'जैसी हर एक दिल में है इस ईद की ख़ुशी'
तसनीफ़ हैदर
11 अप्रैल 2024

छतों पर ठट का ठट जमा है, शाम हल्की शफ़क़ में डूबी आसमान पर लहरों के साथ किसी बच्चे की तरह अटखेलियाँ करती मुस्कुरा रही है। अभी सूरज डूबने में वक़्त है, मगर टोपियाँ, दुपट्टे नुमूदार हो रहे हैं। आख़िरी इफ़्तार में समय है, अस्र की नमाज़ के बाद भूख ने चेहरों की रौनक़ को मामूली-सी ठेस तो पहुँचाई है; मगर कल के दिन की आमद का एहसास अपनी दोनों बग़लों में जादू की पोटलियाँ दबाए इधर से उधर टहल रहा है। यह लोगों को तसल्लियाँ दे रहा है। उनके कंधे थपथपा रहा है। सब उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहे हैं। सब जानते हैं कि इधर मग़रिब के लिए मोअज़्ज़िन ने खजूर मुँह में डाली और उधर इस एहसास ने अपना रास्ता नापा।
‘‘क्यों भाई? चाँद हो जाएगा आज?’’
‘‘अरे तो क्या तीस का भी नहीं होगा? कैसी हवन्नक़ों-सी (मूर्खों-सी) बातें करते हो?’’
आसमान ने अँगड़ाई लेते हुए अपनी कमर से लिपटी लाली को उठाकर रोज़ की तरह बटवे में खोंसा और उसमें से गहरी नीली चमक को दाएँ-बाएँ फैला दिया। सूरज की आँखें अंगारे की तरह दमक रही हैं, समुंदर पर उसका वजूद किसी मस्नूई (बनावटी) गुलाब की तरह, गहरे से और गहरा होता जा रहा है और इधर से एक आवाज़ उभरती है।
‘‘वो देखो, देखो उस तरफ़... हाँ... वहीं... अरे यार... तुम्हें दिखाई नहीं देता? इतना साफ़ दिख रहा है।’’
‘‘हैं अल्लाह... ये कुछ मोटा-सा नहीं लग रहा? कहीं एक दिन का बासी चाँद तो नहीं है?’’
मस्जिद की मीनारों ने अल्लाहु-अकबर की लहरों को चारों तरफ़ फैला दिया। सबने एक-एक करके तसल्ली से चाँद देखा। चाँद ने सभी की आँखें ठंडी कीं, नीला रंग, ज़्यादा गहरा होकर हल्का स्याह हो गया। अब्बा ने इक्कीसवें को छोड़कर एक दिन का भी रोज़ा नहीं रखा। मगर इस वक़्त उन्हें देखिए तो एक मुस्तक़िल रोज़ेदार की तरह दुपल्ली टोपी पहने, सफ़ेद कुर्ते-पजामे को धारण किए कैसे हाथ उठाए मुँह ही मुँह में बुदबुदा रहे हैं। आयतें, दुआएँ, पता नहीं क्या-क्या, अम्मी चाँद को देखकर हज़ारों तरह की दुआएँ माँग रही हैं, वही सलामती की बरसों पुरानी दुआएँ, जो हिंदुस्तानी औरतें अपने पतियों और बच्चों के लिए त्यौहारों पर माँगा करती हैं। वह साथ-साथ रोती भी जा रही हैं। उनका बना हुआ मुँह देखकर बच्चों की हँसी छूट रही है, मगर जानते हैं कि हँसे तो अब्बा से त्यौहार की शाम पिट जाएँगे, इसलिए चुपचाप मुँह में हँसी दबाए, पेट पकड़े वहाँ से नौ दो ग्यारह हो जाते हैं।
रात पड़ी तो लड़कियों की हँसी गूँजी, मेहँदियों की बू फैली, रिश्तेदारों की गोलमोल बातें घिर-घिर आईं। बच्चे एक दूसरे को सुबह पहनने वाला अपना लिबास दिखा रहे हैं, नया कुर्ता-पाजामा, नई शर्ट-पैंट, सैंडिलें, जूते... सब बग़ैर रश्क-ओ-हसद (जलन और प्रतिद्वंद्विता) के एक दूसरे की चीज़ों की तारीफ़ कर रहे हैं। बड़े भी उनके साथ बच्चे बनकर उनका दिल बड़ा कर रहे हैं।
‘‘अरे वाह! इस बार तो फ़लाँ की ही ईद है, क्या शानदार जूते हैं।’’
‘‘ये चमकती हुई पैंट कहाँ से ली भाई, इसमें तो कल तुमसे गोविंदा वाला डांस देखा जाएगा।’’
‘‘क्या ग़ज़ब की शर्ट है, हमें पहले दिखाई होती तो हम अपने लिए भी हूबहू ऐसी ही ना बनवा लेते?’’
रात को किसी ने चप्पलें हाथों में पहन ली हैं, किसी ने जूते सिरहाने रख लिए हैं, कोई अपना ‘राजा बाबू’ वाला नया सूट लिपटाए-लिपटाए सो गया है। सुबह से पहले, सुबह का तसव्वुर आँखों में मौजूद नींद के साथ खिलवाड़ कर रहा है। ख़ुद को नए कपड़ों में देखा जा रहा है। सभी जानते हैं कि कल को ये बच्चे जब कमाएँगे तो अपने लिए तरह तरह के कपड़े ख़रीदेंगे, दुनिया घूमेंगे, मगर अभी जिस चश्म-ए-तसव्वुर से ये ख़ुद को इन नए लिबासों में देख रहे हैं, ये एहसास तो फिर ढूँढ़े न मिलेगा। सच है, ईद बच्चों की है या बच्चे जैसों की है।
सुबह किसी ने ज़बरदस्ती उठाया। ‘‘नमाज़ को नहीं जाना? सब गए... तुम यूँ ही पड़े रहना।’’
नमाज़ के लिए नहाने-धोने के अमल से गुज़रने के बाद नया कुर्ता-पजामा पहना गया है। चूड़ीदार पजामा अम्मी ने मेहनत से पहनाया है। हल्के नीले, गहरे सब्ज़, काले और सफ़ेद कुर्ते पजामों की एक क़तार-सी मस्जिद की तरफ़ जा रही है। पेड़ों पर चिड़ियाएँ आज कुछ अलग ही ढंग से चहचहा रही हैं। बाहर रोज़ से कुछ दूसरा रंग-ढंग है। कोई तो बात है, जो सुबह सभी को एक साथ इतने उजले कपड़ों में देखकर, ऐसी ख़ुशबुओं में बसा पाकर थोड़ी हैरान और बहुत ख़ुश है।
दो जमातें होती हैं—नज़दीक की गोसिया मस्जिद में। अब्बा और दोनों चचा, फूफा वग़ैरा सब दूसरी जमात में ही जाते हैं। ख़ैर से नमाज़ पढ़ी गई, उफ़्फ़ ख़ुदा, ये दो रकअत नमाज़ इतनी लंबी क्यों लग रही है आज। ख़त्म ही नहीं होने में आती। अल्लाह-अल्लाह करके ख़त्म हुई तो अब इमाम साहब ने बे-ज़रूरत दुआओं की एक गठरी खोल दी है। दुनिया-जहान की दुआएँ, अमरीका से लेकर फ़लस्तीन तक के मुसलमानों के हक़ में, इंसानों के हक़ में। अरे भाई बस करो। हमें घर जाना है, शीर-ख़ुरमा खाना है, आँतें भूख से वैसे ही क़ुल हुवल्लाह पढ़ रही हैं। फिर कहीं जाकर इमाम साहिब रुके। वह चंदे की अपील करते रह गए और लोगों ने आपस में गले मिलना शुरू कर दिया।
तीन बार... एक-बार, दो बार और फिर तीसरी बार... चलो तुमसे मिल लिए, अब तुम आओ। इसके बाद तुम फिर तुम और आख़िर में अब्बा। अब्बा सिर्फ़ गले नहीं मिलते, वह कानों में कुछ पढ़कर फूँकते भी हैं। उनकी गर्म फूँक से कान में गुदगुदी होती है, मगर अच्छा भी लगता है।
चलिए भाई अब चलते हैं—क़ब्रिस्तान की तरफ़...
रास्ते में मंदिर पर नया पेंट हुआ है। बाहर एक बड़ा-सा बोर्ड लगा है—‘सभी मुस्लिम भाइयों को ईद की शुभकामनाएँ!’
क़ब्रिस्तान में लोग अपने माँ-बाप या दूसरे अज़ीज़ों, रिश्तेदारों की क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ रहे हैं। बच्चों की हालत देखने लायक़ है, चेहरे भूख से बिल्कुल उतर गए हैं। मगर उन्हें तसल्ली है कि यहाँ से अब सीधे घर ही जाना है। अब्बा के आँखें दिखाने पर वे भी अपने नन्हे-नन्हे हाथ कंधों तक उठाकर जल्दी-जल्दी क़ुल हुवल्लाह पढ़ने लगते हैं।
पत्तों की कचर-कचर लुत्फ़ दे रही है। अब वापसी का समाँ है और यहाँ भी अब्बा के बहुत से जानने वाले मिल गए हैं। फूफा भी अपने दोस्तों से मिल रहे हैं।
ख़ुदा-ख़ुदा करके घर लौटे तो शीर-ख़ुरमे की भूख भड़का देने वाली ख़ुशबू ने इस्तक़बाल किया। जैसे-तैसे हाथ-मुँह धोकर पड़ रहे। अम्मी ने नन्हे-नन्हे पियालों में शीर-ख़ुरमा दिया—मीठा और लज़ीज़। एक कटोरी से जी नहीं भरा, दूसरी माँगी गई, फिर तीसरी।
अब पेट भर चुका है, क्यों न कपड़े बदलकर बाज़ार की सैर करने निकला जाए।
बाज़ार जाने के लिए चमकीले-भड़कीले कपड़े पहने गए। चश्मा लगाया गया। घड़ी बाँधी गई। जूते पहने गए और आईने मैं ख़ुद को देर तक निहारते रहने के बाद बाहर आते ही हर बड़े के पास जा-जा कर उसे ज़बरदस्ती सलाम किया गया। सलाम के जवाब में मिली ईदी। करारे-करारे नोट—दस के, बीस के, पचास के और क़िस्मत बहुत अच्छी हुई तो किसी दरिया-दिल की तरफ़ से सौ का नोट भी मिल गया।
अब आँखों में ख़्वाबों की गहरी लकीर है, पैरों में बादलों वाली रूई के जूते, कमर में शहंशाहों की छोड़ी हुई तिजोरियाँ हैं और आँखों पर अमीरी का एक ख़ूबसूरत रंग-बिरंगा चश्मा, ये टोली निकली है। अब ये बाज़ार जाएगी, चाट खाएगी, खिलौने ख़रीदेगी, झूला झूलेगी, घूमेगी, दोस्तों से मिलेगी, इतराएगी और दुपहर तक थककर अपने या किसी रिश्तेदार के घर जाकर पड़ रहेगी—शाम को दुबारा बाज़ार की अच्छी-सी ख़बर लेने। और बड़े इन्हें देख-देखकर ख़ुश होंगे, निहारेंगे और अपने जीवन की गुज़री हुई ईदों को याद किया करेंगे।
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शीर्षक : नज़ीर अकबराबादी की एक कविता-पंक्ति
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