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नागरीदास

1699 - 1764 | किशनगढ़, राजस्थान

किशनगढ़ (राजस्थान) नरेश। प्रेम, भक्ति और वैराग्य की साथ नखशिख की सरस रचनाओं के लिए ख्यात।

किशनगढ़ (राजस्थान) नरेश। प्रेम, भक्ति और वैराग्य की साथ नखशिख की सरस रचनाओं के लिए ख्यात।

नागरीदास के दोहे

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इस्क-चमन महबूब का, जहाँ जावै कोइ।

जावै सो जीवै नहीं, जियै सु बौरा होइ॥

अरे पियारे, क्या करौ, जाहि रहो है लाग।

क्योंकरि दिल-बारूद में, छिपे इस्क की आग॥

सीस काटिकै भू धरै, ऊपर रक्खै पाव।

इस्क-चमन के बीच में, ऐसा हो तो आव॥

थिर कीन्हेंचर,चर सुथिर, हरि-मुख मुरली बाजि।

खरब सुकीनो सबनि कों, महागरब सों गाजि॥

कहूँ किया नहिं इस्क का, इस्तैमाल सँवार।

सो साहिब सों इस्क वह, करि क्या सकै गँवार॥

सब मज़हब सब इल्म अरु, सबै ऐस के स्वाद।

अरे, इस्क के असर बिन, ये सब ही बरबाद॥

इस्क-चमन महबूब का, सँभल पाँउ धरि आव।

बीच राह के बूड़ना, ऊबट, माहि बचाव॥

प्रिय-परिकर के सुघरजन, बिरही-प्रेम-निकेत।

देखि कबै लपटायहों, उनतें हिय करिहेत॥

इश्क उसी की झलक है, ज्यौं सूरज की धूप।

जहाँ इस्क तहँ आप हैं, क़ादिर नादिर रूप॥

आया इस्क-लपेट में, लागी चस्म-चपेट।

सोई आया ख़लक़ में, और भरै सब पेट॥

पिक केकी, कोकिल-कुहुक, बंदर-वृंद अपार।

ऐसे तरु लखि निकट कब, मिलिहौ बाँह पसार॥

हेरत, टेरत डोलिहौं, कहि-कहि स्याम सुजान।

फिरत-गिरत बन सघन में, यौंही छुटिहैं प्रान॥

कब बृंदावन-घरनि में, चरन परैंगे जाय।

लोटि धूरि धरि सीस पर, कछु मुखहूँ में पाय॥

कबै मनोरथ सिद्ध ये, ह्वै हैं मेरे लाल।

सतसंगति तें दूर नहिं, जानें रसिक रसाल॥

कियौ न, करिहै कौन नहिं, पिय सुहाग कौ राज।

अरी, बावरी बँसुरिया, मुख-लागी मति गाज॥

तो कारन गृह-सुख तजे, सह्यो जगत कौ बैर।

हमसों तोसों मुरलिया, कौन जनम कौ घैर॥

कोइ पहुँचा वहाँ तक, आसिक नाम अनेक।

इस्क-चमन के बीच में, आया मजनू एक॥

कबै रसीली कुंज में हौ करिहौ परवेस।

लखि-लखि लताजु लहलही, चित्त ह्वैगो आवेस॥

अभिमानी मुरलिया, करी सुहागिनि स्याम।

अरी, चलाये सबनि पै, भले चाम के दाम॥

ता दिन हीं तें छुटि है, खान-पान अरु सैन।

छीन देह, जीरन बसन, फिरिहौ हिये चैन॥

हा हा! अब रहि मौन गहि, मुरली करति अधीर।

मोसी ह्वै जो तू सुनै, तब कछु पावै पीर॥

सब कौ मन ले हाथ में, पकरि नचाई हाथ।

एक हाथ की मुरलिया, लगि पिय-अधरनि साथ॥

बंस-बंस में प्रगटि भई, सब जग करत प्रसंस।

बंसी हरि-मुख सों लगी, धन्य वंस कौ बंस॥

कछु मोहूँ में प्रेम लखि, तब औरन ते फाट।

कबै पुलिन लै जाहिगे, करन मानसी ठाट॥

मो नैनन की ठौर कों, कब लैहे वह रूँध।

तीन-ताप-सीतलकरन, सघन तरुन की धूँध॥

दमक दसनि, ईषद हँसनि, उपमा समसर है न।

फैलि परत किरननि निकर, कब देखों इन नैन॥

अरी, छिमा कर मुरलिया, परत तिहारे पाय।

और सुखी सुनि होत सब, महादुखी हम हाय॥

तूहूँ ब्रज की मुरलिया, हमहूँ ब्रज की नारि।

एक बास की कान करि, पढ़ि-पढ़ि मंत्र मारि॥

परम मित्र आग्या दई, मेरेहूँ हित वास।

नवल ‘मनोरथ-मंजरी', करी ‘नागरीदास'॥

मुख मूँदे रहु मुरलिया, कहा करति उतपात।

तेरे हाँसी घर-बसी, औरन के घर जात॥

फूँकनि के चल तीर तन, लगे परतु नहिं चैनु।

अंग-अंग आप विधाइकै, हमहूँ बेधतु बैनु॥

हरि चित लियो चुरायकैं, रह्यौ परत नहिं मौन।

तापर बंसी बाज मति, देह कटे पर लौन॥

जमना-तट निसि चाँदनी, सुभग पुलिन में जाय।

कब एकाकी होयहों, मौन बदन उर चाय॥

जो बाँचै सीखै सुनै, रीझि करै फिरि प्रस्न।

सो सतसंगति कीजियौ, पहुँचै ‘जय श्रीकृस्न॥

जुगलरूप-आसव-छक्यो, परे रीझ के पान।

ऐसे संतन की कृपा, मोपै दंपति जान॥

चरन छिदत काँटेन तें, स्रवत रुधिर, सुधि नाहिं।

पूछत हौ फिरिहौ भटू, खग, मृग, तरुबन माहिं॥

मति मारै सर तानिकैं, नातो इतो विचारि।

तीन लोक संग गाइए, बंसी अरु ब्रजनारि॥

सबद सुनवात हमहिं तूँ, देत नहीं छिन चैनु।

अनबोली रहु तनिक तौ, बकवादी बैनु॥

कब दुखदाई होयगो, मोको बिरह, अपार।

रोय-रोय उठ दौरिहों, कहि-कहि,किन सुकुवाँर॥

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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