मध्य-युग के जीवन की हल्की-सी समझ भी यह बताती है कि निर्बलों की पराधीनता को कितना प्राकृतिक समझा जाता था, और उनमें से किसी की समानता की इच्छा को कितना अप्राकृतिक।
बिना किसी झिझक के यह कहा जा सकता है कि ताक़त के क़ानून के तहत जितना ज़्यादा अंतर स्त्री के मूलभूत चरित्र में आया है, उतना किसी भी दूसरे दमित वर्ग के चरित्र में नहीं आया।
लिंगों के बीच अधिकारों की असमानता का स्रोत कुछ और नहीं, सिर्फ़ 'सबसे ताक़तवर का क़ानून' है।
अगर यह कहा जाए की दोनों लिंगों की समानता की अवधारणा सिर्फ़ एक सिद्धांत है, तो यह भी याद रखना होगा कि इससे उल्टी अवधारणा भी सिर्फ़ एक सिद्धांत है।
जिसे आज 'स्त्री का स्वभाव' कहा जाता है, वह एक नक़ली चीज़ है, और कुछ दिशाओं में बाध्यतापूर्ण दमन और कुछ दिशाओं में अप्राकृतिक फैलाव का परिणाम है।