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संवाद पर

सलमा: सुजाता। कल शाम को मैं तुम्हारे घर गई थी। लेकिन, तुम नहीं मिली।

सुजाता: हाँ सलमा। मुंबई से मेरी चचेरी बहन रंजना आई है न, मैं उसको लेकर प्रगति मैदान चली गई थी। वहाँ हस्तशिल्प की प्रदर्शनी लगी हुई है। हम दोनों को यह प्रदर्शनी बहुत अच्छी लगी। तुम साथ होती तो और मज़ा आता।

सलमा: प्रदर्शनी में तुमने क्या-क्या देखा?

सुजाता: हम दोनों सभी राज्यों के मंडप देखने गए। सभी मंडप ख़ूब सजाए गए थे। अलग-अलग स्थानों पर कई राज्यों के हस्तशिल्पों की प्रदर्शनियाँ लगी हुई थीं। मिट्टी, लकड़ी और बेंत के सुंदर-सुंदर सामान तो थे ही, हाथ की कढ़ाई से कपड़े पर मनमोहक चित्र भी बने हुए थे। इस अवसर पर कई कार्यक्रम हो रहे थे। हम दोनों ने कर्नाटक से आए कलाकारों के यक्षगान और तमिलनाडु से आए कलाकारों के भरतनाट्यम् देखा, उड़ीसा के कलाकारों के ओडिसी नृत्य और केरल के कलाकारों के कुचीपुड़ी देखा, बहुत महा आया।

सलमा : मुझे भी कत्थक और मणिपुरी नृत्य बहुत अच्छे लगते हैं। प्रदर्शनी से तुम लोगों ने क्या-क्या ख़रीदा?

सुजाता : हमने असम और नागालैंड के बने दो बैग ख़रीदे। बत से बना हुआ, फूलों वाला गमला और बाँस से बना टेबल लैंप रंजना के लिए ख़रीदे। रंजना ने अपने लिए राजस्थान के कढ़ाईवाले कपड़े और बंगाल के पवेलियन से एक जूट का थैला ख़रीदा। उसने जम्मू-कश्मीर के मंडप से अपनी माता जी के लिए एक शाल ख़रीदी। 

सलमा : रंजना मुंबई कब लौटेगी?

सुजाता : अगले सप्ताह के बाद।

सलमा : क्या तुम दोनों कल मुझे साथ लेकर प्रगति मैदान चल सकती हो? 

सुजाता : कल रविवार है सलमा! छुट्टी के दिन भीड़ बहुत होती है। हम किसी दूसरे दिन चलें तो आराम से प्रदर्शनी देख सकेंगे।

अज्ञात

वह दिल्ली के सर्द जाड़ों की कोई आम सुबह ही थी जब जनपथ स्थित हंगेरियन सूचना एवं सांस्कृतिक केंद्र की जनसंपर्क अधिकारी हरलीन अहलूवालिया का फ़ोन आया। हरलीन मुझे हंगरी की एक अँग्रेज़ हिंदी महिला विद्वान से मिलवाना चाहती थीं, जिन्हें हिंदी में किए गए उनके काम के चलते न केवल दुनिया भर में पहचान मिली थी, बल्कि अपने राष्ट्रपति अबुल पकिर जैनुलाअबदीन अब्दुल कलाम ने उन्हें सम्मानित भी किया था।

वह विदुषी तब चंद दिनों के लिए ही भारत में थीं और उसी शाम उन्हें दिल्ली से बाहर जाना था। लिहाज़ा सुबह 10 बजे का समय मुलाक़ात के लिए तय हुआ। भले ही वह महिला हिंदी के चलते जानी-पहचानी जा रही थी लेकिन थीं तो अँग्रेज़ लिहाज़ा उनसे पूछे जाने वाले सवालों की फ़ेहरिस्त तैयार करते वक़्त हिंदी के साथ-साथ अँग्रेज़ी का भी ध्यान रखा कि क्या पता कब संवाद के लिए इसकी ज़रूरत आ पड़े।

आश्चर्य, अँग्रेज़ी के सवालों की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। सुबह 10 बजे जब अपने फ़ोटोग्राफ़र के साथ मैं हंगेरियन सूचना केंद्र पहुँचा तो हरलीन अपने कार्यालयी काम में व्यस्त थीं, हमें स्वागत कक्ष में बैठने को कहा गया। हम बैठकर अभी गर्मा-गर्म कॉफ़ी की चुसकियाँ ले ही रहे थे कि एक भद्र अँग्रेज़ महिला आ पहुँची।

उन्होंने अभिवादन की शुरुआत हाथ जोड़कर 'नमस्ते' से की। फिर क्षमायाचना की कि दिल्ली के व्यस्त यातायात के चलते वह समय से नहीं पहुँच सकीं। हरलीन के आने के चंद मिनट बाद ही हम बातचीत में इतने मशग़ूल हो चुके थे कि औपचारिक परिचय की ज़रूरत ही नहीं पड़ी।

वह डॉ. मारिया नेज्यैशी थीं। अप्रैल 1953 में हंगरी के बुडापेस्ट में जन्मी नेज्यैशी ने संस्कृत, लेटिन, प्राचीन यूनानी और भारत विज्ञान जैसे विषयों में एम. ए. कर संस्कृत व हिंदी में डाक्टरेट की उपाधि हासिल की।

यूरोप हिंदी समिति की उपाध्यक्ष और इयोत्वोस लोरेंड यूनिवर्सिटी में हिंदी की विभागाध्यक्ष के तौर पर अकादमिक गतिविधियों से जुड़ी नेज्यैशी ने 3 दर्जन से भी अधिक किताबों का हिंदी से हंगेरियन व हंगेरियन से हिंदी में अनुवाद किया।

हमारी बातचीत के बीच छठे विश्व हिंदी सम्मेलन व जार्ज ग्रियर्सन सम्मान से सम्मानित नेज्यैशी को भारत, यहाँ की भाषा, यहाँ के लोग, यहाँ के शहर, यहाँ की फ़िल्में, यहाँ का साहित्य, यहाँ की राजनीति और यहाँ की संस्कृति कैसी लगती है? उनका ख़ुद का बचपन कैसा था? उनका हिंदी से जुड़ाव कैसे हुआ? जैसे तमाम सवालों से होकर गुज़रना पड़ा और सभी के जवाब उन्होंने बिंदास अंदाज़ में दिए।

लेकिन नेज्यैशी ने बातचीत की शुरुआत शिकायतों से की। उनका कहना था कि, "भारत बहुत बड़ा देश है। यहाँ की परंपरा बहुत समृद्ध है पर यहाँ के फ़िल्मवाले इतनी छोटी-छोटी बातों पर झूठ बोलते ही नहीं बल्कि झूठ दिखाते भी हैं कि उन्हें देखकर दु:ख होता है। आप फ़िल्म 'हम दिल दे चुके सनम' को ही लीजिए। इस पूरी फ़िल्म की शूटिंग हंगरी या यों कहिए कि हमारे शहर बुडापेस्ट में हुई थी। पर फ़िल्म में उसे इटली का शहर बता दिया गया। इस झूठ की ज़रूरत क्या थी? यों यह उस धरती के साथ भी नाइंसाफ़ी है जिसके हुस्न को आपने कैमरे में क़ैद कर पर्दे पर दिखाया, पर जगह दूसरी बता दी।"

नेज्यैशी की इस शिकायत का कोई जवाब देते नहीं बना, लिहाज़ा यह कहकर कि हम आप की बात 'हम दिल दे चुके सनम' देखने वाले सभी दर्शकों के पास न भी पहुँचा पाए, तो अपने पाठकों तक ज़रूर पहुँचा देंगे ताकि उन्हें सच्चाई का पता चल जाए, क्षमा माँग ली। उसके बाद हिंदी से उनके जुड़ाव के बारे में मैंने जानना चाहा तो वह जैसे अपने बचपन में लौट गईं।

"हंगरी में संयुक्त परिवार की सोच नहीं है। पति-पत्नी व बच्चे। बच्चे भी केवल 20 साल की उम्र तक माता-पिता के साथ रह सकते हैं। कुल मिलाकर एक इकाई का छोटा परिवार। तक़रीबन 30 साल पहले मेरे माता-पिता का तलाक़ हो गया था। दोनों ने दूसरा विवाह किया।"

"आज मेरी माँ की उम्र 81 साल है, पर वह अकेले रहती हैं। मेरी मौसी 86 साल की हैं, वह भी अकेली हैं। वे दोनों इस उम्र में भी स्वायत्त हैं। मैंने भी शादी नहीं की। काम व शादी में एक को चुनना था। बच्चे, पति व परिवार के साथ मैं वह नहीं कर पाती जो आज कर रही हूँ। मैंने हिंदी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।"

"दरअसल, मेरी ज़िंदगी के शुरुआती 20 साल बहुत छोटी-सी जगह पर बीते। मैं बचपन से ही इंसानी जीवन के शुरुआती दौर को जानने के लिए लालायित थी। इसीलिए मैंने ग्रीक, लेटिन, यूनानी और संस्कृत भाषाएँ पढ़ीं। एम. ए. की पढ़ाई के बाद मैं एक प्रकाशन संस्थान से भी जुड़ी। उस दौरान हंगरी में केवल 1-2 सज्जन ही हिंदी जानते थे।"

"मेरे प्रोफ़ेसर ने मेरी रुचियों को देखकर मुझे हिंदी पढ़ने के लिए प्रेरित किया और एक बार जो मैं इससे जुड़ी तो जुड़ती चली गई। 1985 में मैं पढ़ाई के सिलसिले में पहली बार भारत आई और यहाँ 10 माह तक रुकी। एक लड़की, जिसने घर से कॉलेज की चारदीवारी ही देखी हो, उसने हिंदी की बदौलत पूरी दुनिया देख ली।"

"आज मैं विएना में पढ़ाती हूँ। मेरे एक शिष्य इमरे बांगा आक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते हैं।"

"इंग्लैंड में हिंदी के तमाम जानकारों के बीच एक हंगेरियन का हिंदी पढ़ाने के लिए चुना जाना कम बड़ी बात नहीं है। जहाँ तक हंगरी की बात है तो मेरे समय में वहाँ न तो हिंदी भाषी लोग थे और न ही किताबें थीं। डॉ. हुकुम सिंह नामक एक गणितज्ञ ने हिंदी सीखने में मेरी काफ़ी मदद की।"

"आज हंगरी में मैंने हिंदी का पुस्तकालय बना रखा है, जिसकी किताबें भारतीय दूतावास ने उपलब्ध कराई हैं। मैं बुडापेस्ट में भारतीय पोशाक ही पहनती हूँ, जिसे देख मेरे छात्रों में भी इसके प्रति ललक बढ़ी है। कड़ाके की ठंड के चलते वहाँ सलवार-सूट ही ठीक है इसलिए साड़ी कम पहनते हैं।"

भारत की कौन-सी चीज़ें आपको सबसे अच्छी...? वाक्य पूरा होता इससे पहले ही वह बोल पड़ीं, "यहाँ के मानवीय संबंध मुझे अच्छे लगते हैं। मेरे ख़ुद के ढेरों रिश्ते यहाँ हैं, जो सालों-साल से बरक़रार हैं। पिता, भाई व दोस्त की तरह। यहाँ के लेखकों ने मुझे प्रभावित किया। असग़र वजाहत के साथ हंगरी में 5 साल तक साथ-साथ काम किया। अशोक वाजपेयी, राजेंद्र यादव, अशोक चक्रधर व जैनेंद्र कुमार जैसे लेखकों से मेरा संपर्क रहा। भारतीय खाने में पूरी, मटर-पनीर भी मुझे पसंद है।"

यहाँ का कौन-सा शहर व कौन-सी फ़िल्में आप को पसंद हैं? नेज्यैशी का जवाब था, "दिल्ली तो अपना शहर है, इसलिए कुछ कहूँगी नहीं। में 7 साल बाद दिल्ली आई तो सीएनजी का असर देखा। यहाँ का प्रदूषण कम हुआ है, हरियाली बढ़ी है। पांडिचेरी, मैसूर व उदयपुर भी मुझे काफ़ी पसंद हैं। सच कहूँ तो जहाँ भीड़ कम है, हवा ज़्यादा है, वे शहर मुझे पसंद हैं।"

"रही फ़िल्मों की बात तो भारतीय फ़िल्में हंगरी में बहुत कम पहुँचती हैं। वैसे भी पूरे हंगरी में केवल 500 हिंदुस्तानी हैं। 10 साल पहले तो ये केवल 50 थे। जहाँ तक मेरी बात है तो मुझे फ़िल्म 'उमराव जान' काफ़ी अच्छी लगी। नसीरुद्दीन शाह व शबाना आज़मी मुझे अच्छे लगते हैं। शायद इसलिए कि ये कला फ़िल्मों से जुड़े कलाकार हैं। मनोरंजन की ज़रूरत तो इंसान को कभी-कभी पड़ती है पर कला फ़िल्में ज़िंदगी का हिस्सा हैं। आप इनसे मुँह कैसे मोड़ सकते हैं?"

धर्म और राजनीति के बारे में नेज्यैशी के ख़याल पूरी तरह से तार्किक हैं। उनके मुताबिक़, "मैं हर तरह के मंदिर, मस्जिद व चर्च गई हूँ, पर मैं न इधर की हूँ, न मैं उधर की। मैंने धर्म के बारे में काफ़ी कुछ पढ़ा है और मैं इसके हर रूप से परिचित हूँ। लेकिन हर धर्म का आदर करते हुए भी मैं किसी एक धर्म को नहीं मानती।"

"रही राजनीति तो चूँकि मैं समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ पढ़ती हूँ, ख़बरिया चैनल देखती हूँ, इसलिए इसके बारे में थोड़ी बहुत समझ है। दरअसल, हंगरी में रहकर आप राजनीति के प्रभावों से बच नहीं सकते। वहाँ पिछले 15 सालों में काफ़ी बदलाव हुए हैं। लेकिन भारत की राजनीति को समझने के लिए पूरी ज़िंदगी चाहिए।"

नेज्यैशी से आख़िर में आधुनिकता को लेकर उनके विचारों के बारे में पूछा। अचरज यह कि उन्होंने आधुनिकता से असहजता जताई। उनका कहना था, "बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव इतना अधिक बढ़ गया है कि जगह की, सामान की ख़ासियत और विविधता ख़त्म हो गई है।"

"हर जगह फ़ास्ट फ़ूड, एक जैसे साबुन, एक जैसा पेय, एक जैसे शैपू...यह क्या है? यह ठीक है कि भूमंडलीकरण ने हमें जोड़ा है, इससे हम एक-दूसरे से जुड़े हैं और एक-दूसरे को समझ पा रहे हैं। पर लोग यह क्यों नहीं समझते कि पूरी धरती ही हमारी है। अगर हम इसे ख़राब करेंगे, तो इसका नतीजा सबको भुगतना होगा। कैटरीना, सुनामी, विल्मा, भूकंप और भी न जाने क्या क्या?"

"मैं एक अनुभव से अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगी। एक बार मैं सूरीनाम के घनघोर जंगलो की तरफ़ गई, जहाँ से नदी मार्ग के अलावा गुज़रने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। हमने नाव पकड़ी, काफ़ी अंदर तक गए। यानी उस इलाक़े तक गए जहाँ आबादी नहीं थी। बस्तियाँ, कल-कारख़ाने नहीं थे, उद्योग-धंधे नहीं थे पर वहाँ भी प्लास्टिक से बनी पानी की एक बोतल तैरती हुई मिली।"

"मैंने सुना है समुद्र में कहीं एक प्लास्टिक का द्वीप बन गया है, जो जल्द ही महाद्वीप बन जाएगा। हमें सोचना होगा कि इन चीज़ों का पर्यावरण पर क्या असर होगा। हम ऐसी दुनिया में जिएँगे कैसे? क्या ऐसे ही विश्व की कल्पना की थी हम सबने? क्या यही विश्व हमें मिलेगा?"                      

जय प्रकाश पांडेय

अमर : माँ, दीवाली के अवसर पर मेरे लिए कौन-सा कपड़ा ख़रीदोगी।

माँ : तुम्हें क्या चाहिए, मुझे बताना बेटे। आज शाम को हम लोग बाज़ार चलेंगे।

अमर : मैं भी बाज़ार चलूँगा माँ। मैं अपनी पसंद के कपड़े लूँगा।

अनीता : मैं भी चलूँगी।

पिता : हाँ बेटे, तुम दोनों तैयार हो जाना।

(चारों बाज़ार जाते हैं। कपड़े की दुकान पर पहुँचते हैं।)

दुकानदार : आइए विनोद भाई, नमस्कार।

पिता : नमस्ते-नमस्ते! कैसे हैं आप?

दुकानदार : आप सभी की शुभकामना से ठीक हूँ। आइए बैठिए।

माँ : बच्चों के लिए कपड़े चाहिए।

दुकानदार : अभी दिखाता हूँ बहन जी! वीरू, साहब के लिए चाय-पानी ले आओ।

माँ : नहीं-नहीं चाय नहीं, सिर्फ़ पानी लाना।

पिता : बेटी के लिए सूट का कपड़ा दिखाइए और पैंट-शर्ट के कपड़े भी! अमर बेटे तू अपनी पसंद के कपड़े देखना।

दुकानदार : नए पैंट-पीस भी आए हैं। वीरू अच्छे कपड़े निकाल लाओ।

अमर : अनीता, तुम अपने लिए कपड़ा पसंद कर लो।

दुकानदार : बेटे, यह पैंट का कपड़ा देखो। यह बहुत अच्छा है।

अमर : नहीं, यह मुझे पसंद नहीं है। दूसरा कपड़ा दिखाइए।

अनीता : माँ, यह सूट बहुत अच्छा है।

माँ : हाँ, यह रंग अच्छा है, लेकिन कपड़ा अच्छा नहीं है।

दुकानदार : यह लीजिए,  बढ़िया कपड़े में, बिलकुल नया-नया आया है।

माँ : इसका कपड़ा ठीक है। अमर तुम्हें यह कपड़ा पसंद है?

अमर : हाँ, अच्छा है माँ!

माँ : तेरी पसंद अच्छी होती है, बेटे।

अनीता : और मेरी पसंद माँ?

माँ : तेरी पसंद भी।

पिता : दोनों कपड़े पैक कर दी दीजिए।

दुकानदार : वीरू, ये कपड़े पैक कर दो। यह लीजिए आपका बिल। 

पिता : धन्यवाद!

अज्ञात

(फ़ोन की घंटी बजती है।)

ननकू : (फ़ोन उठाकर) हैलो! आप कौन साहब बोल रहे हैं?

अमरनाथ : मैं अमरनाथ बोल रहा हूँ, शिलांग से।

ननकू : हाँ बाबू जी नमस्ते! मैं ननकू बोल रहा हूँ। आप लोग कैसे हैं?

अमरनाथ : हम सब ठीक-ठाक है। अच्छा रमा को बुलाओ।

ननकू : बहन जी, आपके भाई साहब का फ़ोन है।

रमा : अभी आ रही हूँ। (आकर फ़ोन उठाती हैं।) हैलो भैया, नमस्ते। क्या हाल-चाल है?

अमरनाथ : सब मज़े में हैं। तुम लोग क्या कर रहे हो?

रमा : आज छुट्टी का दिन है। सब लोग घर पर ही हैं। टिंकू टी. वी. पर कार्टून देख रहा है।

अमरनाथ : और बिटिया श्यामला क्या कर रही है?

रमा : वह संगीत का अभ्यास कर रही है। बड़ा बेटा राजेश टेबुल टेनिस खेल रहा है, जीजा जी को बुलाऊँ।

अमरनाथ : ज़रूर! मैं सुरेश बाबू से बात करना चाहता हूँ।

रमा : जी, सुनिए! शिलांग से भैया का फ़ोन है। आपको याद कर रहे हैं।

सुरेश : नमस्कार भैया! क्या हाल-चाल है! भाभी जी ठीक हैं?

अमरनाथ : मज़े में हैं। इस समय तो वे बग़ीचे में हैं। पौधों को पानी दे रही हैं।

श्यामला : (आकर) पापा जी किसका फ़ोन है?

सुरेश : तुम्हारे मामा जी बोल रहे हैं। लो, उनसे बात करो।

श्यामला : मामा जी, प्रणाम।

अमरनाथ : जीती रहो बेटी। आजकल संगीत सीख रही हो? कब से?

श्यामला : तीन चार महीने से सीख रही हूँ। हमारे घर के पास गंधर्व कला विद्यालय है न, वहीं से सीख रही हूँ।

अमरनाथ : क्या वहाँ रवींद्र संगीत भी सिखाते हैं?

श्यामला : हाँ मामा जी, वहाँ रवींद्र संगीत सिखाते हैं? मेरी भी इच्छा है। मैं ज़रूर सीखूँगी।

अमरनाथ : तुम्हें मेरी शुभकामनाएँ। अपने पापा को मेरा नमस्ते कहना।

अज्ञात

तरूण :  नमस्ते शोभा। हम बहुत समय बाद मिले।
शोभा : तरूण, नमस्ते।
तरूण :  शोभा तुम आजकल किस कक्षा में पढ़ती हो?
शोभा : मैं कक्षा छह में पढ़ती हूँ।
तरूण : तुम्हारा विद्यालय कहाँ है?
शोभा : प्रधान डाकघर के पास है। और, तुम कहाँ पढ़ते हो?
तरूण : मैं आजकल चेत्रै में पढ़ता हूँ। वहाँ मेरे मामा जी रहते हैं। अच्छा शोभा, तुम्हारे विद्यालय में हिंदी कौन पढ़ाता है?

शोभा : वरदा जी। वे बहुत अच्छा पढ़ाती हैं, हमें रोचक कहानियाँ सुनाती हैं, हिंदी के गीत भी सिखाती हैं।
तरूण : अरे, वे तो मेरी मौसी की सहेली हैं। मैं मौसी के साथ कभी-कभी उनके घर जाता हूँ। वे बहुत अच्छी-अच्छी बातें करतीं हैं। 
शोभा : तुम ठीक कहते हो। अच्छा तरूण! आजकल शाम को तुम क्या करते हो?
तरूण : शाम को मैं एक घंटे खेलता हूँ। मेरे घर के पास एक अच्छा मैदान है। हम लोग फ़ुटबॉल खेलते हैं। कभी-कभी क्रिकेट भी खेलते हैं। शोभा, तुम कौन-सा खेल खेलती हो? 
शोभा : मैं खो-खो खेलती हूँ। मैं कभी-कभी भाई बहनों के साथ अंत्याक्षरी भी खेलती हूँ।
तरूण : अंत्याक्षरी बुद्धि का खेल है।
शोभा : हाँ, तरूण इससे याद करने की क्षमता बढ़ती है। मस्तिष्क का व्यायाम भी आवश्यक हैं।
तरूण :  मैं यह मानता हूँ, अब मैं खेल के साथ-साथ अंत्याक्षरी भी खेलूँगा।

अज्ञात

निशा : पिता जी, दशहरे की छुट्टियों में हम मैसूर जाएँगे।

निशांत : नहीं पापा, पिछले साल मैं स्कूल की टीम में मैसूर गया था। इसलिए कहीं और जाएँगे।

निशा : मैं तो मैसूर का दशहरा ही देखना चाहूँगी।

पिता : अब मैसूर के लिए रिज़र्वेशन मिलना कठिन है। अबकी बार हम कन्याकुमारी जाएँगे।

निशा : तब तो बड़ा मज़ा आएगा। कन्याकुमारी में तीन सागरों का संगम होता है। वहाँ हम सूर्योदय भी देखेंगे और सूर्यास्त भी देखेंगे।

पिता : हाँ बेटी, पूर्णिमा के दिन शाम को कन्याकुमारी में चंद्रमा का उदय और सूर्य का अस्त होना एक साथ देख सकते हैं। क्यों मीना तुम भी चलोगी न? छुट्टी मिल जाएगी? 

माँ : क्यों नहीं? मेरी तो काफ़ी छुट्टियाँ बाक़ी हैं। आराम से मिल जाएँगी। हम लोग कन्याकुमारी कैसे जाएँगे?

पिता : हम तिरुअनंतपुरम् तक राजधानी एक्सप्रेस से जाएँगे। वहाँ से कन्याकुमारी ज़्यादा दूर नहीं है। रेल या बस से जा सकते हैं।

निशांत : शाम से पहले कन्याकुमारी पहुँचना अच्छा रहेगा। तभी हम सूर्यास्त देख सकते हैं। हम रात को विवेकानंद नगर में ठहरेंगे। सुबह जल्दी उठकर समुद्र के किनारे पहुँचेंगे और सूर्योदय देखेंगे।

पिता : सूर्योदय देखने के बाद हम नाश्ता करेंगे और विवेकानंद स्मारक देखने जाएँगे।

माँ : विवेकानंद स्मारक में क्या है?

पिता : विवेकानंद स्मारक कन्याकुमारी के पास समुद्र के किनारे थोड़ी दूर पर एक बड़ी चट्टान पर बना है। हम लोग मोटर लांच से स्मारक पहुँचेंगे। वहाँ पर विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस की मूर्तियाँ हैं। चट्टान पर खड़े होकर हम समुद्र की लहरों का आनंद लेंगे।

निशा : बहुत अच्छा। वहाँ से सीपियाँ और शंख लाऊँगी।

पिता : निशांत, आज ही जाकर रिज़र्वेशन करा लाओ। हाँ एक बात याद रखना यात्रा में कम सामान रखना चाहिए। कहा भी है कि कम सामान बहुत आराम, अपनी यात्रा सुखद बनाइए।

अज्ञात

राजीव : जोसफ़! नमस्ते!

जोसफ़ : नमस्ते! तुम यहाँ? क्या यही तुम्हारा घर है? बहुत दिनों बाद मिले हो। बैठक में बैठकर कुछ देर बात करें।

राजीव : हाँ, यह हमारा नया घर है।

जोसफ़ : घर में कौन-कौन है?

राजीव : घर में मेरे पिता जी, माँ और बड़े भैया हैं। अंदर आओ, इधर बैठो सोफ़े पर।

जोसफ़ : यह कमरा बहुत सुंदर है। घर में कितने कमरे हैं।

राजीव : घर में पाँच कमरे हैं। तीन कमरे नीचे हैं, दो कमरे ऊपर। नीचे वाले कमरे बड़े हैं, ऊपर के कमरे छोटे हैं। दाहिनी ओर पिता जी का कमरा है।

जोसफ़ : यह कमरा किसका है?

राजीव : यह बड़े भैया का कमरा है। उसके पास स्नान घर है।

जोसफ़ : वह किसका मकान है?

राजीव : वह मुन्ना शाहिद का मकान है। वह मेरा दोस्त है।

जोसफ़ : और वह बग़ीचा किसका है?

राजीव : मेरा बग़ीचा है। चलो आओ, हम बग़ीचा देखें। क्यारी में कई पौधे हैं। क्यारियों में रंग-बिरंगे फूल लगे हैं। ये गुलाब के फूल हैं और वे गेंदे के। दीवार के पास कई पेड़ लंबे हैं और कुछ पेड़ छोटे। यह आम का पेड़ है और वह नीम का। वह अमरूद का पेड़ है, यह नारियल का। अमरूद का पेड़ छोटा होता है और नारियल का पेड़ लंबा।

जोसफ़ : यह बग़ीचा बहुत अच्छा है।

अज्ञात

सुशीला : नमस्ते डॉक्टर साहब!

डॉक्टर : आइए मैडम! कहिए, आपको क्या कष्ट है?

सुशीला : मैं ठीक हूँ डॉक्टर साहब! यह मेरा बेटा रमेश है। इसे कल से बुख़ार है। देखिए परसों से स्कूल में परीक्षा शुरू होगी। इसलिए मुझे बड़ी चिंता है।

डॉक्टर : बेटे मेरे पास आओ। इस स्टूल पर बैठो। बताओ तुम्हें क्या कष्ट है? 

रमेश : डॉक्टर साहब, मुझे खाँसी आती है। खाँसी के कारण रात भर नींद नहीं आती।

डॉक्टर : तुम्हें भूख लगती है?

रमेश : डॉक्टर साहब, मुझे बिल्कुल भूख नहीं लगती। (डॉक्टर रमेश के छाती और पीठ पर स्टेथीस्कोप लगाकर जाँच करता है।)

डॉक्टर : लंबी साँस लो। और तेज़ साँस लो। अपनी जीभ दिखाओ, बेटे! अच्छा!

सुशीला : डॉक्टर साहब, कोई परेशानी की बात तो नहीं?

डॉक्टर : नहीं रमेश को मामूली बुख़ार है, सर्दी-ज़ुकाम के कारण। दवाई लिख देता हूँ, दो दिन में ठीक हो जाएगा।

सुशीला : रमेश को खाने में क्या दूँ डॉक्टर साहब?

डॉक्टर : इसे हलका खाना दीजिए। सब्ज़ी का सूप पिलाइए।

रमेश : मुझे संतरा और सेब पसंद हैं। क्या मैं खा सकता हूँ।

डॉक्टर : हाँ बेटे! फल खाओ! बीच बीच में पानी पिओ।

सुशीला : डॉक्टर साहब, इसे दूध दूँ या कॉफ़ी?

डॉक्टर: चाय कॉफ़ी बिलकुल नहीं, सिर्फ़ दूध दीजिए। दवाएँ लिख रहा हूँ? दिन में तीन बार दीजिए। खिलाइए। रात को सोने से पहले यह गोली खिलाइए।

सुशीला : धन्यवाद डॉक्टर साहब, नमस्ते।

डॉक्टर : नमस्ते।

अज्ञात

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