दीनदयाल गिरि के दोहे
साधुन की निंदा बिना, नहीं नीच बिरमात।
पियत सकल रस काग खल, बिनु मल नहीं अघात॥
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खल जन को विद्या मिलै, दिन-दिन बढ़ै गुमान।
बढ़ै गरल बहु भुजंग कों, जथा किये पयपान॥
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गये असज्जन की सभा, बुध महिमा नहिं होय।
जिमि कागन की मंडली, हंस न सोहत कोय॥
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तहाँ नहीं कछु भय जहाँ, अपनी जाति न पास।
काठ बिना न कुठार कहुँ, तरु को करत बिनास॥
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बड़े बड़न के भार कों, सहैं न अधम गँवार।
साल तरुन मैं गज बँधै, नहि आँकन की डार॥
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कीजै सत उपकार को, खल मानै नहिं कोय।
कंचन घट पै सींचिए, नींब न मीठो होय॥
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होत वृथा हरि भजन बिन, जनम जगत के माहिं।
जथा विपिन मैं मालती, फूलि-फूलि भरि जाहिं॥
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कोप न करैं महान हिय, पाय खलन तें दूख।
लौन सींचि कर पीड़िए, तऊ मधुर रस ऊख॥
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झषै कहा अब ह्वै सखे, भयो सिथिल या देह।
कूप खोदिबो है वृथा, लग्यो जरन जब गेह॥
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जैसे जल लै बाग को, सिंचत मालाकार।
तैसे निज जन को सदा, पालत नंदकुमार॥
प्रीति सुखद है सजन की, दिन-दिन होय विशेष।
कबहूँ मेटे ना मिटै, ज्यों पाहन की रेष॥
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रजत सीप मैं रजु भुजंग, जथा सुपन धन धाम।
तथा वृथा भ्रम रूप जग, साँच चिदातम राम॥
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पीछे निन्दा जो करें, अरु मुख पैं सनमान।
तजिए ऐसे मीत को, जैसे ठग-पकवान॥
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हिये सुमिरि गोविंद कौं, नास होय सब लोग।
जा रसायन ते नसै, सनै-सनै ही रोग॥
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नीच बड़न के संग तें, पदवी लहत अतोल।
परे सीप में जलद जल, मुकुता होत अमोल॥
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खल जन रहैं कुसंग मैं, करि उमंग सो बास।
ज्यों वायस मलकुंड मैं, करि-करि रमै हुलास॥
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सठ सुधरैं सतसंग तें, गये बहुत बुध भाषि।
जैसे मलै प्रसंग तें, चंदन होहिं कुसाखि॥
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प्रभु प्रेरक सब जगत को, नट नागर गोविंद।
ज्यों नट पट के गोट ह्वै, नटी नचावत वृंद॥
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भाषत धीर सरीर को, नहीं छनक इतबार।
ज्यों तरु सरिता तीर को, गिरत न लागै बार॥
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चिदानन्द की सकति तें, मन इंद्रिन को भोग।
होत जथा रवि के उदै, क्रिया करे सब लोग॥
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प्रभु पूरन मति शुद्ध बिनु, सब मैं ह्वै न प्रकास।
विमल बिना प्रतिबिंब को, जैसे होय न भास॥
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सबै काम सुधरैं जबै, करैं कृपा श्रीराम।
जैसे कृषि किसान की, उपजावे घन स्याम॥
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हरि करुना बिन जगत मैं, पूरी परै न आस।
मृग सरिता पय पान करि, गई कौन की प्यास॥
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लखि स्वरूप बुध जगत मैं, रमैं विलच्छन रीत।
मिलत न पूरबवत जथा, छीर माँहि नवनीत॥
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सुपन रूप संसार है, मोह नींद के माहिं।
बोध रूप जागे बिना, ताके दुख नहहिं जाहिं॥
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परधीनता दुख महा, सुख जग मैं स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बन विषे, कनक पींजरे दीन॥
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किए करम विपरीत तऊ, तऊ संत सोभंत।
नील कंठ भे खाय विष, शिव छवि लहत अनंत॥
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दारिद सुरतरु ताप ससि, हरै सुरसरी पाप।
साधु समागम तिहु हरे, पाप दीनता ताप॥
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एकै सबही मैं बस्यो, वासुदेव करि वास।
ज्यों घट मठ भीतर बहिर, पूर्यो एक अकास॥
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मलन काज मैं खलन की, मति अति होति अनूप।
ज्यों उलूक तम मैं लखै, प्रगट चराचर रूप॥
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निखल जुगल मिलाप करि, काज कठिन बनि जाय।
अंध कंध पर बैठि करि, पंगु जथा फल खाय॥
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करैं सुजन सतकार पर, परे व्यथा के बंध।
दहत देत सब को अगर, अपनो सहज सुगंध॥
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प्रथम काज कीन्यो नहीं, काल गयो सुबिहाय।
बहुरि बड़ो श्रम खाय ज्यों, वट अंकुर की न्याय॥
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जाको भयो प्रबोध सो, लख्या स्वरूपानंद।
गिरातीत सुख क्यों कहै, खाय मूक ज्यों कंद॥
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अंधनगृही रुजग्रसित अति, दुखित जगत मैं दोय।
जैसे सूकत सलिल के, विकल मीन गति होय॥
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मूरख खल को साधु जन, उपदेसत न विचारि।
कपि को दीन्हीं सीख खग, कीन्यो गेह उजारि॥
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गुनी रसाल रसाल से, नमै सुमन फल पाय।
नीरस तरु से नीच नर, नवैं न कोटि उपाय॥
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आतम तैसा होत है, जैसो-जैसो संग।
जैसे बरन विकार ते, फटिक बनै बहु रंग॥
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पर संपति अति सुरति कै, खल मति ह्वै जरि छार।
पय पूरन लखि कुंभ कों, करै जूठ मजार॥
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हित कर अपनो जानि बुध, वचन ताड़ना देत।
जैसे माली सुमन को, बेधत गुन के हेत॥
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प्रीति सीखिवो चाहिए, छोर नीर के पास।
वह है कीमति मधुर कवि, वह संग सहै हुतास॥
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लघु उपाय करि अरिन कों, निज बस करैं सुजान।
सिसिर मधुर जल सों नदी, दारै अचल पखान॥
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चलिबो है चैते न जग, भूल्यो देखि समाज।
जैसे पथिक सराय परि, रचै स्वपन के राज॥
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तजि मुकता भूखन रचैं, गुंजन के बसु जाम।
कहा करै गुन जौहरी, बसि भीलन के ग्राम॥
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माँगत ही मैं बड़न की, लघुता होत अनूप।
बलिमष जाचत ही धरे, श्रीपतिहूँ लघु रूप॥
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बारंबार बिचार तें, उपजै ज्ञान प्रकास।
ज्यों अरनी संघरन तें, प्रगटै गुपुत हुतास॥
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कोप न करैं महान हिय, पाय खलन ते दूष।
लौन सींचि कर पीडिए, तऊ मधुर रस ऊष॥
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नहिं जोजन सत दूर जो, दुहु मन पूरन प्यार।
कासमीर मलयज मिले, करैं विहार लिलार॥
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करैं न बुध विस्वास को, प्रियवादी खल संग।
सुनि बीना की मधुरता, मारे जात कुरंग॥
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नृप मानत हैं रूप करि गुन हीनहु से अंग।
गुंजा गुन से रहितऊ, तुलति कनक के संग॥
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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere