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नदी पर दोहे

नदियों और मानव का आदिम

संबंध रहा है। वस्तुतः सभ्यता-संस्कृति का आरंभिक विकास ही नदी-घाटियों में हुआ। नदियों की स्तुति में ऋचाएँ लिखी गईं। यहाँ प्रस्तुत चयन में उन कविताओं को शामिल किया गया है, जिनमें नदी की उपस्थिति और स्मृति संभव हुई है।

जब आँखों से देख ली

गंगा तिरती लाश।

भीतर भीतर डिग गया

जन जन का विश्वास॥

जीवन सिंह

पानी जैसी ज़िंदगी

बनकर उड़ती भाप।

गंगा मैया हो कहीं

तो कर देना माफ़॥

जीवन सिंह

गंगा जल को लाश घर

बना गया वह कौन?

पूछा तो बोला नहीं

अजब रहस्यमय मौन॥

जीवन सिंह

सचमुच सदा ग़रीब ही

ढोता ज़िंदा लाश।

उसके ही शव देखकर

गंगा हुई उदास॥

जीवन सिंह

दोहे लिखकर के करूँ

क्या मैं भी गंगोज।

मन की गंगा बह रही

दोहे बनते रोज़॥

जीवन सिंह

काया में कवलास, न्हाय नर ही की पैड़ी।

बह जमना भरपूर, नितोपती गंगा नैड़ी॥

लालनाथ

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