रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ और दूसरे प्रसंग
अविनाश मिश्र 01 जून 2024
‘‘महानतम कृत्य अपनी चमक खो देते हैं, अगर उन्हें शब्दों में न बाँधा जाए। क्या तुम स्वयं को ऐसा उद्यम करने के योग्य समझते हो, जो हम दोनों को अमर बना दे।’’ संसारप्रसिद्ध कहानीकार होर्हे लुई बोर्हेस की इन पंक्तियों का आधार लेकर अगर 1982 में आई और आठ एकेडमी अवार्ड जीतने वाली रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी’ पर कुछ कहना हो तब कहा जा सकता है कि इस फ़िल्म ने न सिर्फ़ रिचर्ड एटनबरो को महान बनाया, बल्कि गांधी का किरदार निभाने वाले बेन किंग्सले को भी सिने-इतिहास में अमर कर दिया।
मोहनदास करमचंद गांधी के महानतम कृत्यों को रिचर्ड एटनबरो ने 'गांधी' में एक विराट दृश्य-विधान में बाँधा है। इस फ़िल्म में बेन किंग्सले ने गांधी की महानता को ही नहीं उनकी कमज़ोरियों को भी जीवंत दृश्यात्मकता दी है। यह फ़िल्म इस अर्थ में एक क्लासिक फ़िल्म है, क्योंकि यह सच्चे अर्थों में गांधी की महात्मा बनने की प्रक्रिया को एक क्रम में उजागर करती है। हॉलीवुड की प्रचलित शैली से अलग जाकर एटनबरो समयावधि के हिसाब से एक लंबी फ़िल्म का निमार्ण करते हैं, जिसमें भारत सहित दुनिया भरके योग्य कलाकार शामिल होते हैं और अपना योगदान देते हैं।
रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ महात्मा गांधी की हत्या से शुरू होती है। इस फ़िल्म में गांधी का बचपन नहीं है, लेकिन फिर भी यह फ़िल्म महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी हुई घटनाओं को एक क्रमबद्धता के सूत्र में पिरोती है और जैसा कि पहले भी कहा गया यह फ़िल्म गांधी को महात्मा की ऊँचाइयों तक ले जाने वाली प्रेरणा की पड़ताल करती है।
महात्मा गांधी के जीवन-काल में ही यह तय हो गया था कि इस संसार का काम अब उन्हें जाने बग़ैर कभी चलेगा नहीं। गांधी के जीवनकाल में ही यह भी लगभग तय हो गया था कि उनके जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं हैं जो रहस्यमय या गोपनीय हो और जिसका सार्वजनिक प्रकटीकरण कोई विवाद उत्पन्न कर सके, लेकिन इस सत्य को नकारते हुए महात्मा गांधी की हत्या के बाद उन पर कई किताबें आईं और आ रही हैं। इस सिलसिले में वर्ष 2011 में आई थामस वेबर की किताब के शीर्षक से ही जाहिर होता है कि यह क्या कहना चाहती है। इसका शीर्षक है—गोइंग नेटिव : गांधी’ज रिलेशनशिप विद वेस्टर्न वुमेन। इससे पूर्व पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित लेखक जोसेफ़ लेलीवुल्ड की ग्रेट सोल : महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया में महात्मा गांधी को समलैंगिक बताते हुए उनके जीवन के अनछुए या कहें अनहुए यौन-प्रसंगों को उजागर करने की कोशिश की गई। महात्मा गांधी पर इस तरह का यह पहला आक्षेप-उद्घाटन रहा और यह किताब गुजरात में प्रतिबंधित भी कर दी गई।
फ़िलहाल, यहाँ रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ पर लौटते हैं। इस फ़िल्म के उस दृश्य का यहाँ उल्लेख करना जो कि इस फ़िल्म के सबसे बेहतर और शास्त्रीय दृश्यों में शुमार किया जाता है, अप्रासंगिक न होगा। हालाँकि यह दृश्य कहीं-कहीं सेंसर भी हुआ है। इस दृश्य में गांधी दक्षिण अफ़्रीका से लौटकर भारत आए हैं। वह एक नदी के तट पर कुछ देर के लिए रुकते हैं। यहाँ कुछ स्त्रियाँ नहा रही हैं, इनमें से एक स्त्री इस वजह से रुक जाती है; क्योंकि गांधी नदी से कुछ जल ले रहे हैं। इस स्त्री के रुक जाने की एक वजह यह भी है कि उसकी देह पर पर्याप्त कपड़े नहीं हैं। गांधी इस स्त्री को देखते हैं और अपने तन का सफ़ेद सूती वस्त्र नदी के इस पार से उस तरफ़ उस स्त्री की ओर बढ़ा देते हैं। यह वस्त्र जल में तैरता हुआ उस स्त्री के पास जाता है, गांधी मुस्कुराते हैं। यह गांधी की भारत को लगातार देते चले जाने की शुरुआत है और यह फ़िल्म हमें इसे एक प्रतीक के नहीं घटना के सहारे बताती है—बेहद मार्मिक और संवेदन से भरी एक घटना के सहारे। गांधी के जीवन में पता नहीं इस तरह की कोई घटना घटी भी थी या नहीं, लेकिन इस फ़िल्म के संदर्भ में यह सवाल ग़ैरज़रूरी जान पड़ता है; क्योंकि रिचर्ड एटनबरो और बेन किंग्सले इस दृश्य को एक अद्भुत कलात्मक गरिमा देते हुए अत्यंत मानवीय और प्रामाणिक बना देते हैं।
रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ एक किताब पढ़ने का सुख देती है, यह कहना इस फ़िल्म को छोटा करना है और उस किताब को भी, जो किसी फ़िल्म का-सा सुख देती है। यह कहना कि यह फ़िल्म किसी भारतीय ने क्यों नहीं बनाई या यह कहना कि गांधी का किरदार किसी भारतीय ने क्यों नहीं निभाया... उस अथक श्रम और जुनून को कम करके आँकना होगा और कहीं न कहीं उसका अपमान भी होगा जो ‘गांधी’ के लिए रिचर्ड एटनबरो, बेन किंग्सले और उनकी टीम ने बरता और महसूस किया होगा। इसलिए गांधी जैसा व्यक्तित्व भारत में हुआ इस पर गर्व कीजिए और सारी दुनिया उन्हें जानती और अपने काम में उतारती रही है इस पर भी।
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