हुए थे।
धाकड़ साहब ने बोला नीत्शे को बुलाओ, बोहरे जी भी आएँगे पर उससे मत कहना।
नीत्शे अपने चिर-परिचित अंदाज़ में आया, एक हाथ में गुड़ की भेली और दूसरे में बीड़ी।
हरिया काका बोले, “आओ बेटा नीत्शे, सुना होगा तुमने अपने गाँव में पकड़ हो रही है रामबाबू गड़रिया आया है। गाँव में डर का माहौल है। सभी डरे हुए हैं कि क्या होगा। तुम्हारे भरोसे है सब कुछ, बेटा कोई रास्ता सुझाओ।”
नीत्शे ने बीड़ी जलाई और कहा, “परेशान काहे हो रहे हैं, हम मिलेंगे उनसे, कल ही उनका एक ख़बरी हमको बताया था कि वह हमसे मिलना चाहता है”
पिताजी उस बात को सुन रहे थे। उनको हिदायत थी कि वो बीच में नहीं आएँगे, जब तक बात पूरी ख़त्म न हो।
धाकड़ साहब बोले, “तुम तो बच्चे हो। तुम्हें तो वह क्या ही करेगा। डर हमें लगना चाहिए, कल सुना अंकुरसी गाँव के सरपंच को उठा लिया। और 25 लाख माँग रहा है, और रामबाबू तो किसी को मारने से भी नहीं कतराता। एक बार 12 लोगों को एक लाइन मे खड़ा करके गोलियों से भून दिया। अगर तुम सोच रहे हो कि वह अमीरों को अकेले पकड़ता है तो तुम ग़लत हो। वह कई छोटे-छोटे दुकानदारों और जिनकी भी थोड़ी बहुत जमीन है, सबको पकड़ लेता है। इसलिए सारा गाँव असुरक्षित है”
नीत्शे हँसने लगा बोला, “वह अपना काम कर रहा है, अब डाका-वाका नहीं डालेगा तो क्या करेगा। वो उसका कर्म है, आप अपना कर्म करिए। आपको पकड़ेगा तो पैसे दे दीजिएगा। वैसे भी आप जैसों को तो पकड़ता ही है”
धाकड़ साहब हकबका गए, और ग़ुस्से में बोले कि “तुम कह रहे थे कि वह तुमसे मिलना चाहता है, तो मिलो उससे बात करो। समझाओ की हमारा गाँव छोड़ दे।”
नीत्शे फिर से हँसकर बोला कि, “इसमें मेरा क्या फ़ायदा? हर इंसान का अपना धर्म और कर्म है जो उसे करना चाहिए। आपका धर्म इस वक़्त क्या है? आप वो करिए।”
धाकड़ साहब नीत्शे के मुँह के सामने आकर चिल्ला कर बोले, “तू पंडित है, तुझे ग़लत-सही का अंदाज़ा है कि तू डाकुओं की भाषा सीख गया?”
नीत्शे ने उनके मुँह पर बीड़ी के कश का धुँआ छोड़ते हुए कहा, “मुझे कमज़ोरों के सही और ग़लत के मानदंड नहीं सिखाओ सरकार। मेरे लिए क्या सही है, मैं तय करूँगा। मेरा मानना है गाँव अपनी सुरक्षा ख़ुद कर सकता है। और मैं अगर डाकुओं के साथ हूँ तो यह ग़लत या सही आपके मानदंड तय नहीं करेंगे। मेरे अपने मानदंड हैं।”
हमें लगता था कि तुम तो गाँव का भला चाहते हो, तुम तो सबको डूबाने में लगे हुए हो। गाँव में अगर एक भी हत्या हुई तो मुझसे बुरा कोई भी नहीं होगा। मुझे तो लगता था कि तुम्हारे पिताजी तुम्हें ग़लत मारते हैं पर तुम तो एकदम ही निर्लज बातें करते हो”
धाकड़ साहब के कटु शब्द सुनते ही सब उनको समझाने लगे बोले कि “नीत्शे तो बच्चा है, बोहरे जी को बुलाओ उनकी बात सुनते हैं”
बोहरे जी अब इस संवाद का केंद्र थे। उनको इस बात की ख़ुशी हुई कि नीत्शे की बात की महत्ता को ठुकराया गया। वहीं नीत्शे पिताजी को देख थोड़ा भी चकित नहीं हुआ, उसको अंदाज़ा तो था ही कि पिताजी आस-पास कहीं तो हैं और अपनी गुड़ की भेली खाता रहा।
बोहरे जी बीच में आए और नीत्शे को ज़ोर का चमाट मारा, और जाने को कहने लगे। नीत्शे एकटक पिताजी को देखता रहा पर इस बार भी रोया नहीं और वहाँ से जाने लगा।
हरिया काका ने नीत्शे को रोका।
“अरे नीत्शे बेटा जाओ मत। यह लो हनुमान जी का प्रसाद, यह खालो और इधर बैठ जाओ।” नीत्शे ने प्रसाद लिया और खाने लगा।
बात आगे बढ़ी।
बोहरे जी बोले कि कुछ समय के लिए गाँव का कोई भी मर्द रात को बाहर न निकले। और कोई भी खेत में अकेले न जाए।
सब इन बातों को सुनते रहे और मानते रहे। किसी के पास और कोई उपाय भी तो नहीं था।
पर बात कहना आसान था करना मुश्किल। बोहनी का वक़्त था और गाँव नो तपे के बाद आने वाली पहली बारिश का इंतज़ार कर रहा था।
उम्मेद नाम के व्यक्ति ने कहा, “भैया पिसी लगानी है इस बार। खेत तैयार करना है, कैसे होगा? बटाई वाले तो जाएँगे ही। हमारे पास तो ज़मीन भी नहीं, काम तो करेंगे ही”
शंभु ने भी इस बात में अपनी बात को जोड़ते हुए कहा, “सबके गैंतो में ढोर-बछेरी बंधी रहती हैं। घरों में इतनी जगह थोड़ी है कि सब घर बांध लें। अब लोग तो बाहर निकलेंगे ही, घर में हमेशा थोड़ी रह सकते हैं।”
बोहरे जी ने अपनी वाकपटुता का प्रदर्शन करते हुए कहा, “यह मुसीबत का समय है, अगर गाँव से कोई नहीं मिलेगा तो वह किसी को नहीं पकड़ेगा और रामबाबू हनुमान जी का बड़ा भक्त है मत्था टेकने ज़रूर आएगा हमारे गाँव। मैं मंदिर में रहूँगा, उससे बात करूँगा। उससे कहूँगा कि हमारे गाँव में पकड़ न करे।”
यह सब सुन नीत्शे फिर से ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
“आप बात करेंगे और वह आपकी बात मानेगा?”
बोहरे जी को फिर से बहुत ग़ुस्सा आया, लेकिन इस बार उन्होंने नीत्शे को पीटना जायज़ नहीं समझा क्योंकि गाँव में उनकी बातों की सत्ता एक बार फिर से स्थापित हो चुकी थी।
धाकड़ साहब ने बोहरे जी की बात से थोड़ी साँस भरी और बोले, “हम तो सिर्फ़ इंतज़ार कर सकते हैं, होना करना सब भगवान की मर्ज़ी है। बोहरे जी आप गाँव के पुजारी हैं, आप इस बात को सँभालें। आप बात करें उनसे।”
हरिया काका गाँव के सबसे बुज़ुर्ग होने के नाते इस बातचीत का उद्देश्य साफ़ कर देना चाहते थे। उन्होंने कहा, “देखिए हमारा गाँव कोई धन्ना सेठों का गाँव तो है नहीं कि कुछेक लोग हैं जो अमीर हैं, पकड़ होने से बेहतर क्यूँ न यह किया जाए कि हम कुछ पैसा इकट्ठा करके रामबाबू को दे दें। इस से होगा यह कि गाँव भी शांति से रहेगा और कोई पकड़ भी नहीं होगी।”
यह बात सुनते ही राहत भरी फुसफुसाहट शुरू हो गई। गाँव के बुज़ुर्ग यह मानकर चल रहे थे कि रामबाबू का कोई ख़बरी हमारे बीच होगा ही, और यह बात उस तक पहुँच जाएगी। यह एक हिसाब से संधि-समझौता होगा।
बोहरे जी भी इस बात में अपनी अगुवाई का देख चुके थे और बात की गहरी अंतर्दृष्टि से इत्तेफ़ाक़ रखते थे। जिसके कारण तय हुआ कि पैसा इकट्ठा किया जाएगा। हर व्यक्ति प्रति बीघा पाँच हज़ार रुपए देगा और पैसे इसी हफ़्ते हनुमान मंदिर में इकट्ठा किया जाएगा।
इतने में क्षेत्र का डीएसपी अक्षय सिंह आया, जो कई सालों से रामबाबू के पीछे पड़ा था और आज उसके पास मौक़ा था। आते ही गाँववालों ने स्वागत-सत्कार कर, अपना डर प्रकट किया।
डीएसपी ने कहा, “देखिए घबराइए नहीं, वह इन्हीं जंगलों में छिपा है, हम जल्द ही उसको पकड़ लेंगे। आप निश्चिंत रहें। कोई भी ख़बर लगे तो मुझे बताएँ। मेरा नंबर आप सब नोट कर लें। मुझे पर्सनल फोन करें। हमें किसी हाल में उसे पकड़ना है।” और बाक़ी हिदायत देकर डीएसपी चला गया।
नीत्शे सबकुछ इत्मीनान से सुन रहा था, लेकिन बोल कुछ नहीं रहा था। जब महफ़िल बर्ख़ास्त हुई और सब जाने लगे तो पिताजी उसके पास आए। उसे लगा कि कान खींचेंगे तो उसने अपने दोनों कानों पर हाथ रख लिया। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, आज पिताजी थोड़े ख़ुश थे कि उनकी सत्ता गाँव में फिर से कायम हो गई थी। उन्होंने नीत्शे का हाथ पकड़ा, उसको उठाया, बाल सहलाए और उसके जेब से बीड़ी का बंडल निकाल कर फेंक दिया।
घर आते ही माँ ने यह आलाप लगाया कि तू बीड़ी पीके आया है और एक थप्पड़ जड़ दिया। इस बात के लिए नीत्शे तैयार नहीं था। माँ के थप्पड़ के लिए वह कभी तैयार नहीं होता। लेकिन उसने माँ का दिया थप्पड़ सहन करके उसको दिलासा दिया कि वह अब बीड़ी नहीं पिएगा। नीत्शे नहीं चाहता था कि माँ को यह बात पता चले कि वह बीड़ी पीता है, क्योंकि माँ का लगाव उसको बांधता था। लेकिन अब माँ को यह बात पता चल चुकी थी जिसके कारण वह अब घर बीड़ी पीके नहीं आ सकता था।
सबसे बड़ी बात थी कि नीत्शे को बस निर्मोही ही रहना था। माँ का प्रेम उसके निर्मोही होने में बाधा था।
पिताजी ने उसको हिदायत दी कि घर से नहीं निकले, लेकिन पिताजी जानते थे कि नीत्शे उनकी नहीं सुनेगा। नीत्शे उस रात दुविधा में था, उसको आम खाने का मन था, लेकिन उसे किसी के बग़ीचे से चुराकर खाने में ही मज़ा आता था। जब पूरा गाँव आज अपने-अपने घर में सो रहा है, तो वह उस चुराने के आनंद से अपने आपको दूर देख रहा था। जब वह आम चुराने जाए और उसका कोई पीछा न करे तो क्या ही फ़ायदा। आम में फिर वह स्वाद नहीं आएगा।
अंत में नीत्शे ने सोचा कि बीड़ी ही पी जाए, पर रात गहरा चुकी थी। और उस वक़्त बीड़ी ढूँढ पाना टेढ़ी खीर था, फिर भी नीत्शे बीड़ी की खोज में निकल पड़ा।
पहले उसने हरिया काका की दुकान में घुसने का प्रयास किया, लेकिन दोनों तरफ़ से दरवाज़ा बंद था। उसने दरवाज़ा पीटना उचित नहीं समझा, क्योंकि वह ख़्वाह-मख़्वाह डर का माहौल बना देगा। चलते-चलते वह हनुमान मंदिर आ पहुँचा।
जैसे ही नीत्शे मंदिर पहुँचा, उसने देखा कि उसके पिताजी पाँच-छह बंदूक़धारियों के सामने हाथ जोड़े खड़े हैं—गाँव में पकड़ हो चुकी थी और धाकड़ साहब, बच्चू सेठ, बल्ली पंडित सब गिरफ़्त में थे। पिछले दस घंटों में गाँव में बहुत कुछ घट चुका था।
नीत्शे को इस सबसे कोई मतलब नहीं था। उसका मतलब इस वक़्त केवल बीड़ी तक सीमित था, वह गया और एक लंबी दाढ़ी मूँछ, और कंधे पर बंदूक़ रखे एक आदमी के पास आ गया।
इस सब में एक बच्चे को आता देख सब हतप्रभ रह गए। नीत्शे उस व्यक्ति के पास आकर कहता है, “रामबाबू! बीड़ी पीता है?”
रामबाबू उसको एकटक देखता रहा। एक मिनट देखने के बाद उसके चेहरे पर जैसे सिकन आ गई और बोल पड़ा, “हाँ”
नीत्शे ने पूरे आत्मविश्वास से कहा, “एक बीड़ी दे”
नीत्शे के पिताजी बीच-बचाव करते हुए हड़बड़ी में कहते हैं, “सरकार माफ़ कर देना, बालक है, अकल थोड़ी कम है”
और नीत्शे को बोलने लगे, “कंश यहाँ से निकल जा। पूरे गाँव की अर्थी उठवाना चाहता है क्या। देख तो ले किस से बात कर रहा है”
रामबाबू ने अपने बीड़ी के बंडल से बीड़ी निकाली और नीत्शे को दी, नीत्शे ने जलाई और पीने लगा, मानों उसको कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है। पीते-पीते वह एक कोने में जा बैठा।
रामबाबू नीत्शे के बीड़ी पीने के अंदाज़ को देखे जा रहा था। रामबाबू ने अब थोड़े अपने डाकू लहजे में पूछा, “क्या नाम है तेरा लड़के, तुझे डर नहीं लगता, यहाँ के 18 गाँवों में मेरा ख़ौफ़ है और तू मुझसे बीड़ी माँग के पी रहा है, कौन है तेरा बाप? यह पुजारी? क्यूँ रे पुजारी? तू तो डर के मारे काँप रहा है और तेरा बेटा मुझसे आकर बीड़ी माँगकर पी रहा है। तेरा ही बेटा है न?”
और सारे लोग ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे।
बोहरे जी थोड़े रुआंसे हुए कहते हैं, “माफ़ी सरकार! बहुत ही नालायक़ है इसको तमीज़ नहीं है बात करने की”
तभी रामबाबू के सहयोगी ने बताया कि वह नीत्शे है—जिसके गिरोह में भी चर्चे थे।
नीत्शे अब थक चुका था, उसको नींद आ रही थी। अब वह घर जाना चाहता था। वह रामबाबू के पास आया और बोला, “मंगलवार का व्रत रखते हो?”
रामबाबू इस सवाल से फिर भौंचक बोला, “तू पुजारी का ज्ञानी बेटा नीत्शे है”
“हाँ रखता हूँ”, रामबाबू ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तेरे भाई बलबीर को, तेरे फूफा ने मरवाया था। तूने उसके बेटे को ग़लत मार दिया। तुझे कोई पश्चाताप नहीं?” नीत्शे ने पूछा।
रामबाबू को नीत्शे में एक ज्ञानी साधु दिखने लगा था और उसके चर्चे भी उसने काफी सुने थे, अब वह थोड़ा नरम हो गया और बोला, “मैंने तो 20 से अधिक ख़ून किए हैं और फिरौतियाँ माँगी हैं तो मुझे सिर्फ़ इस चीज़ का ही पश्चाताप क्यूँ होगा। मुझे हर जुर्म का पश्चाताप होना चाहिए, लेकिन अगर तू चाहता है कि मैं डकैती छोड़ दूँ तो तू ग़लत समझ रहा है। मैं तेरे गाँव में लूट करने आया हूँ, तो लूट कर ही जाऊँगा।”
नीत्शे हँसने लगा, बोला, “वह तो तेरा धर्म है, डाकू का धर्म है—डाका डालना। उस धर्म से रोकने की, मैं नहीं कहता। मेरा कहने का अर्थ यह है कि जब तू डाकू नहीं था, तब तूने एक अपराध किया, जिसका प्रायश्चित नहीं किया।”
“मैं प्रायश्चित क्यूँ करूँ? जब इतने लोगों को मार दिया। जहाँ तक कि मेरे गैंग के लोगों ने तो बलात्कार किए, काफ़ी निर्दोषों को बहुत वीभत्स ढंग से तड़पाया, और फिर उनकी निर्मम हत्याएँ कीं। लेकिन मुझे उसका पछतावा नहीं हुआ। तो उस बात का पछतावा क्यूँ करूँ”
“तुझे वह प्रेम करता था। तेरा भाई था वह, वह चाहता था कि जिस संपत्ति के लालच में उसके बाप ने तेरे भाई को मरवाया, वह तुझे न मारे। पर तूने उसके बाप को तो मारा ही, उसे भी मार दिया।”
रामबाबू जैसे कुछ वक़्त के लिए पश्चाताप में अचेतन-सा हो गया और हाथ जोड़ कर बोला, “आप क्या चाहते हैं?”
बीड़ी दे तो बताऊँगा, नीत्शे ने निःसंकोच कहा।
रामबाबू ने दो बीड़ी जलाई और एक नीत्शे को दे दी।
“उसके घर जा और उसके बच्चे जो आज मज़दूरी कर रहे हैं, उनको उनके हिस्से का पैसा दे और उसकी बीवी से माफ़ी माँग”, नीत्शे ने बेबाकी से कहा।
रामबाबू सोच में पड़ गया। फिर थोड़ा होश में आकर बोला, “मैं डाकू हूँ, खूँखार डाकू। मेरे नाम से लोगों की रूहें काँप जाती हैं और तुम कहते हो कि मैं किसी से माफ़ी माँगू?
मेरे बारे में कुछ बातें किसी से पता करवाकर, मुझे बरग़लाने की साज़िश कर रहा है तो ख़बरदार हो जा, एक-एक को उड़ा डालूँगा”, रामबाबू जवाब में बोला।
नीत्शे ने बीड़ी को फेंकते हुए कहा। “सुबह होने वाली है, हनुमान जी दर्शन कर लो अच्छे से। और जो लूटना है लूट के निकल जाओ। दो बीड़ी दोगे तो एक राज़ की बात भी बताऊँगा”
रामबाबू को यह पूरी बातचीत ही पल्ले नहीं पड़ रही थी। आख़िर यह लड़का कौन है, चाहता क्या है? क्या कोई ज्ञानी महात्मा है? क्या कोई प्रकांड पंडित है? कौन है यह?
रामबाबू ने दो बीड़ी उसको बंडल से निकाल कर दे दीं। नीत्शे ने उसको हँसते हुए बताया “देखो, धाकड़ साहब ने पिछले चुनाव में 50 लाख ख़र्चा किया, तो समझ सकते हो कितना पैसा होगा इनपर और रही बात तुम्हारे बाक़ी बंदी, कुल मिलाकर एक करोड़ तक गाड़ी पहुँच जाएगी। मेरे पिताजी पर भी, कुछ पाँच-दस लाख की संपत्ति है, कुछ एक-दो लाख मंदिर में ही रखे हैं। सब ले लो।...”
“…और सुनो, लूट कर जंगल के रास्ते मत जाना। पुलिस होगी वहाँ। मुख्य सड़क से जाना।”, और वहाँ से चलता बना।
पिताजी और बाक़ी गाँववालों का ग़ुस्सा सर-आँखों पर था। आख़िर नीत्शे ऐसा कैसे कर सकता है, सारे गाँव को ख़तरे में डाल के निकल गया।
रामबाबू भी पूरा आग बबूला था, गाँववालों की इतनी हिम्मत कि पुलिस तैनात करा दी। अब गाँव का हर आदमी हार मान चुका था। सबने कहा कि आप जो चाहें ले जाएँ।
डाकुओं ने लूट शुरू कर दी। और सुबह उजाले होने से पहले सारा माल जमा कर लिया। तब तक बोहरे जी ने पूरे विधि-विधान से हनुमान जी की पूजा करवाई। जैसे ही जाने को हुए तो नींद में चलता नीत्शे आया। डाकू भाई एक बीड़ी पिलाओ यार।
इस बार रामबाबू बहुत ग़ुस्से में आ गया और दो झापड़ मारे और बंदूक़ तानते हुए बोला, “अगर तू बच्चा नहीं होता तो यहीं ट्रिगर दबा देता। वह तो तेरा बाप पुजारी है, वरना इतनी कुटाई करता की ज़िंदगी भर याद रखता।”
पिताजी को भी इस बात से उस पर रहम नहीं आया। नीत्शे ने उठकर बोला, “डाकू साहब। आज का दिन नहीं है आपका। बचके रहिएगा।”
डाकू के जाते ही नीत्शे की कुटाई का कार्यक्रम शुरू हो गया। जिसके हाथ जो लगा उससे मारा। बहुत धुनाई हुई, एकदम लाल हो गया। नीत्शे बस बेचारा रोए जाए। बहुत रोया।
गाँव वालों के पीट लेने के बाद, पिताजी ने नीत्शे को उठाया और घर की ओर लेके चलने लगे। नीत्शे ने रोते हुए कहा, “जो तुम मुझे आज मार रहे हो कल माफ़ी माँगते हुए आओगे” इस बात पर अब पिताजी को ग़ुस्सा आ गया और एक थप्पड़ और जड़ दिया और बोले, “रस्सी टूट गई पर बल नहीं गया”
सुबह सब अपने काम में व्यस्त थे और नीत्शे अपने चिर-परिचित अंदाज़ में घर से बाहर। लेकिन आज उसको पूछने वाला कोई नहीं था। वह चुपचाप मंदिर में जाकर सो गया।
“रामबाबू की हुई मुठभेड़ में मौत”, इस हेडलाइन से ख़बर छपी। और शम्भु अख़बार लेकर हरिया काका की दुकान पर आया और बोला आपने ख़बर पढ़ी, सरकार हमारे गाँव पिपरिया खुर्द को सम्मानित करेगा और लूट का सारा सामान लोगों को वापस दिया जाएगा। और जो 15 लाख के इनाम की राशि है, वह छोटे बच्चे नीत्शे को दी जाएगी”
सब भौंचक थे। ऐसा कैसे हो गया। नीत्शे ने तो सारा काम बिगाड़ा, वह कैसे हीरो हो गया। इस बार पूरे गाँव में चर्चा हो रही थी, लेकिन नीत्शे गायब था। सब वही सोच रहे थे कि ढूँढने निकला होगा बीड़ी और कुछ खाने का सामान।
शाम में डीएसपी आए और बोले, “भाई नीत्शे कौन है? बड़ा अजीब बच्चा है। उसने टिप दी थी कि रामबाबू जंगल के रास्ते ही आएगा। मैंने कहा, वह कोई और रास्ते से भी तो निकल सकता है, तो बोलता है—वह जंगल के रास्ते ही जाएगा। क्योंकि उसको मैंने बोला है” और हँसने लगे।
पाँच-दस लड़के नीत्शे को कहीं से पकड़कर लेके आए। नीत्शे बस अपने कान पर हाथ रखे हुए था। डीएसपी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और उसको शाबाशी दी। नीत्शे कुछ नींद में था। उसने भाव नहीं दिया। जब वह जाने लगे। तो पूछता है, “सिगरेट पीते हो”
डीएसपी इस सवाल से भौंचक रह गया और बोला “नहीं! सिगरेट पीने से कैंसर होता है।”
नीत्शे ने उदास मन से कहा, “वह तो उस पर लिखा होता है, ऐसे तो मीठा खाने से भी शुगर होता है”
डीएसपी ने प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए नीत्शे को बोला, “तुम्हारी उम्र नहीं है यह सब करने की तुम पढ़ाई करो”
“तुमने किसी मासूम को मार दिया है, तुम्हारे पुलिस प्रशासन को उसको मारने की इतनी जल्दी थी कि तुमने देखा ही नहीं किसको मारा गया”, नीत्शे बोला।
डीएसपी के तो जैसे होश उड़ गए, “बच्चे हो बच्चे रहो। हमने उसके गिरोह के सात लोगों को मारा है, और तुम ही ने तो टिप दी थी कि वो जंगलों के रास्ते आएगा। ऐसी बर्गलाने वाली बातें मत करो।”
नीत्शे पास के चबूतरे पर बैठ गया और बोला, “सर वह कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं है, वह गाँव से निकला ही नहीं था और उसको पहचानता कौन है? पुलिस इनाम के लिए किसी भी दाढ़ी वाले इंसान को रामबाबू मान सकती है।”
डीएसपी बोला, “तो कहाँ है वह”
नीत्शे बोला, “वह आया था आज दुपहर, डर तो उसे लग रहा था क्यूँकी उसके गिरोह के सात साथी मारे गए। लेकिन जब उसको मैंने बताया कि पुलिस ने उसको मरा मान लिया है तो वह हँसने लगा और फिर हम ख़ूब नाचे और पूरा बंडल बीड़ी पी गए”
डीएसपी जोर से हँसने लगा, “यह बच्चा एकदम पागल है”
“अगर यह बात सच हुई तो मैं तुझे ख़ुद बीड़ी पिलाऊँगा” और वहाँ से चल दिया।
डीएसपी के जाने के बाद शंभू आया और बोलने लगा कि लूट का सामान उसके गैत में है और गाँव वालों ने नीत्शे को कंधे पर बिठा लिया और जश्न मनाने लगे।
गाँव का माहौल बहुत ख़ुशनुमा था।
जब नीत्शे घर आया तो कढ़ी बनी हुई थी। माँ ने नीत्शे को आते ही सीने से लगा लिया और बोली, “बहुत मारा है मेरे लाल को” और ले जाकर नीत्शे को रोटी और कढ़ी खिलाने लगी।
आज घर में पहली बार पिताजी के अलावा किसी और के लिए सब्जी बनी थी। नीत्शे ने खाना खाया, और अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बीड़ी जलाने लगा।
वह इस बार घर में ही बीड़ी पी रहा था। माँ ने उससे कुछ नहीं कहा बस उसकी ओर देखे जा रही थी। नीत्शे ने भी अपनी माँ को देखा और एक कश लेके बीड़ी फेंक दी। फिर बीड़ी का बंडल भी तोड़ कर फेंक दिया और जाकर माँ के गोद में सर रख कर सो गया।
“रामबाबू ज़िंदा है”, अगले दिन अख़बार में ख़बर छपी।
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