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बिंदुघाटी : गुदरिया गले में डारे भरथरी

• किंवदंतियों, जनश्रुतियों और विद्वानों के विवरणों में विशद उपस्थिति रखने वाले भर्तृहरि राजा थे या ऋषि! कवि थे या वैयाकरण! योगी थे या भोगजीवी सांसारिक... या फिर इन सबको समाहित किए पूरी भारतीय मनीषा में अनुस्यूत!

उन्हें शास्त्र-विधाता के रूप में भर्तृहरि कहा जाता है और लोक-गायन में उनकी कथा भरथरी नाम से गाई जाती है। उनकी व्याप्ति शास्त्र-अध्येताओं, अकादमिकों, योगियों और आम जनमानस में समान रूप से है।

• ‘कामिनी काय कांतारे’ [अंतिका प्रकाशन, संस्करण : 2012] वरिष्ठ कथाकार महेश कटारे द्वारा रचित दो भागों में राजा भर्तृहरि के जीवन और उनके समय पर आधृत एक अद्भुत महाआख्यान है। 

इस औपन्यासिक कृति के अध्यायों की शुरुआत प्रायः भर्तृहरि के ही किसी सुभाषित-मर्म के साथ होती है। उपन्यास का नाम—‘कामिनी काय कांतारे’ भर्तृहरि रचित ‘वैराग्य शतक’ के ही एक श्लोक का अंश है। 

सवाल है कि क्या यहाँ ‘भरथरी’ को पाया जा सकता है? 

अनगिन द्वैतों, युग्मों और संधियों में विचरने वाले भर्तृहरि को कहाँ पाया जा सकता है? पाँचवी सदी में! चीनी यात्री इत्सिंग के इंदराजों में, कालिदास के यहाँ छुपते-लुकते या बारहवीं सदी में! या इन सबके बीच... या फिर उसके भी बाद—अब तक! 

• भरथरी को गोरखपंथी योगी अपने संप्रदाय का बताते हैं। उनकी लोक-व्याप्ति भी इन्हीं जोगियों के गायन से बहुत अधिक हुई।

‘गुदरिया गले में डारे भरथरी...’ गाते हुए सारंगी-वादक जोगी पहले बहुत देखे जाते थे, अब उनकी उपस्थिति समाज में कम हुई है। 

जोगियों की सारंगी की धुन प्रायः एक रहस्यमय रुदन उत्पन्न करती थी। यह कहना ग़लत नहीं है कि भारतीय समाज  राग और विराग दोनों के प्रति घोर आकर्षण से भरा हुआ है। जो आकर्षित करता है, उससे भय भी व्यापता है। हमारे बचपन में लोगों के जोगियाने की चर्चाएँ ख़ूब होती थीं और प्रायः ये चर्चाएँ बिछोह की टीस से युक्त होती थीं, इनमें जोगी के किसी न किसी संबंधी का बहत्तर पाँत आँसू वाला रुदन भी होता था।

भरथरी की जीवन-कथा भी इन्हीं अनगिनत जोगियों की जीवन-कथाओं से जुड़ती-बढ़ती हुई तमाम रूपों और भंगिमाओं में सदियों से विकासशील है। 

• ‘कामिनी काय कांतारे’ के प्रथम भाग में राजा भर्तृहरि के समक्ष एक स्थिति हुई : ‘ओह! क्या काव्य का आत्मराग विराग की ओर बढ़ते भरथरी को लुभा रहा है?’ 

यहाँ अवधूत भेस में भी भरथरी अपने काव्य की महिमा दूसरे के मुख से सुनकर आह्लादित होते हैं, लेकिन फिर अगले ही क्षण वह काव्य के प्रयोजन और उसकी भंगुरता के विषय में सोचते हैं। 

अंततः वह फिर एक परिणामवाची प्रश्न पर रुकते हैं : ‘क्या कवि होना श्रेयस्कर है या राजा होना?’

• भर्तृहरि ने एक कवि और वैयाकरण के रूप में जिन अनेक ग्रंथों की रचना की, उनमें ‘वाक्यपदीयम्’ और त्रय-शतक—साहित्य के आकाश में नक्षत्र की तरह हैं। ‘वाक्यपदीयम्’ यानी शब्द और व्याकरण की स्थिति पर शोधक को दृष्टि देने वाला ग्रंथ। त्रय-शतक यानी नीति, शृंगार एवं वैराग्य संबंधी तीन संस्कृत कविता-संग्रह।

• सारे अनुभव अर्थ हैं, और उन्हें व्यक्त करने वाला है—शब्द... यानी सारा जगत्-व्यवहार बिना शब्द के नहीं हो सकता; क्योंकि जो व्यक्त नहीं है, वह है कैसे? फिर इस शब्द की सत्ता क्या है! रूप-रंग-नाम-ध्वनि कैसे इससे संयुति पाते हैं! 

भर्तृहरि ने जब त्रय शतक के नीति और शृंगार शतक रचे होंगे, तब वह ‘वाक्यपदीयम्’ की ओर बढ़े होंगे। जगत के मूल और विस्तार को जानने की तड़प से उन्होंने जगत्-व्यवहार को शब्द व व्याकरण में ही लीयमान जाना। इसके बाद ही उन्होंने ‘वैराग्य शतक’ रचा होगा।  

‘कामिनी काय कांतारे’ में एक जगह वह कह उठते हैं, ‘‘मुझे लगता है कि ‘राज’ से बहुत बड़ा है शब्द।’’

• विरोधों की तीव्र-संयुत-धार पर कवि अमर बिंदुओं की खोज करता है। 

भर्तृहरि का जीवन भी सब कुछ के साथ या सब कुछ के परे एक समूचे कवि-व्यक्तित्व से ओत-प्रोत रहा। वह भोग की तीव्र आँच पर तपते हुए महसूस करते हैं—‘भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता...’

वह काम की सर्जना-शक्ति में लीन होते हैं। इसके ही समांतर उनकी अवस्थाएँ शब्द-तत्त्व की प्राप्ति में विलीन होती जाती हैं। 

• भर्तृहरि कहते हैं कि शब्द-तत्त्व एक ही है। इसके अतिरिक्त शेष सारे जो जगत्-व्यवहार हैं, वे उसी शब्द-तत्त्व के विवर्त हैं। विवर्त यानी जो आस-पास उपस्थित है, भिन्न-भिन्न रूपों में दिख रहा है। इसका अर्थ है कि समूचा अर्थजगत् ही विवर्त है। 

‘एकमेव यदाम्नातं भिन्नं शक्तिव्यपाश्रयात्...’

हमारे जीवन के भी सारे अर्थ, हमारी व्याख्याओं में उपस्थित हैं। व्याख्याएँ आधारवाक्यों को जन्म देते हुए एक शृंखला में विकसित हो सकती हैं। इसीलिए यह स्मरण ज़रूरी है कि हमारे आस-पास जो विद्यमान अर्थ हैं, उनका मूल क्या है! यह स्मरण ही जीवन को संतुलन देगा। 

• छह वेदांगों में एक व्याकरण भी है। भर्तृहरि का शब्द-चिंतन उन्हें अर्थ की ओर ले जाता है। शब्द के अर्थ बनने में बहुत सी बातें बीच में आ जाती हैं। इससे ही व्यजंना फूटती है। कर्त्ता या द्रष्टा उपस्थित होता है।

फिर भी अर्थ भले ही अनेक प्रवृत्तियाँ धारण करे, वह कभी शब्द-तत्त्व से दूर नहीं हो सकता है। इसकी सम्यक् व्यवस्था ही व्याकरण है—‘तत्त्वावबोधः शब्दानां नास्ति व्याकरणादृते...’

• यह कोई शुद्धतावादी आग्रह नहीं है कि भाषा का व्यवहार शुद्ध होना चाहिए। शब्द या उसकी किसी व्यंजना का दोषपूर्ण ‘प्रचलन’ अगर बहुत व्यापक हो गया है; तो उसे भी कोशों में जगह दी जाती है, देनी भी चाहिए... क्योंकि अंततः सब कुछ संसार से ही उपजा है। फिर भी भर्तृहरि ने व्याकरण को वाणी के दोषों की चिकित्सा बताया है—‘वांग्मलानां चिकित्सकं...’

• आधुनिक अकादमिक ज्ञान और उसके समस्त औपचारिक प्रपंच, समाज के समस्त व्यवहृत ज्ञान को प्रायः कमतर समझते हैं। वहाँ मानव-व्यवहार की हरेक अच्छाई के लिए किसी संदर्भ [reference] की आवश्यकता पड़ती है।

इलाहाबाद में प्रायः कुछ ‘सज्जन’ सामान्य वार्तालापों में भी टोक देते थे कि फ़लाँ ‘असंसदीय’ भाषा बोल रहे हैं। सामान्य वार्तालापों का मामला भी अब ‘असंवैधानिक’ आदि तक पहुँचने ही वाला है। 

भर्तृहरि कहते हैं कि प्यासे को पानी पिलाना, सदाचार करना और कुछ ऐसे ही अच्छे-बुरे विचार के लिए मनुष्य शास्त्र पढ़ने नहीं दौड़ पड़ता है। ये बातें उसे लोक-परंपरा से भी मिल ही जाती हैं—‘इदं पुण्यमिदं पापमित्येतस्मिन पदद्वये...’

• ‘अज्ञ: सुखमाराध्य: सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञ:’ 

ऐसा बहुत कुछ प्रचलन में है; जिन्हें हम नहीं जानते होंगे कि वे भर्तृहरि के ही नीतिवचन हैं; जैसे कि उपरोक्त ही। 

यह समय सोशल मीडियाई अल्पज्ञानियों से घिरा हुआ है। उनके लिए संभवतः उन्हीं के लिए कहा गया है कि अज्ञानी और विशेषज्ञ के जीवन में फिर भी सुख और सौजन्य है, लेकिन अल्पज्ञ का जीवन ही आगे न बढ़ने की अहंमन्यता से घिर गया है।  उनका क्या होगा, सिवाय डेढ़-दो सौ बधाइयाँ समय-समय पर पाते-पाते फ़ेसबुक पर ही एक दिन डेढ़-दो सौ श्रद्धांजलियाँ पाने के!

• वे वियोग में हैं और ढेर सारे ताम-झाम कर रहे हैं। वे वियोग में हैं और सौंदर्य और शृंगार उन्हें जला नहीं रहा। वे वियोग में हैं और अपने लिए ‘कोई’ संयोग ढूँढ़ रहे हैं। यक़ीन मानिए, उनकी यह अवस्था वियोग की नहीं है। यह ऊब है, उदासी है, जीवन में कोई गणना कमज़ोर हो जाने से उपजा तनाव है। लेकिन यह वियोग नहीं है। 

भर्तृहरि की कृष्णाभिसारिका नायिका को शीतल मधुर चाँदनी भी शूल जैसी चुभती है, उससे प्रियतम का विरह नहीं सहा जाता है—‘निवारयन्ती शशिनो मयूखान्...’

• संसार फ़िल्टर में दिख रहा है। प्रायः किसी भी उम्र के मनुष्य में आयु को लेकर न तो स्वीकार है और न ही गरिमा रह गई है। ध्यान दीजिए, नियम-अनुशासन नहीं—स्वीकार और गरिमा। जो अधेड़ हो रहे हैं; वे कैशोर्य के आकर्षण में दबकर तोतले हो गए हैं और जो बुढ़ा गए हैं, वे ‘दिल तो बच्चा है जी’ से काम बनाने को आतुर हैं। 

‘गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते...’

यहाँ भर्तृहरि आशय रखते हैं कि मनुष्य-शरीर संकुचन-शिथिलन-विरंजन से गुज़र रहा होता है, लेकिन उसकी तृष्णा तरुण हो रही होती है।

• भर्तृहरि सावधान करते हैं कि दुष्टों की मैत्री दिन के पूर्वार्द्ध की छाया सरीखी होती है, शुरू में लंबी-चौड़ी; फिर क्रमशः घटकर शून्य, जबकि सज्जनों की मैत्री मध्याह्न के बाद की छाया सरीखी होती है; पहले थोड़ी, फिर धीरे-धीरे विस्तारमय... 

‘दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खल सज्जनाम्!’

देखिए भला! आपके इतनी जल्दी इतने अधिक मित्र बने हैं कि सूची भर गई है। 

• राजा भरथरी के बारे में यह भी कहा जाता है कि वह कई-कई बार जोगी हुए और फिर-फिर संसार में लौटे। संभवतः इसीलिए संसार से भागे हुए जोगियों पर भी उन्होंने कुछ ऐसा कटाक्ष किया है : ‘ये मूढ़ा प्रविहाय यान्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषिण:’ 

अर्थात् : जो मूढ़-कुबुद्धि पुरुष—स्त्री को छोड़—स्वर्गादि की इच्छा से निकल भागते हैं, उन्हें विरक्त के वेष में न समझो, वरन् कामदेव ने दया का त्याग करते हुए दंड देकर उनमें से किसी को नंगा किया, किसी का सिर मुंडवाया, किन्हीं के पाँच चोटियाँ कीं, किसी को जटा रखवाई, किसी के हाथ में भिक्षा-पात्र देकर भीख मँगवाई।

• साहित्य की समकालीनता इतिकर्त्तव्यता से शिकस्त, अपने कामचलाऊपन से ही सुस्थिर है। आपके पास विषय-सूची है और उन पर आधृत निगमन, जिन्हें आप रचना कहते हैं और टिके रहते हैं। शाश्वत प्रश्नों से आपको न विचार मिले और न ही विचारों के प्रस्थान-बिंदु और न ही जीवन के बड़े प्रस्थान। 

‘तलाश’ आपके लिए नहीं है, ‘साधना’ आपकी कनिष्ठ उँगली से भी न छुई गई। हल्केपन को सरलता और  सतहबयानी को सहज अभिव्यक्ति कहना ही समय का उद्घोष है।

ऐसे में बिंदुघाटीकार का आग्रह है कि ‘इतिकर्त्तव्यता’ के आशय खोजिए, मनुष्य होने के नाते सहज ही मिल गई शब्द-भावना को और विकसित कीजिए। भर्तृहरि कहते हैं : 

‘आलस्य बड़ा शत्रु है।’

•••

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