महान् दार्शनिक दीपक कलाल का 'मुआ' फ़िनोमिनन
मयंक जैन परिच्छा
14 जनवरी 2025
प्रत्येक देश-काल में कोई न कोई प्रसिद्ध दार्शनिक ज़रूर होता है, जो उस समय को चिह्नित करता है और साथ ही उस समय की युग-चेतना को दर्शाने वाला दर्शन प्रस्तुत करता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महान् दार्शनिक श्री श्री दीपक कलाल ऐसे दार्शनिकों की श्रेणी में शामिल हैं। वह युग-प्रवर्तक हैं। उन्होंने अपने कार्य-दर्शन से यह बताया है कि अगर आप अपना अस्तित्व दुनिया के सामने रखना चाहते हैं, तो किसी भी प्रकार की टुच्चई कर सकते हैं। इससे न केवल बाज़ार से गृहस्थी चलाने के लिए पर्याप्त आय के साधन प्राप्त हो सकते हैं, बल्कि लोगों का मनोरंजन भी किया जा सकता है।
दीपक कलाल का प्रमुख शब्द-पद—‘मुझे टाटा करो’ और ‘मुआ’ अपने भीतर गहन अंतर्दृष्टि समेटे हुए हैं। ये शब्द-पद देकार्त के प्रसिद्ध कथन—‘आई थिंक, देयरफ़ोर आय एम’ को भी पीछे छोड़ देते हैं। ‘मुझे टाटा करो’ और ‘मुआ’ जैसे आह्वान एक क़िस्म की झिड़की और घिन पैदा करते हैं, लेकिन इन्हें बार-बार देखने से एक नशीली आदत-सी बन जाती है। इस दर्शन को वास्तव में बंबइया धरती की कुनबैया कह सकते हैं, जहाँ मनोरंजन-क्षेत्र से जुड़े लोग काम की तलाश में सब संभव प्रयास करते हैं और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्षरत रहते हैं।
कुछ लोग ख़बरों में या नज़रों में बने रहने के लिए कुछ भी करते रहते हैं; जैसे अजीब-ओ-ग़रीब कपड़े पहनना, अफ़वाहें उड़वाना आदि-आदि। ये क्षेत्र विशेष को नीचा दिखाने के लिए नहीं, बल्कि बंबइया धरती पर इस फ़िनोमिनन के हमेशा होने की बात पर आधारित कथन है। इस दर्शन पर आधारित एक प्रसिद्ध शो ‘बिग बॉस’ एक तरह के ‘सॉक्ररेटिक डायलॉग’ की ही एक अभिव्यक्ति है, जिसमें भारत के महान् दार्शनिक (अलग-अलग क़िस्म की टुच्चई में माहिर) आते हैं और अपनी ज्ञान-गंगा से सबको विभोर कर देते हैं।
राखी सावंत को इस दर्शन की प्रमुख प्रणेता माना गया है, लेकिन दीपक कलाल से लेकर पुनीत सुपरस्टार जैसी तमाम शख़्सियतों ने इस दर्शन को एक बिल्कुल नई ऊर्जा दी है। पुनीत ने तो मानव-मल तक खा सकने का अद्भुत जज़्बा दिखाया। इसको ‘मुआ’ फ़िनोमिनन कहना सही रहेगा, जिसका अर्थ है—ऐसी कोई हरकत करना जिसका कोई तर्क नहीं; जो देखने वालों में घिन और हास्य दोनों पैदा करे तथा उन्हें मजबूर करे कि जिसके वे साक्षी बने, उसे औरों के साथ भी साझा करें। ‘मुआ’ शब्द से इस दर्शन को परिभाषित करने का कोई तार्किक कारण मेरे पास नहीं है, क्योंकि तर्कसंगत बातचीत आपको बहुत बीमार और ग़रीब कर सकती है। वैसे भी पाकिस्तानी व्यंग्यकार मोईन अख़्तर कह गए हैं, ‘‘हमारा मर्ज़ी, हम नहीं जीतेगा...’’ वैसे ही, ‘‘हमारा मर्ज़ी, हम इसको ‘मुआ’ फ़िनोमिनन बोलेगा।’’
आज हर वह व्यक्ति जो मनोरंजन के संसार में काम करना चाहता है, उसे अपने अस्तित्व को समाज के समक्ष बनाए रखना होगा। ये बात मनोरंजन के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि आम ज़िंदगी में भी है—आप गॉसिप नहीं करते; बकलोली में मज़ा नहीं आता, आपको अनुपयोगी मान लिया जाएगा। आप अप्रासंगिक हो जाएँगे।
अप्रासंगिक हो जाने के डर के विषय में युवाल नोआ हरारी ने भी चर्चा की है, जो हमारे दौर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। आज हर व्यक्ति हर माध्यम में ऊल-जलूल हरकतों के कारण ख़बरों में बने रहना चाहता है।
दीपक कलाल का यह ‘मुआ’ फ़िनोमिनन अभी हाल ही में देखा गया, जब एक प्रोफ़ेसर अनामदास पीपी ने कह दिया कि गुरुत्वाकर्षण बल की सैद्धांतिक परिपाटी उनके दिमाग़ की उपज रही। वह आगे कहते हैं, ‘‘न्यूटन नाम का कोई ऐतिहासिक चरित्र इस धरती पर कभी हुआ ही नहीं।’’ दुख की बात यह है कि उनकी इस बात पर मात्र कुछ हज़ार लाइक और कुछ सैकड़ा शेयर आए हैं। इस मामले में वह दीपक कलाल के अनुयायी होते हुए भी उतनी पहचान नहीं बना पाएँगे, जितनी इस तरह के बाक़ी दार्शनिक बना ले रहे हैं। उनको ‘बिग बॉस’ जैसे शो में तब तक नहीं बुलाया जाएगा; जब तक वह एक दो-बार कहीं पिट-पिटा न जाएँ, या फिर ऐसा कुछ न कर दें... जैसा एक नफ़रती चिंटू पत्रकार-एंकर ने किया—दारू पीकर न्यूज़ पढ़ दी।
आख़िर ऐसे ही तो फ़ेमस हुआ जाता है।
अगर आप प्रोफ़ेसर अनामदास को जानते हैं तो आपको थोड़ी उकताहट हो सकती है कि जिन प्रोफ़ेसर साहब की बात यहाँ हो रही है, वह कोई और हैं और उन्होंने कुछ और कहा है। अगर मैं यह व्यंग्य भी लिख रहा हूँ तो उनके नाम को बताए बिना क्यों लिख रहा हूँ? क्या औचित्य है इसका? ये तो व्यंग्य-विधा में बहुत सेफ़ प्ले है।
दरअस्ल, बात यह है कि मेरी बात कोई अर्थ ही नहीं बना रही। यही तो बात है। अगर आपको इस लेख में कुछ भी एब्सर्ड नहीं लगता और यह एक साधारण-सा व्यंग्यात्मक लेख लगता है; तो मैं महान् दार्शनिक दीपक कलाल का बहुत ही निहायती उल्लू और बिगड़ैल क़िस्म का विद्यार्थी हूँ, क्योंकि लॉजिक की वीभत्स हत्या से उपजा यह ‘मुआ’ फ़िनोमिनन आपको तुरंत समाचार में ले आएगा। यह लेख भी ‘मुआ’ फ़िनोमिनन की परिधि पर घूमते-घूमते प्रस्फुटित हुआ है। दस गाली, दो ताली... और आप हिट।
एक लेखक के तौर पर मैं भी कह सकता हूँ कि मैं प्रेमचंद का दूसरा जन्म हूँ और इस जन्म से पहले मैंने ब्रिटेन में शेक्सपियर के रूप में जन्म लिया और अँग्रेज़ी साहित्य का युग-प्रवर्तक बन गया। मैं साहित्य का शक्तिमान, महान् कुल्लीमान—‘टुचुक-टुचुक’। मैंने ही मार्सेल प्रूस्त को लिखना सिखाया, मैंने ही हर काल का साहित्य जना है, मैं ही हूँ अद्भुत, अदम्य साहस की परिभाषा, मैं हूँ थ्री फ़ॉर जा ट्वेंटी फ़ोर।
बुडूम-बुडूम...
प्रोफ़ेसर अनामदास पीपी ही असली न्यूटन हैं! इसे सिद्ध भी किया जा सकता है। पर इसे सिद्ध करने की न तो ज़रूरत है, न ही प्रोफ़ेसर साहब की इच्छा। यह ज़रूर है कि इंटरनेट की आवारा भीड़ और ट्रेंडिंग-डेस्क के जुझारू पत्रकार इसे सिद्ध-असिद्ध करने की थकेली कोशिश करते रहेंगे। लेकिन व्यूज़ फिर भी नहीं आएँगे, और वे बॉस की गालियाँ खाएँगे ही खाएँगे।
इस बीच प्रोफ़ेसर अनामदास मल भी खा सकते हैं, पिट भी सकते हैं, वीडियो में रो भी सकते हैं और कोई भी भौचक टुच्चई कर सकते हैं। ये सब ‘मुआ’ फ़िनोमिनन को चरितार्थ करता है।
‘मुआ’ फ़िनोमिनन भिन्नता और वीभत्स रस के संचारी भाव जुगुप्सा का ट्रेंड फूफा है। यहाँ आपको भिन्न रहना है और समाचार में बने रहना है। इससे कोई मतलब नहीं है कि आप कौन हैं, क्या करते हैं, कैसे हैं! सब टुच्चई है—चाहे गा लो—“गो कोरोना गो...”, चाहे बक लो गाली, लड़ लो, करवा लो अपने ऊपर पाँच-दस एफ़आईआर—सब ‘मुआ’ है।
यह सब क्यों है! क्योंकि प्रोफ़ेसर अनामदास ‘मुआ’ फ़िनोमिनन के प्रैक्टिसनर के रूप में जानते हैं कि अकादमिया में उनसे कुछ उखड़ा नहीं, मीडिया में उनको किसी ने भाव नहीं दिया। कुछ फ़ेमस ज़रूर हुए, तो भूख बढ़ गई। तो क्या करें? लंपटगीरी करने में क्या नुक़सान है? सब कर रहे हैं! मैं भी कर ही लेता हूँ!
लंपटगीरी से होगा यह कि ऐतिहासिक शख़्सियत बन जाने की परम संभावनाएँ रहेंगी और जब आप बूढ़े हो चुके हों, आपने अपना जीवन जी लिया हो, तब आप कुछ धूल में लट्ठ मार भी लोगे... तो इससे कुछ लोग तो कम से कम आप पर विश्वास करेंगे ही। ‘मुआ’ फ़िनोमिनन की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि आप दुनिया को यह कहेंगे कि आप जो हरकत कर रहे हैं, वह बस केवल एक एक्ट है, वास्तव में आप अलग हैं; तो लोग ये समझेंगे कि आप मज़ाक़ कर रहे हैं, भले ही आप घोर गंभीर क्यों न हों! ‘मुआ’ फ़िनोमिनन की इस संकल्पना को ‘दीदी डर गई, दीदी डर गई’ कहा जाता है। इसके अपने कई डाइनेमिक्स हैं, जिन पर कभी और बात की जाएगी।
इस सबके कारण ही आज दीपक कलाल युग-प्रवर्तक हैं। अभी हाल ही में वह चर्चाओं में रहे कि वह अपनी निजी ज़िंदगी में बहुत ही गंभीर क़िस्म के व्यक्तित्व हैं और वह जो ऑनलाइन करते हैं, वह एक चरित्र है। प्रोफ़ेसर अनामदास भी ऐसा ही कर सकते हैं, क्योंकि पहले वह ट्विटर (अब X) पर काफ़ी चर्चाएँ किया करते थे; तब उनको कोई भी लपेटकर चला जाता, अब नहीं करते। इसका परिणाम यह हुआ कि वह निरंतर प्रसिद्ध होते चले गए और उनकी बकवास पेलने की शक्तियाँ अद्भुत रूप से बढ़ गईं।
प्रोफ़ेसर अनामदास अब इस चरित्र की आड़ में कुछ भी बक सकते हैं। जैसे हनुमानकाइंड का निजी रैपर प्रोफ़ेसर अनामदास हैं या ‘ब्राउन रंग’ के असली लेखक अनामदास ही तो हैं। ‘एम्पटीनेस’ के रोहन राठौर नाम के व्यक्ति की खोज अनामदास ने ही की। अगर कोई फ़ैक्ट चेक करता है और पकड़कर पेल देता है तो कहा ही जा सकता है, ‘‘मैं एक विवादास्पद चरित्र खेल रहा था, क्या आप मुझे असली समझ बैठे? मूर्ख!’’
दीपक कलाल से पहले भी ‘मुआ’ फ़िनोमिनन के कुछ प्रैक्टिसनर रहे हैं; जैसे ‘बिग बॉस’ के अनगिनत चरित्र, लेकिन दीपक कलाल ने इसे आम जन तक पहुँचाया है। आज गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला, नगर-नगर होड़ लगी हुई है—‘मुआ’-दर्शन का अनुयायी बनने की।
यह एक क़िस्म की क्रांति है। अब नई मानव-चेतना का जन्म हुआ है। इतिहास दीपक कलाल को याद रखेगा। याद रखेगा कि नहीं...?
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