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दीनदयाल गिरि

1802 - 1858 | बनारस, उत्तर प्रदेश

रीतिकाल के नीतिकार। भाव निर्वाह के अनुरूप चलती हुई भाषा में मनोहर और रसपूर्ण रचनाओं के लिए प्रसिद्ध।

रीतिकाल के नीतिकार। भाव निर्वाह के अनुरूप चलती हुई भाषा में मनोहर और रसपूर्ण रचनाओं के लिए प्रसिद्ध।

दीनदयाल गिरि के दोहे

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साधुन की निंदा बिना, नहीं नीच बिरमात।

पियत सकल रस काग खल, बिनु मल नहीं अघात॥

खल जन को विद्या मिलै, दिन-दिन बढ़ै गुमान।

बढ़ै गरल बहु भुजंग कों, जथा किये पयपान॥

गये असज्जन की सभा, बुध महिमा नहिं होय।

जिमि कागन की मंडली, हंस सोहत कोय॥

तहाँ नहीं कछु भय जहाँ, अपनी जाति पास।

काठ बिना कुठार कहुँ, तरु को करत बिनास॥

बड़े बड़न के भार कों, सहैं अधम गँवार।

साल तरुन मैं गज बँधै, नहि आँकन की डार॥

कीजै सत उपकार को, खल मानै नहिं कोय।

कंचन घट पै सींचिए, नींब मीठो होय॥

होत वृथा हरि भजन बिन, जनम जगत के माहिं।

जथा विपिन मैं मालती, फूलि-फूलि भरि जाहिं॥

कोप करैं महान हिय, पाय खलन तें दूख।

लौन सींचि कर पीड़िए, तऊ मधुर रस ऊख॥

झषै कहा अब ह्वै सखे, भयो सिथिल या देह।

कूप खोदिबो है वृथा, लग्यो जरन जब गेह॥

जैसे जल लै बाग को, सिंचत मालाकार।

तैसे निज जन को सदा, पालत नंदकुमार॥

प्रीति सुखद है सजन की, दिन-दिन होय विशेष।

कबहूँ मेटे ना मिटै, ज्यों पाहन की रेष॥

रजत सीप मैं रजु भुजंग, जथा सुपन धन धाम।

तथा वृथा भ्रम रूप जग, साँच चिदातम राम॥

पीछे निन्दा जो करें, अरु मुख पैं सनमान।

तजिए ऐसे मीत को, जैसे ठग-पकवान॥

हिये सुमिरि गोविंद कौं, नास होय सब लोग।

जा रसायन ते नसै, सनै-सनै ही रोग॥

नीच बड़न के संग तें, पदवी लहत अतोल।

परे सीप में जलद जल, मुकुता होत अमोल॥

खल जन रहैं कुसंग मैं, करि उमंग सो बास।

ज्यों वायस मलकुंड मैं, करि-करि रमै हुलास॥

सठ सुधरैं सतसंग तें, गये बहुत बुध भाषि।

जैसे मलै प्रसंग तें, चंदन होहिं कुसाखि॥

प्रभु प्रेरक सब जगत को, नट नागर गोविंद।

ज्यों नट पट के गोट ह्वै, नटी नचावत वृंद॥

भाषत धीर सरीर को, नहीं छनक इतबार।

ज्यों तरु सरिता तीर को, गिरत लागै बार॥

चिदानन्द की सकति तें, मन इंद्रिन को भोग।

होत जथा रवि के उदै, क्रिया करे सब लोग॥

प्रभु पूरन मति शुद्ध बिनु, सब मैं ह्वै प्रकास।

विमल बिना प्रतिबिंब को, जैसे होय भास॥

सबै काम सुधरैं जबै, करैं कृपा श्रीराम।

जैसे कृषि किसान की, उपजावे घन स्याम॥

हरि करुना बिन जगत मैं, पूरी परै आस।

मृग सरिता पय पान करि, गई कौन की प्यास॥

लखि स्वरूप बुध जगत मैं, रमैं विलच्छन रीत।

मिलत पूरबवत जथा, छीर माँहि नवनीत॥

सुपन रूप संसार है, मोह नींद के माहिं।

बोध रूप जागे बिना, ताके दुख नहहिं जाहिं॥

परधीनता दुख महा, सुख जग मैं स्वाधीन।

सुखी रमत सुक बन विषे, कनक पींजरे दीन॥

किए करम विपरीत तऊ, तऊ संत सोभंत।

नील कंठ भे खाय विष, शिव छवि लहत अनंत॥

दारिद सुरतरु ताप ससि, हरै सुरसरी पाप।

साधु समागम तिहु हरे, पाप दीनता ताप॥

एकै सबही मैं बस्यो, वासुदेव करि वास।

ज्यों घट मठ भीतर बहिर, पूर्यो एक अकास॥

मलन काज मैं खलन की, मति अति होति अनूप।

ज्यों उलूक तम मैं लखै, प्रगट चराचर रूप॥

निखल जुगल मिलाप करि, काज कठिन बनि जाय।

अंध कंध पर बैठि करि, पंगु जथा फल खाय॥

करैं सुजन सतकार पर, परे व्यथा के बंध।

दहत देत सब को अगर, अपनो सहज सुगंध॥

प्रथम काज कीन्यो नहीं, काल गयो सुबिहाय।

बहुरि बड़ो श्रम खाय ज्यों, वट अंकुर की न्याय॥

जाको भयो प्रबोध सो, लख्या स्वरूपानंद।

गिरातीत सुख क्यों कहै, खाय मूक ज्यों कंद॥

अंधनगृही रुजग्रसित अति, दुखित जगत मैं दोय।

जैसे सूकत सलिल के, विकल मीन गति होय॥

मूरख खल को साधु जन, उपदेसत विचारि।

कपि को दीन्हीं सीख खग, कीन्यो गेह उजारि॥

गुनी रसाल रसाल से, नमै सुमन फल पाय।

नीरस तरु से नीच नर, नवैं कोटि उपाय॥

आतम तैसा होत है, जैसो-जैसो संग।

जैसे बरन विकार ते, फटिक बनै बहु रंग॥

पर संपति अति सुरति कै, खल मति ह्वै जरि छार।

पय पूरन लखि कुंभ कों, करै जूठ मजार॥

हित कर अपनो जानि बुध, वचन ताड़ना देत।

जैसे माली सुमन को, बेधत गुन के हेत॥

प्रीति सीखिवो चाहिए, छोर नीर के पास।

वह है कीमति मधुर कवि, वह संग सहै हुतास॥

लघु उपाय करि अरिन कों, निज बस करैं सुजान।

सिसिर मधुर जल सों नदी, दारै अचल पखान॥

चलिबो है चैते जग, भूल्यो देखि समाज।

जैसे पथिक सराय परि, रचै स्वपन के राज॥

तजि मुकता भूखन रचैं, गुंजन के बसु जाम।

कहा करै गुन जौहरी, बसि भीलन के ग्राम॥

माँगत ही मैं बड़न की, लघुता होत अनूप।

बलिमष जाचत ही धरे, श्रीपतिहूँ लघु रूप॥

बारंबार बिचार तें, उपजै ज्ञान प्रकास।

ज्यों अरनी संघरन तें, प्रगटै गुपुत हुतास॥

कोप करैं महान हिय, पाय खलन ते दूष।

लौन सींचि कर पीडिए, तऊ मधुर रस ऊष॥

नहिं जोजन सत दूर जो, दुहु मन पूरन प्यार।

कासमीर मलयज मिले, करैं विहार लिलार॥

करैं बुध विस्वास को, प्रियवादी खल संग।

सुनि बीना की मधुरता, मारे जात कुरंग॥

नृप मानत हैं रूप करि गुन हीनहु से अंग।

गुंजा गुन से रहितऊ, तुलति कनक के संग॥

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